कका बालकनी में बैठे हुए सामने पार्क में खेलते हुए बच्चों को देख रहे थे.साथ ही पातड़ा (पंचाग) भी देख रहे थे. मैने उनसे पूछा.
"कका.. पंचाग में क्या देख रहे हो..? "
"अरे देख रहा था हरेला कब है. भोल (कल) हरेला है."
"ओ..कल है! कका बताइये कल क्या क्या करना है. "
"अरे यहां शहर में क्या हुआ. पहाड़ में होते तो कल बोया हुआ हरेला काटते,सर में हरेला लगाते, डिकारे बनाते, मातृका पट्टा पूजते. यहां ये सब जो क्या होने वाला ठहरा. बस शगुन का बड़ा बना देंगें. अपनी ईजा को बोल कि कल बड़ा बनाने के लिये रात से मास (उड़द की दाल) भिगो देना."
कका की बातों से थोड़ी निराशा झलक रही थी. मैने उनसे पूछा.
"कका बताओ ना… ये हरेला क्या होता और पहाड़ में हरेला कैसे मनाते है. "
कका तो जैसे तैयार ही बैठे थे.
"अब क्या बताऊं भुला.पहाड़ की बात ही कुछ और हुई. हरेला साल में तीन बार मनाया जाने वाला हुआ. एक तो चैत (चैत्र) के महीने में,दूसरा सौण (श्रावण) में और तीसरा असोज (आस्विन) में. जिस दिन हरेला होता है उसके नौ-दस दिन पहले पांच या सात प्रकार के बीजों को एक टोकरी,थाली या पुराने मिठाई के डब्बे में मिटटी डाल के बो दिया जाता है."
"कका ये कौन कौन से बीज होते हैं."
"अरे घरपन जो बीज मिल गये सबको बो दिया जाने वाला हुआ. जैसे गेहूं, धान, जौ, भट्ट,जुनाव (मक्का),मादिरा, राई, गहत, मास (उड़द),चना, सरसों. जो हाथ पड़ गया.इसका कोई खास विधान नहीं हुआ. लेकिन यह विषम संख्या पांच या सात होने चाहिये. फिर इन सबके ऊपर मिटटी डाल के उस टोकरी या थाली को घर में ही द्याप्ताथान (मन्दिर) में रख दिया जाता है. हर दिन पूजा करते समय थोड़ा थोड़ा पानी छिड़का जाता है. तीन-चार दिन के बाद उन बीजो में से अंकुर निकल जाते है.इन्हे ही हरयाव (हरेला) कहा जाता है.नौवे या दसवे दिन इनको काटा जाता है.जैसे चैत वाला हरेला चैत के पहले दिन बोया जाता है और नवमी को काटा जाता है. सौण का हरेला सौण लगने से नौ दिन पहले अषाड़ में बोया जाता है और दस दिन बाद काटा जाता है. असोज (आश्विन) वाला हरेला नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरे के दिन काटा जाता है."
"ओ…लेकिन हरेला मनाया क्यों जाता है कका."
"भुला हमारी लोक-संस्कृति में बहुत सी चीजें.. वो क्या कहते हैं… साइंटिफिक तरीके से बनायी गयी ठहरी."
"वाह कका आप तो अंग्रेजी भी बोलने लगे."
"तीन हरेले तीन मौसमों के आने की सूचना देने वाले हुई. चैत का हरेला मतलब गरमी आ गयी,सौण का हरेला मतलब बरसा का मौसम आ गया और असोज का हरेला मतलब …"
"ठंड का मौसम शुरु हो गया."
"बिल्कुल सही."
"लेकिन आप कह रहे थे ना आप लोग डिकारे बनाते थे. वह क्या होता है कका."
"बताता हूँ चेला वह भी बताता हूँ. पहले अपनी ईजा को बोल ना एक गिलास चहा बणै दे."
"ठीक है."… मैंने माँ को चाय बनाने को कहा और आकर फिर कका के पास बैठ गया.
