मेरी किसी पत्रकार से दोस्ती नहीं है.हाँ जान-पहचान सी है. लेकिन हर मौकों पर केवल जान पहचान से काम नहीं चलता.दोस्ती चाहिये.पत्रकारों से दोस्ती ना होने के बहुत सारे नुकसान हैं और कुछ कुछ फायदे भी हैं. सबसे बड़ा नुकसान तो यह है कि आपका नाम किसी पत्र-पत्रिका में तब तक नहीं छ्पता जब तक कि आपने सही में कोई बहुत अच्छा या बुरा काम ना किया हो. दोस्ती होने से आपके नाम के चर्चे बहुत जल्दी हो जाते हैं. फायदा तो यह है ही कि आपको फालतू की बहस में नहीं खीचा जाता.
ऎसे ही एक जान पहचान के पत्रकार हमारे पास आये.मैने उन्हें दुआ सलाम की.वो एक्दम बौखलाये हुए थे. वो अक्सर इस तरह बौखलाये हुए मेरे पास आते थे.जब जब उनकी कोई रचना किसी संपादक से रिज़ेक्ट होकर आती है वो उसे गरियाते हुए मेरे पास आते हैं.ये बात और है वो उसी रिज़ेक्ट माल को रीसायकल करते रहते थे.कभी इस पत्रिका में कभी उस पत्रिका में. इसलिये गरियाने का अवसर भी उनको मिलता रहता था.कभी इस संपादक को कभी उस संपादक को.
आज वह मेरे साथ दलित विमर्श करना चाहते थे.मैं आमतौर पर उनसे बहस नहीं करता.क्योंकि एक तो उनकी बहस का मतलब होता था कि जो वह बोल रहे हैं उसी की हाँ में हाँ मिलाओ, नहीं तो वह अपने किसी संपादक की तरह आपको गाली देने में भी पीछे नहीं हटते थे…और दूसरे मैं अपने आप को किसी भी बहस के उपयुक्त मानता भी नहीं हूँ क्योंकि बहस के लिये जिस बुद्धि,तर्क,कुतर्क, नीचपने,चाटुकारिता और चंपुओं की फौज की जरूरत होती है वो मेरे पास नहीं है. लेकिन आज वो दलित-विमर्श पर उतारू थे और मैं अपने आपको दलित विरोधी साबित नहीं करना चाहता था. मैं था भी नहीं लेकिन मेरे लिये दलित बहस का मुद्दा ना होकर सामाजिक व्यवस्था का एक अंग था जिसके उत्थान के लिये किसी बहस की जरूरत नहीं वरन सही में कुछ करने की जरुरत थी.
मैं उन्हें टालना चाहता था इसलिये जब उन्होने पत्रकारिता में एक दलित पत्रकार की तलाश या ऎसा ही कुछ कहा था तो मैने उनसे पूछा …दलित मतलब क्या ? उन्होने सोचा ना था कि मैं ऎसा मूर्खतापूर्ण प्रश्न भी कर सकता हूँ. वो थोड़ा सकपका गये लेकिन फिर भी खुद को संयत करके बोले.
“दलित …मतलब जो सरकार की सूची में दलित है. “
“यानि सरकार तय करती है कि कौन दलित है या नहीं..”
“नहीं ..हाँ ..मतलब कुछ जातियाँ है जो दलित जातियां है…”
“जैसे….”
“जैसे…माली,कहार,जुलाहा,मोची,सुनार,कचरा साफ करने वाला,गंदगी उठाने वाला…”
“लेकिन ये सब तो व्यवसाय हैं ना…”
“लेकिन यह दलित व्यवसाय हैं….जैसे मैं जुलाहा जाति का दलित हूँ…”
“मतलब आप कपड़ा बुनते हैं…”
“नहीं मैं तो पत्रकार हूँ…लेकिन…”
“तो आपके पिताजी होंगे…”
“नहीं वो तो किसी राज्य में अंडर सैक्रेटरी हैं….”
“तो फिर आप दलित कैसे हो गये…आप तो दलित नहीं हो सकते..”
“नहीं मेरे पूर्वज कपड़ा बुनते थे…”
“तो आपके पूर्वज दलित हुए …आप तो पत्रकार हुए ना…”
“लेकिन… मेरे पास जाति प्रमाण पत्र भी है…”
“यानि जाति प्रमाण पत्र निर्धारित करता है कि आप दलित हैं कि नहीं और ये प्रमाण पत्र कौन देता है..
