[ये पोस्ट अजदक की पोस्ट से प्रेरित है..]
पुराने टॉर्च पर नये सैल लगा के टटोलता टटोलता आगे बढ़ने की कोशिश करता रहा.जंगल तो नहीं था पर माहौल जंगल जैसा ही था… घुप्प अन्धेरा … सांय सांय बोलता सन्नाटा. दिन में हुई बारिस से जमीन भी गीली थी.पेड़ो से बीच बीच में गिरती बूंदें ..टप टप टप … अपने को फिसलने से बचाने के लिये संभल संभल कर चल रहा था.
पुराने शब्द …आहा क्या पुराने शब्द ..अब जब पुरनिया हो ही गये तो डर काहे का..उसी आह्लाद में बोझिल उनींदी आंखें…फिरे कोई प्रयास उन भूले पुराने शब्दों को खोज के लाने का..पुराने शब्द ? कौन से पुराने शब्द…अन्दर से आवाज आई.. शब्द कभी बूढ़े नहीं होते .. उनके चेहरे पर कभी झुर्रियां नहीं पड़ती…भुला दिये जायें ये और बात है.. पर तलाश कभी खतम नहीं होती ..कोई शब्द तलाशता है तो कोई अर्थ..
चर चरा रहे थे अधखुले किवाड़ भी ..सांय सांय में चर्र चर्र की बेहतरीन जुगलबंदी..भय कम होने की बजाय और बढ़ गया.. अधखुले किवाड़ ही तो है जो अभी अन्दर आने का रास्ता खुला रखे हैं.. गुमनाम बनके भी गुजर जायें तो भी पहचान लें शायद..लेकिन मेरी तलाश तो पहाड़ की थी उसी नीले पहाड़ की जो शब्दों के बोझ को ढोते ढोते बूढ़ा हो गया. मैं अधखुला दरवाजा छोड़ आगे बढ़ गया.. बूंदा-बांदी फिर शुरु हो गयी थी.. अपने चश्में में पड़ते छीटों को पोंछ्ता …हाथ से पगडंडी में आयी झाड़ियों को हटाता आगे बढता रहा…
नदी कहीं आसपास ही थी.. पानी का शोर बढ़ता रहा ..क्या बाढ़ आ जायेगी?? ..क्या डूब जाउंगा मैं ??..अनेक प्रश्न मन के सागर में गोते लगाने लगे…अचानक जोर की आवाजें आने लगी ..फिर कहीं से रोशनी भी आने लगी.. दूर कहीं कुछ लोग बदहवास भागे जा रहे थे… हाथों में मशाल लिये ..उनकी मशाल के आगे मेरी टॉर्च फीकी थी… वो चिल्ला रहे थे ..हिन्दी हिन्दी …अपनी हिन्दी…मेरी हिन्दी ..तेरी हिन्दी …वो और करीब आ गये..शायद उन्होने मुझे देख लिया था…वो मेरी ओर ही आ रहे थे.. मशाल उठाये…मेरे माथे पर पसीने की बुंन्दे चुंहचुंहा गयी ..क्या पता ये मुझे मार दें….??
तभी अचानक जैसे आंख खुली …अचकचा कर उठ बैठा ..कानों में हिन्दी हिन्दी …चिन्दी चिन्दी का शोर अभी भी सुनायी दे रहा था….
ओह ये सिर्फ सपना था….!!
एसे भयानक सपने तुम क्यों देखते हो ?
मैथिली जी की बातों को अनदेखा करो.. नित नए भयानक सपने देखो, और मज़ेदार वालों की पोस्ट बनाओ.. बड़े हो गए हो, अब घबराने वाली बात नहीं रही!
ये सब मुबई मीट का अभी तक चढा ज्वर है,उसकी वजह से है.चिंता ना करो अगले हफ़्ते से दिल्ली के ही सपने डरायेगे.तब खामखा लोगो को सपने मे धमकाते फ़िरोगे..
सही है। लगे रहो। प्रमोद जी का अकेलापन दूर करते रहिये।
काकेशजी आपका सपना अधूरा सा है मात्र लोगों के हाथ में मशालें देख कर डर गये.
सर्वेश्ररजी ने अपनी भेड़िया कविता में लोगों को कहा है-
भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ,
भेड़िया भागेगा
तुम में और भेड़िये में फर्क इतना है
तुम मशाल जला सकते हो
भेड़िया नहीं जला सकता
अभी तो मशाले जलना शुरू हुई हैं भेड़िये बाकी हैं.
तुम अपनी दीर्घदृष्टि से देख रहे हो .भेड़ियों की तो मुँह और पूँछ दोनों तरफ से मशाल घुसायेंगे तब बात समझमें आयेगी.
जो बुजर्ग भेड़िये है वे अपनी नाजाइज़ औलादों को समझायें कि हमारी शान में गुस्ताखी न करें अगर हमें क्रोध आगया तो उनके बाप भी हमारी रेन्ज में हैं.सपने को हकीकत होते देर नहीं लगेगी डॉ.सुभाष भदौरिया ही नहीं हमें केप्टन भदौरिया भी कहते हैं.
हम आपकी पोस्ट पर इसलिए आते हैं कि आप परसाईजी को टंकित करते हैं वे हमारे मानसपिता हैं आप उनका सम्मान करते हैं बस यही आपका हमारा रिस्ता है लेकिन कमजर्फ इतना भी बरदास्त नहीं कर सकते