कल से तो सतझड़ (बारिश होना) पड़ रहे हैं भुला. सारे लकड़ी, गुपटाले भीग गये हैं. चूल्हा जलाने में धुंआ तो होगा ही. आमा (दादी) चूल्हे में फूंक मारते मारते अपने नाती को समझा रही है. लेकिन नाती जो अभी मात्र पांच साल का ही है उसे इस सतझड़ और गुपटालों (उपले) से क्या मतलब. वो तो हाथ में कटोरी ले के आ गया गोठ (नीचे का कमरा) में जहाँ रसोई भी है. भुला की आंखों से धुंए के कारण पानी निकल रहा है लेकिन वो फिर भी रसोई में खड़ा है.
आमा दाल-भात दे ना.भुला बोला…. भुला की नाक से सिंगाणा निकल रहा है. जिसे वो बार बार अपने कमीज की बांह से पोछ लेता था.
अल्ल द्यूँ चेला..बनने तो दे. वैं (वहीं) बैठ जा
आमा धोती लगा के खाना बनाती थी …इसलिये रिस्या में किसी को नहीं आने देती थी. अपने चारों ओर कोयले से एक लकीर खींच देती थी और किसी को भी उस लकीर के अन्दर पांव छूने की भी छूट नहीं थी. आज आमा ने पालक का कापा और दाल बनायी थी. दाल बन चुकी थी बस जम्बू का धुंगार लगाना बांकी था.चावल बन रहा था. आमा ने पतीली का ढ्क्कन निकाल कर चावल को पणुवे से चलाया. चावल के दो दानों को हाथ से मसल कर देखा. …और किसी तरह से फूंक मार मार कर चूल्हा जलाया… लकड़ियों को ऊपर कर आंच तेज की.भुला हाथ की कटोरी को एक छोटी लकड़ी से बजाता हुआ वहीं बैठ गया.
आमा को सोच पड़ गये.बाहर धीमे धीमे द्यो (बारिश) पड़ रहा है. ऎसी बारिस में गोरू-बल्दों के लिये सूखी घास का इनजाम पहले से करना होगा.अच्छा किया ब्वारी (बहू) को रतैब्याण ही जंगल में भेज दिया. कुछ हरी घास काट के ले आयेगी तो गोठ में रखी सूखी घास थोड़ी ज्यादा चल जायेगी…. नहीं तो फिर वो नये वाले लूटे से घास निकालनी पड़ेगी. तीन दिन से मोव (गोबर) भी नहीं निकाला.थोड़ा द्यो कम हो तो आज मोव निकाला जाय.हाथ के सारे पैसे भी खतम हो गये. खिमुवा का मनीआर्डर आने में तो अभी और दस दिन में बांकी है. आज बुबु (दादा) किसी जजमानी में जायें तो कुछ पैसा मिले. अभी हरिया को पैसे भी देने है. पिछ्ले हफ्ते मडुवा पिसाया था ना. …खिमुवा की चिट्ठी आये भी पन्द्रह दिन से ऊपर हो गये.सब कुशल ही होगी. ये फौज की नौकरी भी ना एकदम बेकार है… एक साल से खिमुवा घर नहीं आया. इस बार आयेगा तो उसको बोलुंगी..क्या फायदा ऎसी नौकरी का..अब यहीं रह जा..यहीं कोई छोटी मोटी दुकान खोल ले नहीं तो कही चपरासी की नौकरी ही कर ले.. शायद मान जाये… लेकिन कहीं वो अपने दगड़ुवों के चक्कर में पड़ गया तो..रोज शाम को सब शराब पीके आते हैं फिर अपनी सैणी (पत्नी) को मारते हैं.. ना हो ना..उससे तो मेरा खिमुवा ही अच्छा..साल में एक बार घर आता है तो सब उसकी कितनी इज्जत करते हैं..सबको वो मिलट्री के रम की बोतल दे देता है तो साल भर सब उसके गुणगान करते है.. कल ही चिमुली के बौज्यू ब्वारी से कह रहे थे.. धुल्हैणी (बहू) ..कब आ रहा है हो खिमुवा….वो भी अपनी रम की बोतल के जुगाड़ में होंगे…
तभी चावल उबल कर उसका पानी चूल्हे में गिरने लगा. छ्यां की आवाज से आमा की तंद्रा भंग हुई.
लगता है चावल पक गया. आमा पतीली को हटा जंबू के धुंगार की तैयारी करने लगी.
सामने भुला लिपी हुई जमीन में कोयले से कोई नयी आकृति बना रहा था.
क्या दाज्यू बचपन की याद दिला दी गोठ की कहानी और जम्बू के तड़के की सुनाकर, जिन लोगों को कुछ शब्द शायद समझ ना आयें उनके लिये उन शब्दों के अर्थ कुछ इस तरह हैं:
आमा यानि दादी
रिस्या यानि रसोई
पणुवे यानि kind of serving spoon
गोरू-बल्दों यानि गाय और बैल
रतैब्याण यानि सुबह सुबह
दगड़ुवों यानि साथी लोग
सैणी यानि बीबी
बौज्यू यानि पिता
भुला यानि भाई
[काकेश : भुला छोटे बच्चे को प्यार से भी कहते हैं. ]
बहुत बढ़िया ! ऐसे पिटारे खोलते रहिये लेकिन ज़रा जल्दी जल्दी । बहुत दिन लगाते हैं आप ।
[काकेश : अब हर हफ्ते बुधवार को यह पिटारा खुलेगा जी ]
ये हुई कुछ पहाड वाली..मजा आ गया..वैसे आधा तो मै इसको पढकर खोया पानी से संबंध जोडने मे लगा रहा कि ये अगली कडी मे कैसा बदलाव…:)
sunder rachna…bhut kuch yaad aa gaya apna bachpan aur dadi ka ghar
काकेश जी बहुत ही सुन्दर लिखा है…. पहाडी व्यंजनों की खुशबू महसूस हो रही है… पहाड का सबसे बडा दर्द शराब है, उस दर्द को व्यक्त करने की कोशिश की है… बडी खुशी की बात है कि अब हर हफ्ते आपकी पहाड से संबन्धित लेख पढने को मिलेगा….
