देश चकाचक प्रगति कर रहा है.सैंसैक्स नयी ऊंचाइयां छू रहा है.पहले लखपति बहुत बड़े माने जाते थे अब करोड़पति की भी कोई औकात नहीं है.चारों और प्रगतिमय माहौल है.जितने पैसे पहले पांच दिन के मैच को जीतने पर भी नहीं मिलते थे उससे ज्यादा बीस ओवर के मैच को जीतने के मिल रहे हैं.जितने पैसे में पूरे महीने के राशन आता था उतने में एक बार का खाना आ रहा है. जो साइकिल चलाता था वो मारुति 800 चला रहा है. जो आवारा था वो मंत्री है. जो भैस दूहता था वो भी मंत्री है. जो गुंडा था…जेल में था वो अभी संसद में है. प्रगति ही प्रगति.मैं किसी अर्थशास्त्री से पूछ रहा हूँ कि क्या कारण है इतनी प्रगति हो रही है. वो मुझे समझा रहा है कि ऎसा इसलिये है कि भारत का लेबर बहुत सस्ता है और भारत का बाजार बहुत बड़ा है.मैं समझने का प्रयास कर रहा हूँ.
भारत का लेबर बहुत सस्ता है यानि आपको कुछ भी काम करने के लिये सस्ते में आदमी मिल जाते हैं.आप गैरकानूनी काम करना चाहें आप पुलिस को खरीद सकते हैं.सरकार से कुछ करवाना है सरकार के बाबू को खरीद सकते हैं.सरकार बनानी है दलबदलू नेता को खरीद सकते हैं.मंत्री को खरीद सकते हैं.लेबर बहुत सस्ता है जी.लेकिन भारत में कुछ भी काम करने के लिये लोग तो हमेशा से मिलते रहे हैं. भगवान राम ने भी रावण के साथ लड़ाई में सस्ते लेबर का प्रयोग किया.लड़ाई करने के लिये कितने सारे बंदर मिल गये.ये और बात है कि देश में लड़ने के लिये बंदरों की कमी कभी भी नहीं रही.जब जरूरत हो जुटा लो.पिछ्ले दिनों खबर थी कि ‘संसद में बंदरों का आतंक’.खैर ..राम की सेना में दो बहुत बड़े सिविल इंजीनियर थे ..नल और नील.उन्होने समुद्र पर पुल बना दिया. उस समय लेबर बहुत सस्ता रहा होगा क्योंकि पुल टाइमली बन गया. आज के जमाने में कुछ भी टाइमली नहीं बनता. जितनी देर में राम ने पुल बनवा दिया आज उतनी देर में तो टैंडर भी नहीं निकलते.खैर हम बात कर रहे थे सस्ते लेबर की. ऎसा ही सस्ता लेबर विश्वकर्मा के पास भी रहा होगा जिन्होने ना जाने कितने नये महल और शहर बना डाले.तब भी लेबर सस्ता था लेकिन तब का लेबर उतना जागरूक नहीं था जितना आज का है. उसे मालूम नहीं था कि अपनी तनख्वाह में एक कुर्सी मेज भी ना आ पाये तो कैसे इम्पोर्टेड फर्नीचर का जुगाड़ करें. राशन खरीदने के पैसे ना होने पर व्हिस्की की विद चिकन व्य्वस्था कैसे करें. बच्चों के फीस के पैसे ना होने के बाबजूद डोनेशन कैसे दें.लेबर के सस्ते होने के साथ जुगाड़ी होना भी देश की प्रगति के लिये अच्छा है.
भारत का बाजार बहुत बड़ा है. यहाँ सबकुछ बिकता है सबकुछ मिलता है. आत्मा बिकती है,परमात्मा बिकता है, ईमान बिकता है,इंसान बिकता है,रिश्ते बिकते हैं,इज्जत बिकती है, नेता बिकता है,अभिनेता बिकता है,दूल्हा बिकता है,दूल्हन बिकती है, मामला बड़ा बिकाऊ किसम का है.आप कहेंगे कि ये कुछ उपदेश टाइप हो गया.तो आपको बता दूँ कि बड़े बाजार का यही तो फायदा है..आप मिनरल वाटर बेच सकते हैं दूध के भावों में.पचास ग्राम आलू का चिप्स बेच सकते हैं एक किलो चीनी के भाव में. एक बर्गर बेच सकते हैं दो बार के खाने के भावों में. बजार है… तो सब है.बजार है ..तो तरक्की है.बजार है …तो विकास है.
मुझे देश की प्रगति का फंडा समझ में आ रहा है.आपको भी आ रहा है ना !!
तत्व ज्ञान की पोस्ट है! 🙂
ठीक है प्यारे, सब बिकता है। लेखक की कोई कीमत नहीं है। लेखक कईसे कायदे से बिके, इस पर कुछ शोध करो ना।
बढ़िया, फ़ंडे तो समझ में आ रहे हैं।
बस उस आवारा से मंत्री बनने का फ़ंडा पूछना ज़रुरी है ताकि यह आवारा-बंजारा भी मंत्री बन जाए
पुल बनाने ले लिए ‘बानरों’ ने सस्ते में काम किया.सस्ते में तो क्या उस समय तो बेगारी की होगी…..
लेकिन इतिहास अपने आपको दोहराता है, इस बात का प्रमाण भी दिख रहा है….स्वतंत्रता संग्राम में जिन्होंने बेगारी की थी, वे अब वसूल रहे हैं….वो भी कई गुना ज्यादा….ऐसे बानर अपने घाव दिखाते फिरते हैं….और घाव का पंजीकरण करवा के उसके हिसाब से वसूली कर लेते हैं….
बहुत बढ़िया, काकेश जी, बहुत पसंद आया.