अशोक पांडे जी कबाड़खाने के कर्ताधर्ता कबाड़ी हैं. जाने कहाँ कहाँ से कबाड़ उठा के ले आते हैं और पटक देते हैं.एक दिन इसी कबाड़खाने में हम पहुंचे तो हम भी इस दुकान के हिस्सेदार बन गये.यहाँ तक तो ठीक था. लेकिन देखते क्या हैं पिछ्ले कुछ दिनों से हमारे ब्लॉग पर जो लोग सर्च इंजन से आ रहे हैं उनमें से कम से कम एक प्रतिदिन “ashok pande” को खोज कर आ रहे हैं. ऎसा पिछ्ले दस दिनों से हो रहा है. मैने भी इसी शब्द से जब गूगल में खोजा तो उसमें मेरा ब्लॉग कहीं नजर भी नहीं आया फिर लोग क्यों मेरे ब्लॉग में पांडे जी को खोजते हुए आ रहे हैं. मेरे तो समझ में नहीं आया आपके आया हो तो बतायें और कबाड़खाने पर जायें कुछ अच्छा कबाड़ बटोरें.
अभी तो कबाड़खाने का एक उम्दा कबाड़ पेश करता हूँ…
Wednesday, October 24, 2007
`समोसे´ :वीरेन डंगवाल
हलवाई की दुकान में घुसते ही दीखे
कढाई में सननानाते समोसे
बेंच पर सीला हुआ मैल था एक इंच
मेज पर मक्खियाँ
चाय के जूठे गिलास
बड़े झन्ने से लचक के साथ
समोसे समेटता कारीगर था
दो बार निथारे उसने झन्न -फन्न
यह दरअसल उसकी कलाकार इतराहट थी
तमतमाये समोसों के सौन्दर्य पर
दाद पाने की इच्छा से पैदा
मूर्खता से फैलाये मैंने तारीफ में होंट
कानों तलक
कौन होगा अभागा इस क्षण
जिसके मन में नहीं आयेगी एक बार भी
समोसा खाने की इच्छा|
आपको अमीर बनना हो तो समोसे की दुकान खोलें या फिर कबाड़ी की।
पर पांड़े लोग कब से अमीर होने लग गये। 🙂
काकेशजी समोसों से परहेज करें, हम तो ये कह सकते हैं।
बहुत सुंदर सार्थक कविता 🙂
कभी किसी समोसे ने सोचा था कि उसे इतना मान मिलेगा ? उसपर कविताएँ लिखी जाएँगीं ?
घुघूती बासूती