दौड़ता हुआ पेड़

एक अच्छे व्यंगकार की खासियत है कि हास्य के रंगो के साथ साथ यथार्थ के ऎसे रंग मिलाये जायें कि पाठक को पता भी ना चले और गहरी से गहरी बात उसके दिमाग में सीधे उतर जाये.अंतिम पैरे में किबला के गांव का वर्णन तो देखिये. लगता है पूरा का पूरा चित्र आंखों के सामने उतर आया है.

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कराची शहर उन्हें किसी तरह और किसी तरफ़ से अच्छा नहीं लगा। झुंझला कर बार-बार कहते “अमां! यह शहर है या जहन्नुम ?“ मिर्जा किसी ज्ञानी के शब्दों में तब्दीली करके कहते हैं, क़िबला इस दुनिया से कूच करने के बाद अगर खुदा करे, वहीं पहुंच गये जिससे कराची की मिसाल दिया करते हैं तो चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने के बाद यह कहेंगे कि हमने तो सोचा था कराची छोटा-सा जहन्नुम है। जहन्नुम तो बड़ा-सा कराची निकला।

एक बार उनके एक क़रीबी दोस्त ने उनसे कहा कि तुम्हें समाज में खराबियां ही खराबियां नज़र आती है तो बैठे-बैठे इन पर कुढ़ने की जगह सुधार की सोचो। बोले, “सुनो! मैंने एक जमाने में पी. डब्ल्यू. डी. के काम भी किये हैं, मगर नर्क की एयर-कंडीशनिंग का ठेका नहीं ले सकता।

बात सिर्फ इतनी थी कि अपनी छाप, तिलक और छब छिनवाने से पहले वो जिस आईने में खुद को देख-देख कर सारी उम्र इतराया किये, उसमें जब नई दुनिया और नये वतन को देखा तो वह ज़माने की गर्दिशों से Distorting Mirror बन चुका था। जिसमें हर शक्ल अपना ही मुंह चिढ़ाती नज़र आती थी। उनके कारोबारी हालात तेजी से बिगड़ रहे थे। बिजनेस, न होने के बराबर था। उनकी दुकान पर एक तख़्ती लटके देख कर हमें दु:ख हुआ।

न पूछ हाल मिरा, चोबे-ख़ुश्के-सहरा हूं

लगा के आग जिसे कारवां रवाना हुआ

(मेरा हाल न पूछ मैं रेगिस्तान की सूखी लकड़ी हूं, जिसे आग लगा कर कारवां चला गया हमने उनका दिल बढ़ाने के लिये कहा, आपको चोबे-खुश्क (सूखी लकड़ी कौन कह सकता है? आपकी जवां हिम्मती और मुस्तैदी पर तो हमें ईर्ष्या ही होती है। अकस्मात मुस्कुराये, जबसे डेन्चर्ज़ टूटे, मुंह पर रूमाल रख कर हंसने लगे थे। कहने लगे, आप जवान आदमी हैं। अपना तो यह हाल हुआ कि

मुन्फइल हो गये क़वा ग़ालिब

अब अनासिर में एतदाल कहां

(सारे अंग प्रत्यंग कमज़ोर हो गये। अब तत्वों में सामंजस्य कहाँ) मैं वो पेड़ हूं जो ट्रेन में जाते हुए मुसाफिर को दौड़ता हुआ नज़र आता है।)

मेरे ही मन का मुझ पर धावा

यूं वो जहां तक मुमकिन हो अपने गुस्से को कम नहीं होने देते थे, कहते थे मैं ऐसी जगह एक मिनट भी नहीं रहना चाहता, जहां आदमी, किसी पर गुस्सा ही न हो सके और जब उन्हें ऐसी ही जगह रहना पड़ा तो वो ज़िन्दगी में पहली बार अपने आपसे रूठे। अब वो आप ही आप कुढ़ते, अंदर ही अंदर खौलते, जलते, सुलगते रहते:

मेरे ही मन का मुझ पर धावा

मैं ही आग  हूं,  मैं  ही    ईधन

उन्हीं का कहना है कि याद रखो, गुस्सा जितना कम होगा, उसकी जगह उदासी लेती जायेगी, और यह बड़ी बुज़दिली की बात है। बुज़दिली के ऐसे ही उदास लम्हों में अब उन्हें अपना गांव जहां बचपन गुजरा था, बेतहाशा याद आने लगता। बिखरी-बिखरी ज़िंदगी ने अतीत में शरण तलाश कर ली। जैसे अलबम खुल गया।

धुन्धली, पीले से रंग की तस्वीरें विचार-दर्पण में बिखरती चली जातीं। हर तस्वीर के साथ ज़माने का पृष्ठ उलटता चला गया। हर स्नेप शॉट की अपनी एक कहानी थी। धूप में अबरक के जरों से चिलकती कच्ची सड़क पर घोड़ों के पसीने की नर महकार, भेड़ के बच्चे को गले में मफ़लर की तरह डाले शाम को खुश-खुश लौटते किसान। पर्दों के पीछे हरसिंगार के फूलों से रंगे हुए दुपट्टे, अरहर के हरे-भरे खेत में पगडंडी की मांग, सूखे में सावन के थोथे बादलों को रह-रह कर ताकती निराश आंखें, जाड़े की उजाड़ रातों में ठिठुरते गीदड़ों की आवाजें, चिराग़ जले बाड़े में लौटती गायों के गले में बजती हुई घंटियां। काली भंवर रात में चौपाल की जलती बुझती गश्ती चिलम पर लम्बे होते हुए कश, मोतिया के गजरों की लपट के साथ कुंवारे बदन की महक, डूबते सूरज की पीली रोशनी में ताशा क़ब्र पर जलती हुई अगरबत्ती का बल खाता धुंआ, दहकती बालू में तड़कते चनों की सोंधी लपट से फड़कते हुए नथुने, म्यूनिसपिल्टी की मिट्टी के तेल की लालटेन का भभका। यह थी उनके गांव की सत सुगंध। यह उनकी अपनी नाभि की महक थी, जो यादों के जंगल में बावली फिरती थी।

जारी………………        ===========================================

पिछले अंक : 1. खोया पानी-1:क़िबला का परिचय 2. ख़ोया पानी 2: चारपाई का चकल्लस 3. खोया पानी-3:कनमैलिये की पिटाई 4. कांसे की लुटिया,बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी़ 5. हवेली की पीड़ा कराची में 6. हवेली की हवाबाजी 7. वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है 8. इम्पोर्टेड बुज़ुर्ग और यूनानी नाक 9. कटखने बिलाव के गले में घंटी 10. हूँ तो सज़ा का पात्र, पर इल्ज़ाम ग़लत है 11. अंतिम समय और जूं का ब्लड टैस्ट 12. टार्जन की वापसी 13. माशूक के होंठ 14. मीर तकी मीर कराची में

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khoya_pani_front_coverकिताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

 

 

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By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

2 comments

  1. “हमने तो सोचा था कराची छोटा-सा जहन्नुम है। जहन्नुम तो बड़ा-सा कराची निकला।“
    वाह!
    अद्भुत है.
    सच मे जबरदस्त हास्य व्यंग्य है.

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