कल आपकी टिप्पणीयों से कुछ तो साहस मिला कि कुछ भी लिखें पर लिखना चाहिये…वैसे मेरा भी मानना यही रहा है कि किसी भी चीज को छोड़ के भागने की प्रवृति ठीक नहीं है ..इसलिये अभी पंगेबाज जी को भी मनाने में लगे हैं कि वो भी वापस आ ही जायें… देखिये मान जायें तो आप तक खबर पहुंचायी जायेगी….
इधर बाल कविताओं का सीजन चल रहा है ..अभय जी ने इब्नबतूता फिर हल्लम हल्लम हौदा कविता चढ़ायी ..और और आज देवाषीश जी भी कविता कर बचपन को याद करने लगे … उसी के देखा देखी कुछ बड़े बच्चों के लिये कविता हमने भी लिखने की सोची … पर कविता तो आती ही नहीं लिखनी ..इसलिये कुछ तो बना ..क्या बना पता नहीं ..आप ही बताइये….
धड़-धड़-धड़-धड़,
बम बम बम बम,
चलो लड़ें हम,
काहे का गम.
आबाद करें ना,
बरबाद करेंगे.
भस्मासुर को
याद करेंगे,
ना लेना तू,
पंगा हमसे,
हम ठनके हैं
पूरे सर से.
भाड़ में जाये,
तेरी उलझन,
हम तो हैं,
थाली के बैगन.
गली गली में नाला बहता,
बदबू से चाहे सर फटता,
पर कीड़ों की मौज हुई है,
ना ये सुनता ना वो सुनता.
आओ राजा, आओ रानी,
सुन लो, सुन लो, नयी कहानी,
एक गली में कुत्ता बोला,
बिल्ली रानी बड़ी सयानी.
धाक धिनक धिन,
ताक तिनक तिन,
चूं, चूं, चूं में
कट जाये दिन.
कर ले कर ले,
अपने मन की.
चेला चौपट,
गुरु जी सनकी.
लगी रहेगी
आनी जानी,
ले आओ बस
थोड़ा पानी.
आग बुझा के
पानी पीलो,
छोटी जिनगी
पूरी जी लो,
इस जग से तू,
क्या पायेगा,
खाली खप्पर
रह जायेगा,
कैसी लगी ये लाइनें ..बताना जरूर ..मेरे हुजूर !!
अच्छी लगी जनाब!
बहुत अच्छी लगी
हाहाहाहाहा ! मान गए आपको हम ! अब तो सीधे से हमें भी अपने शिष्यों की मंडली में शामिल कीजिये ।
घुघूती बासूती
कौन कहता है आपको कविता नहीं आती. यह वाकई बड़े बच्चों वाली कविता है. बधाई. 🙂
वाह, वाह !!
बहुत अच्छा!!
इस कविता की टक्कर का गद्य पंगेबाज ने हमारे ब्लॉग पर टिपेरा है. कहते हैं – ” तो भाइ जी हम,हम है कह दिया तो कह दिया,हम पंगेबाज पर ही है और चिट्ठा जगत,ब्लोगवाणी तथा हिंदी ब्लोग पर भी होगे… ”
काकेश, लगता है आपका मनाना काम आ गया!
कविता शानदार..पर लेख अभी भी फ़ॉर्म की तलाश करता हुआ.. आप आजकल लोगों की टाँग खींचने में सकुचा रहे हैं.. संकोच छोड़िये.. खुल कर आईये..
भई वाह! अपन ने तो आँख मूंद कर निशाना लाया था पर ये बिल्कुल सटीक कवित्त है 🙂
हे कागराज तेरे हुशन की क्या तारीफ करूँ इन्टर नेट की सारी सुन्दरियाँ न्यौछावर कर दूँ जो मेरे ब्लॉग पे चिपकी हैं जरा आके देखो .पर हमारा दिल तो आप पर आया है क्या करें कमब्ख्त का आपकी मधुरवाणी संजय पर सुनी. हमारा उत्तराखंड के इलाके में गोविन्दघाट से फूलों की घाटी के ऊपर हेमकुंड पर्वत तक एन.सी.सी.केम्प में दो बार जाना हुआ है आपने दुबारा घर बैठे यात्रा करा दी.
रही आपकी कविता –
अंजाम खुदा जाने आग़ाज़ तो अच्छा है.