"सौण (श्रावण) महीने के हरेले का विशेष महत्व होने वाला हुआ. यह महीना तो शंकर जी का महीना हुआ. इसलिये इस हरेले को कही कही हर-काली के नाम से भी जाना जाता है.तो सौण वाले हरेले में मिट्टी से शिव ज्यू का पूरा परिवार बनाया जाने वाला हुआ और फिर उसकी पूजा की जाने वाली हुई."
"मिट्टी से! ..मिट्टी से कैसे."
"अरे डिकारे का मतलब ही हुआ प्राकृतिक चीजों का प्रयोग कर मूर्तियाँ बनाना…. तो डिकारे ऐसी ही चीजों के बनाये जाने वाले ठहरे.बचपन में हम लोग लाल मिट्टी लेकर आने वाले ठहरे और फिर महीन कर उसमें रुई मिला कर सानने वाले हुए.उसे थोड़ी देर छोड़ देने वाले हुई. फिर उसी मिट्टी से शिव ज्यू, पार्वती ज्यू और गणेश बनने वाले हुए.बांकी तो लोग अपनी मर्जी से देवी-देवता बना लेने वाले हुए.कुछ लोग केले के तने और पत्तों से भी मूर्ति बनाने वाले हुए. डिकारे बनाकर उनको हलकी धूप या छाया में सुखाया जाने वाला हुआ ताकि उसके चटकने का डर ना हो.सूखने के बाद चावल के विश्वार (घोल) से हल्के सफेद रंग का लेप करने वाले हुए.कई बार गोंद मिले रंग भी लगाये जाने वाले हुए. पहले से तो रंग भी घर में बन जाने वाले हुए.ये रंग किलमोड़े के फूल, अखरोट व पांगर के छिलकों से बनने वाले हुए.काला रंग बनाने के लिये कोयला पीस देने वाले हुए.आजकल तो बाजार में मिलने वाले सिन्थेटिक रंग ही प्रयोग में लाये जाते हैं.फिर उन रंगों से देवी-देवताओं के आंख,नाक,मुँह बनाने वाले हुए."
"तो फिर डिकारों में नाक,मुँह बनाने के लिये कोई ब्रश वगैरह यूज करते हैं क्या." ..मुझे जिज्ञासा हुई.
"बुरुश कहां मिलने वाला हुआ.हम या तो लकड़ी की तीलियों से रंग करने वाले हुए या माचिस की तीली में रुई लगाकर उससे रंग भरने वाले हुए."
"और हरेले के दिन क्या क्या होता है ?"
"हरेले वाले दिन घर में पूरी,पकवान जैसे पुआ,बड़ा बनाये जाते हैं.हरेला काटने के बाद इसमे अक्षत-चंदन डालकर भगवान को लगाया जाता है.मंत्रोच्चार किया जाता है रोग शोक निवारणार्थ प्राण रक्षक वनस्पते, इदा गच्छ नमस्तेस्तु हर देव नमोस्तुते. फिर घर के सभी सदस्यों को हरेला लगाया जाता है. हरेला लगाने के लिये सर व कान पर हरेले के तिनके रखे जाते है.एक दूसरे को "जी रया, जागि रया यो दिन यो मास भेटने रैया" कह के आशीर्वाद दिया जाता है. छोटे बच्चो को हरेला पैर से ले जाकर सर तक लगाया जाता है."
"हाँ मुझे याद है जब में छोटा था तो आमा ऐसे ही लगाती थी और साथ में कुछ मंत्र जैसा भी कहती थी."
"हाँ सबके दीर्घायू होने की कामना की जाती है और कहा जाता है."
लाग हरेला, लाग बग्वाई,
जी रए, जाग रए.
स्याव जस बुद्धि हैजो, सूर्ज जस तरान हैजो
आकाश बराबर उच्च है जै, धरती बराबर चकाव है जै
दूब जस फलिये
हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पानी छन तक
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये
"इसका मतलब क्या हुआ कका."
