बिन अंग्रेजी सब सून

पिछली पोस्ट से शायद यह लगा कि मैं कोई हिन्दी-अंग्रेजी विवाद उत्पन्न करना चाहता हूँ जो कि बकौल ज्ञान जी हिन्दी वालों का प्रिय शगल रहा है. लेकिन मेरा लक्ष्य यह नहीं था.मैं तो अपने अनुभव आपसे बांटना चाहता था.मैं अग्रेजी का विरोध नहीं करता बल्कि मैं तो अंग्रेजी की वकालत करता हूँ और कहता हूँ कि आज कि वर्तमान परिस्थितियों में बिन अंग्रेजी सब सून.

अधिकतर हम लोग केवल समस्या की बात करते हैं समाधान की नहीं. समस्या तो हम सब जानते ही हैं लेकिन आज की परिस्थिति में इसका समाधान क्या है. मेरे विचार से हमें दो मुँही रणनीति ( Two Pronged Strategy) से काम करना चाहिये. 1. अंग्रेजी को अनिवार्य करें और 2. हिन्दी को बढ़ावा दें. आपको मेरी बात में विरोधाभास लग रहा होगा. आइये समझते हैं इसे.

अंग्रेजी को अनिवार्य करें : आज के युग में अंग्रेजी के बिना काम नहीं किया जा सकता. यदि आप उच्च शिक्षा की बात करें तो वहाँ अधिकतर किताबें हिन्दी में उपलब्ध नहीं है. इसलिये वर्तमान परिस्थितियों में अंग्रेजी के बिना काम किया जाना मुश्किल है. तो अंग्रेजी तो अनिवार्य है ही. और यह बात हम सभी जानते हैं इसीलिये जिसके पास पैसा है वो अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दिलवाता है. जो गरीब है वो अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजता है. ऎसे में अंग्रेजी अमीर की है हिन्दी गरीब की. इसलिये गरीब गरीब ही बना रहता है और अमीर और अमीर होता जाता है.यदि हम सरकारी स्कूलों में भी अग्रेजी अनिवार्य कर दें तो हम काफी हद तक यह खाई पाट सकते हैं. यही भाषा का साम्यवाद है.

हिन्दी को बढ़ावा दें: आज हिन्दी में समस्या यह है हम हिन्दी हिन्दी का नारा तो लगाते हैं लेकिन हमारा सारा काम होता है अग्रेजी में. उच्च शिक्षा के लिये आज हिन्दी में किताबें उपलब्ध नहीं हैं और हम इसे सरकार की गलती मान कर चुप बैठ जाते हैं.यदि हम अंग्रेजी को अनिवार्य कर दें तो हमारे पास ऎसे लोग बहुतायत में होंगे जो दोनों भाषाऎं जानते होंगे तब बहुत सारा अनुवाद हिन्दी में किया जा सकेगा.विश्व में भारत आज एक बहुत बड़ा बाजार है. हिन्दी को बाजार की भाषा बनायें. जब हिन्दी समाचार बिकते हैं, हिन्दी सीरियल बिकते हैं, हिन्दी फिल्मे बिकती है तो हिन्दी भी बिकाउ भाषा होगी. तब लोगों की रुचि भी हिन्दी में बढेगी.

कुछ और बिन्दु हैं जिन पर हमें विचार करना होगा.

1. अंग्रेजी बोलना ना ही गुलामी का परिचायक है ना ही अंग्रेजी बोलने वाला श्रेष्ठ है.

2. हिन्दी बोलने वाला ना तो किसी मायने में हीन है ना ही हिन्दी में काम करना देशभक्ति ही है.

3. हिन्दी का समर्थन अंग्रेजी का विरोध नहीं और ना ही अंग्रेजी का समर्थन हिन्दी का विरोध है.

4. आप ना तो हिन्दी बोलने में संकोच करें ना ही अंग्रेजी बोलकर अपने को श्रेष्ठ माने.

5. अंग्रेजी बोलने में शंर्म ना करें.यह ना सोचें कि आप कुछ गलत बोल देंगे.

6. सब कुछ सरकार पर ना छोड़े. अपने स्तर पर प्रयास करें.अनुवाद ज्यादा से ज्यादा हों. उसके लिये जरूरत है कि दोनों भाषाओं के जानकार बढ़ें.

7. ग्राही बने. दूसरी भाषा के शब्दों को अपनायें.हर शब्द का हिन्दी अनुवाद ढूंढने की कोशिश ना करें. 

8. हिन्दी का बाजार बनायें.

9. व्याकरण पर ज्यादा ध्यान ना देकर संप्रेषण पर ध्यान दें.

10. शब्दों को मरने से बचायें. जितना हो सके अपनी भाषा के पुराने शब्द ढूंढें और उनको प्रयोग करें.