बहुत सुंदर काकेश जी!
apni mitti ki mahak kitni pyari hoti hai.Yad karo to lagta hai maa ki god me pahunch gaye.
bahut sundar.
Excellent Kakesh. Keep it up …
Kakesh bhai hum to tumhare bahut bade fan hai…..Jab se tumne jaganda ki canteen ki bat likhi thi aek blog mai to purane GIC ke din yad aa gaye……Kya mara mari hoti thi interval mai karela lene ke liye!!….Keep it up!!!Budhwar ka besabri se intejar rahega..
Kiran Kumar tewari
परिवेश भले ही पहाड़ का हो, बचपन और माँ तो मुझे भी याद आ गईं।
आँखें भीग गईं।
बहुत सुन्दर ! बहुत नौराई लगा दी आपने । कुछ दिन पहले ही जम्बू वाले नमक और जम्बू के छौंके को याद कर रही थी ।
घुघूती बासूती
[काकेश : घुघुती जी नमक जम्बू का नहीं होता…भांगे का होता है…]
सुंदर!!
बहुत जमी पोस्ट भुला!
अरे वाह यहाँ तो पहाड़ी जनजीवन के ही दर्शन हो गए. घर से दूर रहकर घर की याद हो आई. भांग का नमक, दाड़िम की चटनी, रस – भात और मूली के पत्तों का साग खाए हुए बहुत दिन हो गए. आपने तो मुंह में पानी ला दिया !
I really feel proud 2 b a pahadi after going through your blog. I appreciate your efforts and hope your poetry will help to feel proud as pahadi to all readers.
बहुत बढ़िया। कुमाउंनी संस्कृति भाषा और बोली थें अघिने बढ़ाणक वास्ते ये बहुत जरूरी छ कि हम सब अपनी संस्कृति की उन बेजोड़ घटनाओं और शब्दों कें कहानी और साहित्यक माध्यम से सबू पास तक पहुचों।
धन्यवाद
जारी रखो अपणी यो भगीरथ यात्रा।
काकेश दाज़्यू,
बड़ शून्दर श्ब्दचित्र ! कुमाँयुनी आत्मा सहित ।
आजकल कुछ ही दिनों बाद ‘ बेर पाकोऽ..बारा मासा ‘ बस गूँजने ही वाला है, वहाँ ।
शुणों हो, यो तुमर नरई शीरीज औरी भल छू,तृप्ती.. है गैई – मनीष [ बामण खै जाड़ (-:)] [p.s. – मकं भली कै बलैण नी ऊंण – छिमा ]
I belonges to garhwal, now i am far from my birth place, i always miss my garwal , the green trees, mountains , the rivers , and good hearted people . you make remember me all thanking you
bhut behtareen hai ye
bilkul apni kahani ………..
Kakesh Ji… aap ko namskar.. yah sab padh kar ham sab ko purane din yaad aa gaye. Kiran ji ne Gagan da ke canteen ka jikra kiya tha kaheen upar. yah kab aaya tha .. vistam main padna hai kripya kar ke batayeega.
bahut sundar kakesh ji jammbu ka dhoongar ke baad hi sab kuch samajh mein aane lagata hai…..sab ki apni -apni aama aur sabka apna-apna jamboo ka dhoongar….yani ek pahar aur sabki apni-apni ismratiya….bahut sundar kuch dino se apko lagatar par raha hun.
Kakesh daaju bahoote bhal lago ..aama aur dhungar 🙂 …kakesh daaju k apan baari mein bata di chha tou bhal hoon chi …hamke ye patt ne lag paan ki aapek katook umar chhu aur kaan roon chha….agar nak ni maanala tou kabbbhe bakhhat milte bata dena 🙂
-Rajeev
Bahut khoob,
pahadi juban aur pahadi khana to ab pahad mein bhi dekhne ko nahi milta. apki kahani mein lage jambu ke tadke ki khushboo to yahan koria tak aa rahi hai.
इस संदर्भ में गिर्दा की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-
मुश्किल से आमा का चुल्हा जला है…..।
(चौमासा का दिन छन, लाकड़ा-पातड़ा सब भीज रईं)
मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है,
गीली है लकड़ी, गीला धुवां है,
साग की छौंका कि……..अहाऽऽऽ
गौं महका है।
ओ हो रे गन्ध निराली,
ओ ईजाऽऽऽऽ लागी कुत्क्याली।
याद दिला दी आपने आमा की………………….।
Rakesh ji mai bhi khuth likhna chahata ho phar ke bari me.damodar
I very much happy to read cultural comment and eyes become wet, remembered the childhood
sk pant
9829888211
maza aa gaya yar kakesh bhai . mujhe to meri aama ki yaad aa gayi