इसका मतलब हुआ कि "तुझे यह हरेला मिले,जीते रहो,जागरूक रहो,तुम्हारी सियार के समान तेज बुद्धि हो,सूर्य के समान त्राण हो,तुम आकाश के समान ऊंचाइयां छुओ, पृथ्वी के समान धैर्ययुक्त बनो, दूर्वा के तृणों के समान पनपो,जब तक हिमालय में हिम रहे गंगा नदी में पानी रहे तब तक जियो,इतने दीर्घायु हो कि तुम्हें भात भी पीस कर खाना पड़े (दांत टूट जाने पार) और शौच जाने के लिए भी लाठी का उपयोग करना पड़े."
"वाह यह तो बहुत अच्छी कामना है."
"और हरेले के पीछे एक मतलब और भी है कि हम प्रकृति का सम्मान करें,आदर करें.कुछ इलाकों में हरेले के दिन नये पेड़ लगाये जाते हैं.हरेला वैसे तो कुमाऊं का मुख्य त्यौहार है लेकिन यह गढ़वाल में भी मनाया जाता है,वहां इसे हरियाली पर्व कहा जाता है."
"मुझे याद है बेटा… बचपन में तो हरेले के दिन गोठ के जानवरों को भी हम हरेला लगाने वाले हुए.अपने नाते-रिश्तेदारों को लिफाफे में सूखा पिठ्या,अक्षत और हरेले के तिनड़े (तिनके) भेजने वाले हुए.साथ में लिखने वाले हुए "आज हरेला भेज रहे हैं सिरोधार्य करना".चिट्ठी मिलने पर हरेला सिर पर रखने वाले भी हुए.हरेले के दिन कान में हरेला लगा कर बढ़े-बूढ़ों का आशीर्वाद लेकर स्कूल जाने वाले हुए."
तब तक चाय आ गयी.कका चाय लेकर पीने लगे और पुरानी यादों में खो गये.मैं भी कका को उन यादों के साथ छोड़कर चल दिया.मुझे हरेले के बारे में कई नई बातें पता चल गयीं थी.
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आप सभी को हरेले की शुभकामनाऐं.
काकेश जी
हम धान बो दिए हैं…बरखा आ ही रही है इहाँ आप कक्का को संग लेके चले आओ खोपोली….शिव मन्दिर भी बहुत बढ़िया है…(देखें मेरी ताजा पोस्ट)…फ़िर देरी काहे की खूब मजे की गुजरेगी जब बैठेंगे…चार दोस्त..आप, मैं कक्का और हरेला…
नीरज
काकेश भाई,
बहुत बढ़िया जानकारी दी। ऋतु परिवर्तन के साथ पर्व पर्व का रिश्ता ही इसलिए जुड़ा है क्यों कि पर्व यानी जोड़, गांठ, उभार।
ऋतु-परिवर्तन से आपके मन में उल्लास जागता है। नए दिनों का स्वागत होता है । उल्लास क्या है ?मन की ग्रंथियों से मुक्ति ही न ! [ इसे देख सकते हैं http://shabdavali.blogspot.com/2007/08/blog-post_19.html ]
इसी तरह अपने इलाके की लोक संस्कृति की जानकारी देते रहें । बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। बधाई और धन्यवाद।
यह इतने-इतने दिन गायब हो जाना अच्छी बात है? रोज़ पहाड़ पर चढ़े विचार नहीं सूझते, बात समझ में आती है, मगर और नहीं तो हमारी टिप्पणियों का पोस्ट ही चढ़ा देते? इतना करने में भी आलस्य होता है?
दाज्यु,
आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया…
हरेला आया करके। हरेले तो मनाते रहे हर साल जबतक मां-पिताजी के साथ थे मगर इतना सब कुछ तो नहीं पता था। धन्यवाद इस जानकारी को रोचक बनाकर सामने लाने के लिए। बामण होने का कर्तव्य पूरा कर रहे हो आप।
जय हो काकेश दा तुमरी,
जी रय्या, जागी रय्या, इन दिन बार भेटने रया।
डियर भुलू
रात्ती पू-बड़-सिंगल-रैत-पूरि खै बेर कानां पिछाड़ि हर्यालक तिनड़ धर ली हुनल. यौ ई बात तौ महेन लौंडल लै थैं बतै दियै!