11. यह समझ लें कि आप हिन्दी में काम कर रहे हैं तो हिन्दी की सेवा नहीं कर रहे हैं ना ही आप अतिरिक्त रूप से देश भक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं.

12. अपनी हीन भावना से लड़ें.

13. भाषा को विवाद का विषय ना मान कर संप्रेषण का माध्यम मानें और जितनी अधिक भाषाऎं सीख सकें सीखें.

और अंत में आलोक जी ने जो कहा.

14. सही गलत अंगरेजी की चिंता ना करें, जैसी अंगरेजी अधिकांश भारतवासी बोलेंगे, वही सही मानी जायेगी। अंगरेजी अब एक भारतीय भाषा है, जो ब्रिटेन वाले भी बोल लेते हैं। पचास करोड़ भारतवासी जैसी अंगरेजी बोलेंगे, वही मानक हो जायेगी।

तो ये तो थे मेरे कुछ बिन्दु जो हमें समाधान की ओर ले जा सकते हैं.

अंत में क्या आप बता सकते है “घी (ghee)” की अंग्रेजी क्या है? Confused

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18 comments

  1. जी हा बिलकुल बता सकते है.अगर ये देसी घी है तो बटर आयल अगर वनस्पती है (डालडा वाला) तो फ़्रोजन आयल अगर इन दोनो मे नही है तो मोबिल आयल फ़ोर ह्यूमेन …:) कैसी लगी..:)

  2. अरे वाह। यह तो फुरसतिया छाप 14 प्वाइण्ट बन गये!
    हिन्दी के लिये काम में अंग्रेजी के जानकारों की महती भूमिका होगी जो हिन्दी से करते हैं प्यार।
    मैने तो अपनी पोस्ट पर क्वाइन भी किया है – हिन्दी मेरी माँ है तो अंग्रेजी मामी!

  3. आपने भी रटी-रटाये मुहावरे को यहाँ उड़ेल दिया है।

    मुझे लगता है कि आपका समाधान रोग को और बढ़ायेगा। जो दो बिन्दु आपने दिये हैं परस्पर विरोधी हैं (जैसे शेर और बकरी; घोड़ा और घास)

    हिन्दी की दुर्दशा का कारण ही कि भारत में अंग्रेजी अनिवार्य है, वर्ना कौन अंग्रेजी पढ़ना चाहता? भारत में लोग जर्मन और रसियन क्यों नहीं पढ़ना चाहते, उसमें भी तो ज्ञान का भण्डार है।

  4. कितना सोच ले जा रहे हो, काकेश? हतप्रभ हूं!

  5. अरुण जी
    आपने घी का अंग्रेजी शब्द नहीं बताया बल्कि उसकी अंग्रेजी में परिभाषा बताई है, यह प्रश्‍न मैने भी कई लोगों से पूछा तब कईयों ने प्यूरीफाईड बटर बताया लेकिन यह भी एक शब्द में परिभाषा हुई, अंग्रेजी शब्द नहीं।

  6. आपका ये दोनो सोच

    १) कि बारहवीं के बाद विज्ञान की पढ़ाई अंग्रेजी में इसलिये होती है कि हिन्दी में किताबें नहीं हैं;

    २) कि हिन्दी में किताबें उपलब्ध कराने में पचास वर्ष और लग जायेंगे

    दोनो से भी सहमत नहीं हुआ जा सकता। लगता है कि आप क्रमश:-विकास-प्रक्रिया (इवोलूशन) के मूल कांसेप्ट को ही नहीं समझते हैं।

    अंग्रेजी में किताबें नहीं हैं क्योंकि उनकी मांग नहीं है (अर्थशास्त्र का सरल सिद्धान्त यहाँ काम कर रहा है) ; मांग इसलिये नहीं है कि हिन्दी के बजाय अंग्रेजी में पढ़ना अनिवार्य कर रखा गया है। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि हिन्दी में विषयों का पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाय तो एक महीने के भीतर किसी भी विषय की पुस्तकें बाजार में होंगी।

    आपका यह भी मानना कि हिन्दी के वजह से बच्चे पिछड़ जाते हैं, तथ्यों से दूर है। मैने भी बारहवीं तक पूर्णत: हिन्दी में पढ़ाई की। मुझे कभी भी नही लगा कि मै हिन्दी के कारण कभी पिछड़ गया।

    कोई बी हिन्दी के कारण पिछड़ता नहीं है, अंग्रेजी के कारण पिछड़ता है। और इसी दुराचार का विरोध होना चाहिये। इस देश को आगे बढ़ाना है तो व्यक्ति के विषय के ज्ञान की परीक्षा ली जाय, न कि अंग्रेजी के ज्ञान की परीक्षा, जो कि आज हो रही है।

