पहले रवीश जी की पोस्ट आयी अहमदाबाद के जातिवाद के बारे में.पढ़कर बहुत आश्चर्य हुआ. अब रवीश जी जैसा सम्मानित पत्रकार जब स्पेशल रिपोर्ट कर रहा है तो फिर शक की गुंजाइस तो थी नहीं फिर भी मन नहीं माना.अपने एक मित्र से संपर्क किया जो अहमदाबाद में रहे हैं तो उन्होने भी इस तरह की किसी जातिवाद की समस्या से इनकार किया.लेकिन वो मित्र तीन वर्ष पहले ही अहमदाबाद छोड़ चुके थे इसलिये उनकी बात पर पूरी तरह से यकीन ना किया गया.एक तरफ रवीश जी थे..एन डी टी वी था दूसरे ओर हमारे नॉन गुजराती मित्र ..अंतत: एडवांटेज रवीश जी को ही दिया गया और हम बेसब्री से उस स्पेशल रिपोर्ट की प्रतीक्षा करने लगे.पता चला कि अभी फिलहाल वह रपट स्थगित कर दी गयी है. फिर योगेश शर्मा जी का लेख आया उससे स्थिति थोड़ी साफ सी हुई.उस लेख को पढ़कर मेरी भी हिम्मत हुई कि मैं भी अपने इसी तरह के अनुभव आप सब के सामने रखूँ. क्योकि जो बात योगेश जी के हिसाब से अहमदाबाद में सच है वही बात कमोबेश दिल्ली के लिये भी सच है कम से कम मेरे अनुभव तो यही कहते है.
तकरीबन ड़ेढ़ बरस दिल्ली आया तो मकान की समस्या से दो चार होना पड़ा. लोगों ने सुझाया की सस्ता मकान किराये पर चाहिये तो या तो नौएडा में लो या फिर गुड़गांव में. तो हमने खोज प्रारम्भ की. नोएडा में एक मकान पसन्द आया जिसमें नीचे के हिस्से में मकान मालिक का परिवार रहता था और उपर का हिस्सा किराये के लिये था.यह मकान हमें एक प्रोपर्टी डीलर ने दिखाया.मकान मुझे पसन्द आ गया तो डीलर बोला चलिये फिर मकान मालिक से मिल लेते हैं.मकान मालकिन से मिले पहले तो उसने इधर उधर की बहुत सी बातें पूछी मसलन घर में कौन कौन है.क्या क्या शौक है वगैरह बगैरह ..हमने सारे सवालों के सही सही जबाब दिये और सोचने लगे कि अब ये मकान किराये के लिये मिल ही जायेगा..इसी सोच में डूबे थी कि मकान मालकिन ने पूछा … कि पंजाब में किधर घर पड़ता है आपका.. उनकी बात मेरे समझ में नहीं आयी.मैने कहा जी मेरा घर पंजाब में नहीं है..तो वो चौंक सी गयी..तो फिर आप पंजाबी नहीं है..मैने कहा नहीं तो.. तो वो सीधे बोली तब तो आपको हम ये किराये पर नहीं दे सकते क्योंकि हम केवल पंजाबियों को ही किराये पर मकान देते हैं..
इसी तरह की बहुत सी अन्य बातें भी पता चलीं.. इसी मकान खोज के दौरान. जैसे एक प्रोपर्टी डीलर ने एक विशेष सोसायटी के बारे में बताया जिसमें अन्य सोसाइटियों के मुकाबले किराया काफी कम था.पूछ्ने पर उसने कहा कि उस सोसायटी में केवल नीची जाति के लोग रहते हैं इसलिये किराया कम है.इसी तरह कि कई अन्य बातें भी ज्ञात हुईं….वो बातें भी सोसायटियों से संबंधित थी ठीक उसी तरह जिस तरह योगेश जी ने अहमदाबाद के बारे में बताया. दिल्ली में भी आपको बहुत सी सोसायटीज ऎसी मिलेंगी जहां आपको एक ही तरह के लोग मिल जायेंगे.
यदि आप दिल्ली में आइ पी एक्सटेंशन या मयूर विहार की ओर जायें, जहां हमने सर्वाधिक खोज की थी किराये के एक अदद फ्लैट की, तो इस तरह के बहुत से सच सामने आयेंगे..जैसे आपको मिलेगा “काकातिया अपार्टमेंट” जहां आप आप को सिर्फ दक्षिण भारतीय लोग ही मिलेंगे और यदि आप दक्षिण भारतीय नहीं हैं तो आप वहां किराये पर मकान नहीं ले सकते. इसी तरह “हिमालय अपार्टमेंट” में ग़ढवाली और “हिम विहार” में आपको केवल कुमाउंनी लोग मिलेंगें. “तरंग” अपार्टमेंट में केवल एन आई सी में काम करने वाले लोग हैं तो “कानूनगो अपार्टमेंट” में केवल कानून विद . इसी तरह से आपको “प्रेस अपार्टमेंट” और “इंजीनियर्स स्टेट” भी मिल जायेंगे.
कहने का मकसद है कि एक तरह के लोगों का समूहबद्ध होना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है ना कि केवल जातिवादी प्रक्रिया.हम सभी अपने अपने पसंद व रुचि के हिसाब से समूहबद्ध होते हैं…और ये एक स्वाभाविक प्रकिया सी लगती है. मेरे हिसाब से इसमें ज्यादा चिंतित होने वाली बात नहीं लगती.. वैसे भी धीरे धीरे बाजार इन सभी आभासी ढांचों को तोड़ रहा है. जैसा कि परसाई जी ने कहा है ” अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है तब गोरक्षा आन्दोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं.” …ठीक वैसी ही स्थिति है. आप मकान उसे देंगे जो आपको ज्यादा पैसे देगा बिना इस बात कि चिंता किये कि वो किस जाति का है.