त्यर हल्द्वाणि वाल दाद
मेरा पहाड़ फॉरम में चल रहे ‘हरेला (हरयाव)’ टोपिक के मैटर की रोचक शैली में प्रस्तुति है |
काकेश जी,
मैं कुमाऊं का हुआ तो हरेला तो मनाने वाले ठैरे घर पना, पर आपने हरेले की जानकारी जिस ढंग से दी वह वास्तव में गजव ही ठैरा। आजकल के पहाड से दूर रह्नने वालों के लिये तो ये भौत ही फ़ैदे की बात हुयी कि बढ़े ही सरल ढंग से आपने हरेले की जानकारी दी। आपको भी हरेले की भौत भौत शुभकामनाऎं।
बहुत बढ़िया पोस्ट लेकर अवतरित हुए हो। कहाँ चले गए थे ? आशा है अब नजर आते रहेंगे। आपको भी हरेले की शुभकामनाऐं।
घुघूती बासूती
Dear Kakesh Bhai,
Kya Come Back Kya hai……GRT………
Paruli ke bad to Aap Gayb ho gaye thae …………Kuch naya post karoga Ise Aas mai…….
आपको हरेले की शुभकामनाऐं।
happy “Harelaa”
हरेले की शुभकामनाऐं.बहुत बढ़िया जानकारी दी.धन्यवाद.
यह बढ़िया टिप्पणी है – हेप्पी हरेला!
kakesh ji maan kush ho gaya… thori udashi zaroor hai.. aama ji walay shabd maan ko kafi dour lay jathay hai… maan dubara unhi bachpan ki yaado mai kho jatha hai…
आपको हरेले की शुभकामनाऐं।
काकेश दा ! आप तो गज्जबि लिख देते हो कहा!
बहुत ही अच्छा वर्णन किया है हरेला पर्व का. श्रावण के हरेले के दिन हम गाँव में पौधे रोपने का खूब काम करते थे. माना जाता है कि हरेले के दिन अगर सूखी डाली भी रोप दी जाये तो वह जरूर पनप जाती है.
अब आपने इतनी जानकारी दे डाली तो मैने भी आपके लिये आमा से आशीर्वाद मंगाया है. यह वीडियो देखें – “जी रए, जाग रए” वाला..
http://www.youtube.com/watch?v=VkZw77dUrug
अहो अशोक दा,
मी इतु नलैक लै न्हैतुन, अब पहाड़ों में न रई भौई पर इतु तो पत्त भौई कि हर्याव कसी मनूणी। ददा चार साल पैली तक इज-बौज्यू दगड़ हर साल हर्याव मनाई भौई हो। अब के करूं, ब्वारी देशी हगे न्ह्तर आई तलक मणूछी।
काकेश जी,
“ सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये” इस आशीर्वाद के क्या कहने।
हरेला जैसी प्रकृति के करीब ले जाने वाली वस्तु हमें अपने यहाँ भी शारदीय और वासंतिक नवरात्र के अवसर पर दिखायी देती है। दुर्गा पूजा की कलश-स्थापना के लिए शुद्ध बालू से एक वेदिका बनायी जाती है। पूजन के समय उसपर जौ के दाने डालकर मिट्टी का कलश रखा जाता है। नौवें दिन विसर्जन के बाद कलश के चारो ओर उग आये जौ के हरे-हरे पौधों को उखाड़कर सभी अपने कान में लगा लेते हैं। इसे देवी का आशीर्वाद मानते हैं।
dajyu thanks keep in touch.
काकेश जी,
बहौत हे अछा लिखा है आपने….सच में इस परदेस में कहा मनया जाता है…….जो अपने घर (उत्तराखंड) में हरेले बनाने में है!!!!!!!!!!