    अंग्रेजी की पढ़ाई एक भाषा के रूप में करायी जाय ; जिसको जरूरी हो उसी को पढ़ायी जाय (किसी को राजदूत के रूप में रूस या चीन जाना है तो उसके लिये रूसी या चीनी महत्वपूर्ण है, न कि अंग्रेजी); चापरासी पद के लिये अंग्रेजी, क्लर्क के लिये अंग्रेजी, सैनिक के लिये अंग्रेजी… क्यों जरूरी है? क्या आपने सोचा है कि पूरा देश ज्ञान अर्जन के बजाय डिक्शनरी का रट्टा क्तों लगा रहा है? इसमें कितना करोड़ मानव-घंटा बर्बाद हो रहा है? कुछ शब्द आ गये तो ग्रामर का चक्कर, ग्रामर आ गया तो ‘फर्राटे अंग्रेजी बोलने’ का चक्कर, फर्राटे अंग्रेजी भी बोलना आ गया तो अमेरिकन या ब्रिटिश एक्सेंट में बोलने का चक्कर.. ये दुष्चक्र है जिसमें पूरे देश को झोंक दिया गया है।

    और हाँ, यदि किसी ने अंग्रेजी के बल पर नौकरी हासिल कर ली (जैसा कि पूरे देश में हो रहा है) तो इसको देश का विकास के रूप में समझने की भूल मत कीजिये। इसका केवल इतना अर्थ है कि किसी ने किसी दूसरे का हक गलत बहाने (अ.ग्रेजी के ज्ञान) के कारण छीन लिया। विकास तब होता है जब इन्नोवेशन होता है; नागरिक विभिन्न छेत्रों में रचनात्मकता से भरपूर होते हैं। दूसरे देश के लोगों से पहले कुछ नया कर लिया जाता है ,, आदि। और ये सब तभी सम्भव है जब लोग अपनी भाषा में सोचें, पढ़े, विचार-विमर्श करें। विदेशी भाषा (अंग्रेजी) में होते हुए हजारों सेमिनार मैने देखे हैं; लोग विचार-विनिमय के बजाय प्रश्न पूछने और उत्तर देने से भागते हुए नजर आते हैं। ऐसे सेमिनारों से खाक फायदा होगा?

    इस देश को अंग्रेजी की गुलामी करते करीब दो सौ साल हो गये। किसी दूसरे देश से तुलना करते हुए विकास के आंकड़े तो बताइये। केवल रटे-रटाये मुहावरे दोहराने से काम न चलाइये।

  7. मैं जो कुछ लिखना चाहता था वह अनुनाद जी ने कह दिया है. अत: मैं उनकी टिप्पणी के प्रति अपना समर्थन यहां रेखांकित करता हूँ — शास्त्री

  8. काकेश जी, मैं आपके विचारों से लगभग असहमत हूँ और अनुनाद जी के विचारों से सहमत। इसे चैलेंज ही समझिये, जल्द ही आपको न केवल हर तरह की किताबें हिन्दी में मिलेंगी बल्कि तमाम शोध भी हिन्दी में होगा। अंग्रेज़ी एक वैकल्पिक भाषा बन रह जायेगी।