आपकी कांव कांव का इन्तज़ार रहता है सुना है आपकी चोंच सोने से मढ़ दी गयी है.अपनी तासीर मत खो देना.आमीन
डॉ.सुभाष भदौरिया अहमदाबाद.
धड़-धड़-धड़-धड़,
बम बम बम बम,
काहे लडे हम,
मौका देखा,
रणछोड चले हम.
आबाद करेंगे हम जहा नया,
ये यहा बरबाद करेंगे.
निपटा लेगे जब ये सब को
सब भस्मासुर को
याद करेंगे,
हर दम लेना तू,
ऐसे ही पंगा हमसे,
जवाब मिलेगे
पूरे दम से.
भाड़ में जाये,
तेरी दुनिया
तेरी उलझन
तेरी पलटन,
हम तो हैं,
भइ मन के राजा
जहा बैठ गये
वही पे मधुबन.
हम तो चले यहा से बच्चे
अब तू है और तेरे चच्चे
गली गली में नाला बहता,
बदबू से चाहे सर फटता,
पर कीड़ों की मौज हुई है,
गूंगा कहता,बहरा सुनता.
आओ राजा, आओ रानी,
सुन लो, सुन लो, नयी कहानी,
एक गली में कुत्ता बोला,
मेरी ब्लोगिंग बडी पुरानी.
धाक धिनक धिन,
ताक तिनक तिन,
इस्को भोकू,उस्को काटू
प्लानिंग मे
कट जाये दिन.
अब तो कर ले,
अपने मन की.
जल्द ही होगा सारा चौपट,
तू तो है ही घोषित सनकी.
लगा रहेगा
जाना जाना,
ऐसे ही बस कसते रहना
हाथ मे लेकर के तू पाना
आग लगाई
भागो ज्ञानी
नारद की बस
यही कहानी
इस जंग से तू,
क्या पायेगा,
खाली टप्पर
रह जायेगा,
बिन सोचे तू
लेता पंगे
फ़िसल पडे
तो हर हर गंगे
पंगेबाज
बहुत सही, पंगेबाज!!! आनन्द आ गया, वाह!
भई ये पंगेबाज तो चले गये थे, ये नये पंगेबाज हैं क्या।
लगता है कि पंगेबाज भले ही चले जायें, पर पंगेबाजी नहीं जायेगी।
इस भदौरिया की टिप्पनी मत अप्रूव किया करो. यह पागल है और कई जगह से लात मार कर भगाया जा चुका है मसलन ई-कविता. इसका एक मात्र कार्य वैमनस्य फैलाना है और अपने निम्न विचारों से लोगों को उकसा कर इसे आनन्द मिलता है. यह समाज में अभिशाप है, इसे जड़ से उखाड़ फेंको. इसकी जगह पागलखाने में है, यह सामान्य जगत में रहने का अधिकारी नहीं.
सुधारक स्वामी E कविता के जो तुम्हारे बाप हैं उनसे पूछो मेरी ग़ज़लें रचनाकार में प्रकाशित हुई थी और मुझे वहां बिना पूछे E कविता से जोड़ दिया गया था.महीनों ग़ज़ल के शिल्प और बहरों को सिखाया पर कोई असर नहीं.
फिर एक अपने लेख में E कविता का सिंहावलोकन में कविता के नाम पर जो खेल चल रहा था उसको उजागर किया.उसे ज्ञानीजन मेरे व्लोग पर पढें.
जहाँ कोई कवित्री की रचना देखी और वाह वाही शुरू कर दी. ये खेल नारद पर भी देख रहा हूँ बताओ किस का तब्सिरा करूँ.ज़बान को लगाम दो अदब के आदाब हुआ करते हैं.रही हमारी बात
महफिलों के अदब से वाकिफ हैं
हम भी मुँह में ज़बान रखते हैं.
शब्द भेदी हैं हम को पहिचानो,
दिल में तीरो कमान रखते हैं.
टिप्पड़ी ही निकालने की बात क्यों करते हैं पोस्ट निकलवा ने की कृपा करें.
कदम कदम पर अगर साज़िशें नहीं होती
मैं इस जहां के बहुत काम आने वाला था.
डॉ.सुभाष भदौरिया अहमदाबाद.
बहुत खूब लगे रहो, लिखे रहो।