आपका बहौत धन्यबाद करोगा हरेले की नराई के लिये………मैंने इस बार बहौत मीस क्या हरेले………….
Dear kakesh ji,
आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया…
हरेला आया करके। हरेले तो मनाते रहे हर साल जबतक मां-पिताजी के साथ थे मगर aaj sab
bhool gaya why because i was lost in earning the bread & butter. I was totally cut off from my rootes. Palayan(MIGRATION SYNDROM) ka dukh ha. Aaj mujhee apne gaon jana ha? Kya main aa sakta hun apna
uttrakhand main? Meri thathi, mera home sab ho gaya SWAPNA!!!!
जी रय्या, जागी रय्या, इन दिन बार भेटने रया लाग हरेला, लाग बग्वाई,
जी रए, जाग रए.
स्याव जस बुद्धि हैजो, सूर्ज जस तरान हैजो
आकाश बराबर उच्च है जै, धरती बराबर चकाव है जै
दूब जस फलिये
हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पानी छन तक
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये
R.N.Pande
hariom,harela ke baare main jo jankariyan aapne de hain badi mahatwapurn hain.those who born in the citys never been or as a tourist in the pahaad,they can learn lot, if they want.thanx mitrawar thanx.
its a realy very importent news to all young generation.
this is a remarkable things.
its our culture and tredition also.
K J Ghildiyal
New Tehri
thanx u
Dear Kakesh Jew
aapki is information ko 1000 salutes….aapko bahut bahut dhanyawaad itne achche tareeke se Harele ko samzhane ka..
aur bhi likhte rahiyega…
sanjupahari
JAI PAHAR<<>>>JAI BADRI-VISHAL
जै हो महाराज्ज्यू जै हो
kakesh Daa
ya katir le one of your again most touching Chi
Dhanywaad
बहुत बढिया काकेश जी।
Hkksr Hky fy[kpk gks nkT;w fnxks igkMd ckj es rekj ys[k Ik<h igkM ujk ykxh ts gks fy[kus j;k th j;k A ( madan Mohan Joshi) Gangolihat Pithoragarh Uttanchal
Jiya Kakesh Da jagi Raya.
Kakesh Da JI raya Jagi Raya, Unit dino ke Bhetaine raha, Bhaal Bhaal Lekh likhne raha.
Kakesh Di Happy Bagwai,
Kass Cha
Kakesh ji,
bahut bahut Dhanyavaad is mahatvapurna jankari ke liye
काकेश दा आपने पहाड की याद दिला दी इस लेख को पड कर ऐसा लगता है कि मैं पहाड मैं हु और घर पर हरेला मना रहा हु कया गजब का लिखते हो। लगे रहे
Happy Harela
wah! Kakesh ji bachpan ki yaden taja kardi aapne. Harela to bahut bar boya bhi aur celebrate bhi kiya but but iska intna jyadha detail description pahali bar pata chala.
Kotish Dhanyawad
happy harela…………..
लाग हरेला, लाग बग्वाई,
जी रए, जाग रए.
स्याव जस बुद्धि हैजो, सूर्ज जस तरान हैजो
आकाश बराबर उच्च है जै, धरती बराबर चकाव है जै
दूब जस फलिये
हिमाल में ह्यूं छन तक, गंग ज्यू में पानी छन तक
सिल पिसि भात खाये, जांठि टेकि झाड़ जाये
Kakesh jee bahut khus huwa harele ki yad dilai bachpan ke purane din yad aai
kakesh jee namaskar, aaj kumauni culture main wikiuttrakhand key through aapki website daikhi. abhi pura to nahi padh paya, par jitna bhi padha maja aa gaya. apna bachpan yad aa gaya. kaisay hum tayharo ko manatey they. in sab jankariyaun kay ley bahut bahut dhanybad.
Kakesh Ji harele ki subh kamnai 16-07-2012