    वो दिन मेरे लिये सबसे खुशी का दिन होगा : काकेश

  9. अनुनाद जी ,हम भी आप के विचारो से सहमत हे,

  10. मैं अनुनाद जी के विचारों से सहमत नहीं हूँ। काकेश जी के विचार ज़रूर उद्वेलित करते हैं। हिन्दी को लेकर बचपन से ही सोचता आया हूँ। जहाँ तक जर्मन या रशियन सीखने का प्रश्न है मैं अनुनाद जी को बताना चाहूँगा कि भारत के किसी भी महानगर में जायें और एक पत्थर हवा में उछालें। जिसके सिर पर वह गिरेगा वह आदमी कोई न कोई विदेशी भाषा जानता होगा। मैं और मेरी पत्नी क्रमश: जर्मन और स्पेनिश बोलते हैं; मगर असल बात हो यह है कि जहाँ हम काम करते हैं वहां हर देश की शाखा के प्रबंधक स्तर के लोगों या जो लोग clients के साथ काम करते हैं उनके लिये अंग्रेज़ी जानना अनिवार्य है। यह नियम जर्मनी और फ़्रांस जैसे देशों पर भी लागू होते हैं जिनकी भाषाएं खुद अंग्रेज़ी की जनक रही हैं। यह सिर्फ़ हमारी कंपनी में होता हो ऐसा भी नहीं है। चूंकि हमने इतने साल इन भाषाओं पर खर्च किए हैं तो हम इस भाषाओं के बाज़ार में होने वाली उठापटक से पूरी तरह परिचित हैं।
    अंग्रेज़ी को आप अंग्रेज़ों की भाषा क्यों मानकर चल रहे हैं? यहीं पर हम गुलामी वाली बात घसीट लाते हैं। अंग्रेज़ी इंग्लैंड के कारण भारत में बोली जाने लगी मगर आज वह अमेरिका की वजह से यहां अपनी जगह बनाए हुए है। अगर अमेरिकी इतिहास में जर्मन एक वोट से राष्ट्रभाषा बनने से न चूक जाती तो संभव है अंग्रेज़ी की जगह आज हमारे देश में जर्मन ने ले ली होती। अंग्रेज़ी विश्व भाषा बन चुकी है और उसका महत्व कम करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। चीन यदि हमारी नौकरियां नही खा पा रहा तो इसलिये कि वह अभी अमेरिकी कंपनियों से उस तरह नहीं बतिया सकता जैसे हम। एक ओर जहां चीन ओलम्पिक के मद्देनज़र अपने टेक्सी चलाने वालों तक को मुफ़्त में अंग्रेज़ी सिखा रहा है वहीं आप अंग्रेज़ी के महत्व को कम करने की बात कहकर कोई समझदारी वाली बात नहीं कर रहे हैं।
    जहाँ तक मांग और पूर्ति या विकास-प्रकिया की बात है; वहां अनुनाद जी मुझे यह बताएँ कि कौन लिखेगा अर्थशास्त्र की किताब हिन्दी में? वे जिन्होने खुद सबकुछ अंग्रेज़ी में पढ़ा है या वे जो हिन्दी के विद्वान हैं? दोनो को ही एक न एक चीज़ तो सीखनी ही पड़ेगी; या तो हिन्दी या अर्थशास्त्र। हिन्दी मेरा भी विषय रहा है। बारहवीं छोड़िये मेरी तो पूरी पढ़ाई ही हिन्दी में हुई है मगर हिन्दी में अर्थशास्त्र पढ़ते हुए पूरी की पूरी terminology तो अंग्रेज़ी से उधार ली जाती थी।
    पता नहीं अनुनाद जी ने कहाँ से पढ़ाई की है। मैनें दिल्ली के सरकारी स्कूल से की। मेरे आसपास ऐसी सजगता थी कि बगैर अंग्रेज़ी के कुछ नहीं हो सकता इसलिये उसका भी खयाल रखा। मगर यह सजगता महानगरों के बाहर ठीक से मौजूद नहीं है। अंग्रेज़ी न बोलने वालों का सबसे बड़ा चैलेंज तो भाषा ही होता है। वे तो पूरा जीवन इसी हीन-भावना से ही पार नहीं पाते। मैं कितनी ही क्लिष्ट हिन्दी क्यों न बोल लूं मगर मेरे मल्टीनेशनल आफ़िस में मेरी बात तबतक किसी के पल्ले नहीं पड़ेगी जबतक मैं वही बात अंग़्रेज़ी में न बोलूँ। और आज का सच तो यह है कि मैं दिन के नौ-दस घंटे अंग्रेज़ी के सहारे ही काटता हूँ। कितने ही लोग इस तरह जी रहे हैं आज।
    यह विचार अच्छा है कि जिसे ज़रूरी हो सिर्फ़ उसे ही अंग्रेज़ी पढ़ाई जाए। ऐसा किया जा सकता है मगर उसके लिये जिस स्तर पर तैयारी चाहिये वह बहुत व्यापक होगी। पहले तो सभी विषयों से संबंधित साहित्य हिन्दी में उपलब्ध होना चाहिये। उसी में जाने कितना समय लग जाए। फ़िर हर विषय के लिये ऐसे लोग तैयार करना जो हिन्दी में पढ़ा पायें।
    एक बात और, जिसकी ओर शायद किसी का ध्यान नहीं गया। मैनें अकसर देखा है कि हमारे हिन्दीभाषी समाज का शब्दकोश बहुत ही संकुचित होता जा रहा है। ऐसा व्यक्ति जिसे अंग्रेज़ी नहीं आती हो और आप लोगों की तरह हिन्दी पर उसकी पकड़ नहीं है, उसे पास अपने को व्यक्त करने के लिये गिने-चुने ही शब्द हैं। इसके कारणों की ओर जाने का मेरा कोई इरादा नहीं है नहीं तो यह टिप्पणी टिप्पणी न रहकर लेख हो जायेगा।
    शुभम।

  11. अरे असली बात तो भूल ही गया। घी किसी पश्चिमी देश को ज्ञात नहीं है इसीलिये इसके लिये कोई अंग्रेज़ी या कोई भी पश्चिमी भाषा का शब्द मौजूद नहीं है। फ़िर भी आजकल इसे बटर आयल के रूप में जाना जाता है, वनस्पति घी को नहीं।
    काकेश जी केडी जी से मुझे इसके लिये ईनाम की घोषणा करवाएं जल्दी।

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