ये लेख अहमदाबाद की तथाकथित समस्या पर मेरे विचार नहीं है वरन दिल्ली में मुझे हुए अनुभवों का वर्णन है.रवीश जी की स्पेशल रिपोर्ट की अभी भी प्रतीक्षा है.
यह दिल्ली ही नहीं, मुंबई- कमोबेश किसी भी बड़े भारतीय शहर की अंदरूनी डायरी है. इस अनुभव से नतीजा क्या निकलता है? एक तो वह जिसे आप समूहबद्धता की सहूलियत का सीधा, आसान-सा नाम देकर छुट्टी पा सकते हैं. और देखना चाहें तो (मुझे हर जगह वही प्रभावी दीखता है)- कि ऊपरी तौर पर आधुनिकता के दिखावटी हो-हल्ले के बावजूद किस तरह यह हमारी एंटी-शहरी, घेटोआइज़्ड और अपनी पहचानी सामूहिकता से बाहर किसी भी अजनबीयत से भारी भय की मानसिकता है! आपको-हमको उतना न दिखे, मगर किसी भी अनजानी व नयी जगह में अल्पसंख्यक जिसकी सबसे ज्यादा तक़लीफ़ें व अलगावपन झेलते व जीते हैं.
काकेश थोड़ा सरलीकरण किए जा रहे हैं, जरा थमिए:
आप दिल्ली के बारे में जो कह रहे हैं वह पूरी तरह निराधार नहीं है पर आप बसावट के अधिकांश उदाहरण पेशेगत व क्षेत्र के देकर इसे स्वाभाविक कहे दे रहे हैं- जाति की भी भूमिका है उसे नजरअंदाज न करें और धर्म की भी- पर विशेष बात यह कि ये दिल्ली की प्रकृति उस रूप में नहीं है जैसी रवीश बता रहे हैं (अगर सच है तो)और फिर ‘अपने जैसे’ लोगों के इकट्ठे होने में जो सेल्फ व अदर की गहरी निर्मिति है वही तो ‘दंगे’ की शुरूआत है।
एक नजर ताज एपार्टमेंट (गीता कालोनी) पर भी डाल आएं और स्पष्ट हो जाएगा।
ये जो अल्पसंख्यकों में भय-मनोवृत्ति होती है, महानगर उसका निषेध करता है या कहें आदर्श रूप में उसे करना चाहिए पर यदि वह उसका पोषण करने लगे तो ये महानगर का ग्रामीकरण है जो ‘गुजरातों’ को जन्म दे सकता है- देता है।
जा की रही भावना जैसी,उसको दिखी उसकी सूरत वैसी,
काहे महामोह्ल्लेशवर,कस्बेशवर को समझाने मे वक्त,समय और दिमाग जाया करते हो
इतनी मेहनत अपने विभाग के साथ करो,चौपाये तक ट्रेंड हो जायेगे
” तुम खुब समझालो,वो नही समझेगे या रब
या खुदा उन्हे दे बुद्धी,काकेश को बदाम का ट्रक:
मियाँ काकेश, आप की पोस्ट से ज़्यादा आप की पोस्ट पर टिप्पणीकारों से सहमत हुआ जाता हूँ.. आशा है आप बुरा न मानेंगे..प्रमोद जी और मसिजीवी ने पते की बात कही है..
मुहल्ला हो चाहे न हो. लोगों की सोच में ही वह बस गया है. पोस्टमें/टिप्पणीमें/बहसमें मुहल्लीकरण कर ही लेते हैं.
आपका लिखा गलत है, क्योंकि दिल्ली गुजरात में नहीं है. बाकि ऐसा तो सब जगह मिल जाता है.
आपका सोचना कुछ सीमा तक सही है । बहुत सी बातें ऐसी होती हैं जो हमें स्वाभाविक व व्यवहारिक लगती हैं किन्तु जो पोलिटिकली करेक्ट नहीं होतीं । मान लीजिये मैं शाकाहारी हूँ और मेरा पूरा परिवार शाकाहारी है तो यदि मैं शाकाहारी लोगों के बीच रहूँगी तो मेरा जीवन सरल हो जाएगा । मैं रात दिन पड़ोसियों के घर से आती माँस पकने की गन्ध से बच जाऊँगी । मैं स्वयं माँस पकाती हूँ पर मुझे भी वह गन्ध असह्य लगती है ।
इसी तरह यदि किसी सोसायटी में केवल वृद्ध रहते हों तो वे पार्टियों व संगीत की ऊँची आवाज से भी बच जाएँगे और युवाओं को टोकने से भी ।
पर यही सब बात जब धार्मिक या जातीय स्तर पर कही जाती है तो स्वाभाविक रूप से बुरी लगती है । यदि मैं किसी माँसाहारी ब्राह्मण को घर किराये पर देने से मना करती हूँ तो उसे बुरा नहीं लगेगा, पर यदि किसी अन्य धर्म वाले , या जाति वाले को माँसाहार के आधार पर मना करूँगी तो उन्हें निश्चय ही लगेगा कि मैं धार्मिक या जातीय भेदभाव कर रही हूँ । यह साधारण सा मनोविग्यान है ।
हाँ, यह भी सही है कि जितनी अधिक विविधता किसी मौहल्ले में होगी उतना ही वह हमें सहनशील व औरों के अधिकारों व भावनाओं के प्रति जागरुक बनायेगी ।
घुघूती बासूती