“ये सरकार देती है…”
“यनि कोई भी एक प्रमाण पत्र लेकर यह प्रमाणित करदे कि वह मोची है तो वह मोची हो जायेगा…भले ही वह काम कुछ भी करे…”
“लेकिन यह तो सरकार का नियम है…”
“हाँ सरकार का नियम तो है ही कि मलाई खाने वाले को मलाई खाने दो…”
“देखिये आप दलितविरोधी बात कर रहे हैं.”
“लेकिन……”
वो अपनी पर उतर आये थे.
“आपको तो बिल्कुल भी समझ नहीं है… मैं पूरे मोहल्ले में प्रचार करुंगा कि आप दलित विरोधी है. अपने चंपुओं की फौज आपके पीछे लगा दुंगा…बचके रहियेगा”
वो बड़बड़ाते हुए निकल गये…मैं खुश था कि चलो पीछा छूटा…
आप ख़ुश हैं कि पीछा छूटा…. अरे नहीं जनाब पीछा तो अब शुरू होगा, जूतियाँ भिगो के मारी हैं तो अब चंपुओं की फौज से बच के रहिएगा।
इतना जानके भी कइसे ई सोच लिए कि पीछा छूटा।
अरे काकेश जी, आपको भी बहस करना नहीं आता! हम तो समझते थे कि बहस करना केवल हमें नहीं आता. चलिए कोई बात नहीं. हमारे आफिस के आस-पास ही एक ‘बहस ट्रेनिंग इन्स्चीच्यूट’ खुला है. चलिए हम दोनों भर्ती हो जाते हैं.
काकेश, ये सब टिल्ल-बिल्ल छोड़ो, बताओ, हमारे यहां गाना सुने कि नहीं?
आप खुश रहें काकेशजी , हम भी यही चाहते हैं।
बहुत सुकून से ऐसी ही फुलझड़ियां छोड़ते रहे।
काकेशजी आप प्रसन्न रहें और ऐसी ही फुलझड़ियां छोड़ते रहें।
“काकेशजी आप प्रसन्न रहें और ऐसी ही फुलझड़ियां छोड़ते रहें।”
अजीत जी ये तो बताये कौन सी फ़ुलझडिया दलित वाली या स्वर्ण वाली..:)
अच्छा हुआ अरुण जी कि आपने ‘स्वर्ण’ वाली कहा. सवर्ण वाली कहते तो ग़दर मच जाता. वैसे दलित और ‘स्वर्ण’ पर ही तो आजा नाच ले में झगडा हुआ था……………….:-)
ये क्या हो रिया है? ये क्या हो रिया है?
अब तो लगता है आपके ब्लाग का नाम बदल कर ” काकेश की कतरनें” की जगह “काकेश की करतूतें” रख दें तो कैसा?
गुरूजी बढ़िया patanga बाजी की आपने.
किसी के बहस के तरीक़े से ऐतराज़ होना एक बात है और पूरे दलित प्रश्न को हवा में उड़ा देना नितान्त दूसरी.. आप किसी के दलित होने का लाभ लेने पर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं.. आप आरक्षण के औचित्य पर सवाल कर रहे हैं.. हँसी-हँसी में.. ये बात हँसने की नहीं हैं..
[काकेश : अभय जी : मैं सिर्फ उन दलितों के लाभ लेने पर प्रश्न खड़ा कर रहा हूँ जिनको उस लाभ की आवश्यकता नहीं है…या जो धोखे से सिर्फ जाति प्रमाण पत्र हासिल कर इस तरह के लाभ ले रहे हैं. इसलिये जिनको इस लाभ की सही में जरूरत है उनको तो शायद यह भी नहीं मालूम कि इस तरह से कोई आरक्षण होता भी है.यह दलित प्रश्न को हवा में उड़ाना नहीं है ना ही आरक्षण के औचित्य पर सवाल है. यदि आपको ऎसा लगा हो शायद मेरे लिखने में कहीं कोई कमी जरूर रह गयी होगी.]
बहुत बढ़िया । मान गई कि आपको बहस नहीं आती। वैसे आपको उसकी आवश्यकता ही क्या है? आप तो बस ऐसे ही कुछ भोले भाले प्रश्न पूछ लीजिये ।
घुघूती बासूती
आरक्षण का उद्देश्य किसी को नौकरी देकर उसे निम्न वर्ग से निम्न मध्यवर्ग तक या मध्यवर्ग तक ले आना नहीं है.. बल्कि उस वर्ग के लोगों को सत्ता में भागीदारी देना है जिस वर्ग के लोग सदियों तक सत्ता से बेदखल किए गए हों.. और उसके लिए उन लोगों को लाभ मिलता ज़रूर दिखाई देगा जो भूखे नंगे नहीं है.. पर सवाल भूखे-नंगे होने का है ही नहीं..
सवाल दलित जाति से आए उन लोगों का एक ऐसा वर्ग बनाना है जिस के बन जाने पर उनसे बेटी का रिश्ता करना एक असम्भव जैसी लगने वाली बात न रह जाय.. जब ऐसा हो जाएगा तब शायद आरक्षण की ज़रूरत नहीं रहेगी.. क्योंकि तब तय करना मुश्किल हो जाएगा.. कि कौन दलित है या था..
आरक्षण के आर्थिक आधार का कोई अर्थ नहीं.. उसका सिर्फ़ और सिर्फ़ सामाजिक आधार ही हो सकता है..
[काकेश : अभयजी : सहमति. लेकिन सामाजिक आधार तय कैसे हो? क्या सिर्फ जाति सूचक शब्द लगाने यानि सरनेम से यह तय होगा या फिर सरकार द्वारा दिये गये जाति प्रमाण पत्र से. यह जाति सूचक शब्द दलित को ज्यादा दलित बना रहा है इसलिये बहुत से लोग आज अपनी जाति को छिपाने लगे हैं.सत्ता में भागीदारी के लिये आरक्षण है …यह रहे इससे मुझे तनिक भी उज्र नहीं.कम से कम मायावती और लालू जैसे लोग सामने तो आयेंगे.और देर सबेर इससे लोगों का भला होगा ऎसा मानना है मेरा. लेकिन यदि कोई हमेशा सताया रहा है तो इससे उसे सत्ता में आने के बाद दूसरों को सताने का अधिकार नहीं मिल जाता ना.]
पढ़ लिया प्यारे।
काकेश जी आप लोगों को पीछे लगाना जानते हैं। मेरा मानना है कि आरक्षण दलित समस्या का हल नहीं है। अगर होता तो अब तक हल हो चुका होता। हल तो देश की मूल समस्याएं हल करने से निकलेगा। हर चुनावों के बाद सरकार बनाने वाले मूल समस्याओं का उल्लेख करने लगते हैं। बाद में जैसे ही चुनाव नजदीक आते हैं। संप्रदायवाद, क्षेत्रीयता, दलित समस्या आदि मुद्दे खड़े कर वोट की राजनीति शुरु हो जाती है। इस तिलिस्म को तोड़ने के लिए आधारभूत काम होने की आवश्यकता है। उस का प्रारंभ संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र से ही करना होगा।
bhaiya aise sawal poochne aate hon to phir kya fark parta hai behas karni nahi aati…..
aap aise sawal poochte rahiye, behas me in sawalon se hi baaji mar le jaayenge
काकेश जी, मस्त लिखा है। पढ़कर मन खुश हो गया।
सब राज्य सभा से संसद मे घुसने की जुगाड्बाजी है , बाबा जी को गाली देता है तो ठाकुर साहेब लोग ताली बजा कर आ जाते थे .पता ही नही था कि कैसेट चेंज करने मे वक्त कितना लगता है . अब ? दलित राग बौद्धिक प्रलाप भर है . फैशन है खासकर सवर्णों मे . जो अपने भाई के लिए माँ बाप के लिए कुछ किया नही वो आज दलित चिंतन मे लीन हैं.
बहुत ही सुंदर विचार है आपका इसी लाईन लेंथ पर बौलिंग करिये ,दलित उत्थान सवर्णों की उम्दा सोच से ही सम्भव है .टपोरी टाइप पोस्ट या टिपण्णी हितकर है ही नही .ऐसे किताबी सोच ,किताब मे ही अच्छे लगते हैं
लोग आग ही आग देखना चाहते हैं ,धुआं से परहेज क्यों है ,समझ मे नही आता .
उन सभी सवर्णों से [ जो दलित प्रलाप मे शामिल हैं या थे }आग्रह है कि अपने द्वारा दलित हित मे किए गए कार्यों कि सूचि अपने अपने ब्लॉग पर ही प्रमाण के साथ दे . नही तो कृपया प्रलाप बंद करें . आपके बस की बात नही ,बेकार का कुदना है .
aap ka lekh sirf dalit virodhi bhadas he jo apke bhartiya samaj system ke bare mein alp gyan ko bhe partibimbit karta he.
dalit aarkshan ki bat janha tak hai to sawan samaj ko bandishe hatani padgi kyoki aaj bhi ek budhijeevi mane jane wala aapni parmpra se hatna nanhi hahta ar na hi koi samjhota fir kis hak se ! lagate ho