इन्हीं पत्थरों पे चल कर….
अट्ठारह शायरों का जुलुस स्कूल के सामने से गुजरा तो एक रहकले से 18 तोपों की सलामी उतारी गई। ये एक छोटी सी पंचायती तोप थी जो नार्मल हालात में पैदाइश और ख़त्नों के मौके पर चलाई जाती थी। चलते ही सारे क़स्बे के कुत्ते, बच्चे, कव्वे, मुर्ग़ियां और मोर कोरस में चिंघाड़ने लगे। बड़ी बूढ़ियों ने घबरा कर ‘दीन जागे, कुफ़्र भागे’ कहा। ख़ुद वो मिनी तोप भी अपने चलने पर इतनी आश्चर्यचकित और घबरायी हुई थी कि देर तक नाची-नाची फिरी। शायरों को खाते-पीते किसानों के घर ठहराया गया, जो अपने-अपने मेहमान को स्कूल से घर ले गये। एक किसान तो अपने हिस्से केमेहमान की सवारी के लिये टट्टू और रास्ते के लिये नारियल की गुड़गुड़ी भी लाया था। क़स्बे में जो गिने-चुने सम्पन्न घराने थे, उनसे मौली मज्जन की नहीं बनती थी, इसलिये शायरों के ठहरने और खाने का बन्दोबस्त किसानों और चौधरियों के यहां किया गया, जिसकी कल्पना ही शायरों की नींद उड़ाने के लिये काफ़ी थी। शेरो-शायरी या नॉविलों में देहाती जिन्दगी को रोमेंटिसाइज करके उसकी निश्छलता,सादगी, सब्र और प्राकृतिक सौन्दर्य पर सर धुनना और धुनवाना और बात है लेकिन सचमुच किसी किसान के आधे पक्के या मिट्टी गारे के घर में ठहरना किसी शहरी इन्टेलेक्चुअल के बस का रोग नहीं। किसान से मिलने से पहले उसके ढोर-डंगर, घी के फिंगर प्रिन्ट वाले धातु के गिलास, जिन हाथों से उपले पाथे उन्हीं हाथों से पकाई हुई रोटी, हल, दरांती, मिट्टी से खुरदुराये हुए हाथ, बातों में प्यार और प्याज की महक, मक्खन पिलायी हुई मूंछ….इस सबसे एक ही वक़्त में गले मिलना पड़ता है।
इस क़स्बे के मुशायरे में, जो धीरजगंज का अंतिम यादगार मुशायरा साबित हुआ, बाहर के 18 शायरों के अलावा 33 स्थानीय तथा सम्बन्धित शायर भी सम्मिलित होने के लिये बुलाये गये, या बिन बुलाये आये। बाहर से आने वालों में कुछ ऐसे भी थे जो इस लालच में आये थे कि नक़द न सही, गांव है, कुछ नहीं तो सब्जियां, फ़स्ल के मेवे, फल-फलवारी के टोकरे, पांच-छह मुर्ग़ियों का झाबा तो मुशायरा कमेटी वाले जुरूर साथ कर देंगे। धीरजगंज में कुछ शरारती नौजवान ऐसे थे जिनके बारे में मशहूर था कि वो पास-पड़ोस के तीन-चार मुशायरे चौपटकर चुके हैं। उनके एक पुराने लंगोटिये थे जिन्होंने मैट्रिक में चार-पांच बार फ़ेल होने और परीक्षकों की छात्रों के गुणों को पहचानने के अयोग्यता से तंग आकर चुंगी विभाग में नौकरी कर ली थी। इसमें इन्द्रिय-दमन के अलावा इस बदनाम महकमे को सजा देना भी छुपा हुआ था। चुंगी के वातावरण को उन्होंने शायरी के लिये हद से जियादा उपयुक्त पाया। अपनी वर्तमान स्थिति से इतने संतुष्ट और आनंदित थे कि इसी पोस्ट से रिटायर होने के इच्छुक थे। अधिक संतान वाले थे और आशु कविता करते थे। जो शेरों के आने का क्रम था वही औलाद का भी, यानी कि दोनों के अवतरण का आरोप ऊपर वाले पर लगाते थे। आम-सा वाक्य भी उन पर कविता बन कर उतरता था। गद्य बोलने और लिखने में उन्हें उतनी ही उलझन होती थी जितनी एक आम आदमी को कविता लिखने में।
वो शायरी करते थे मगर मुशायरों से विरक्त और उदास थे। फ़रमाते थे, “आज कल जिस तरह शेर कहा जाता है बिल्कुल उसी तरह दाद दी जाती है, यानी मतलब समझे बग़ैर। सही दाद देना तो दूर अब लोगों को ढंग से हूट करना भी नहीं आता। शेर मुशायरे में सुनने-सुनाने की चीज नहीं। एकान्त में पढ़ने, समझने, सुनने और सहने की चीज है। शायरी किताब की शक्ल में हो तो लोग शायर का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। मैं ‘मीर’ की किताब से एक-दो नहीं, सौ-दो सौ शेर ऐसे निकाल कर दिखा सकता हूं जो वो किसी मुशायरे में पढ़ देते तो इज्जत और पगड़ी ही नहीं, सर भी सलामत नहीं रहता। उन्हें ‘मीर’ के सिर्फ़ यही शेर याद थे। दूसरे उस्ताद शायरों के भी उन्होंने सिर्फ़ वही शेर याद कर रखे थे जिनमें कोई कमी या ग़लती थी। उन साहब से बिशारत पांच छह ग़जलें कहलवा कर ले आये और उन मुशायरा बिगाड़ नौजवानों में बांट दीं कि तुम भी पढ़ना। यह तरकीब काम कर गई।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया 12. ज़लील करने के अलग अलग शेड 13.कुत्ते की तारीफ और मुशायरा 14. शायरों की खातिरदारी 15. इक्के का आविष्कार घोड़े ने किया
कम से कम मुशायरा तो फुरा हो जाने देते यार ,कई ह्फ़्तो से दावते मुशायरा मे आगाज किये बैठे हो ना ,क्या खाली तरसाने के लिये,इतने तो धीरज गंज वाले भी ना तरसे होगे..?
पंगेबाज जी ने एकदम सही कहा!!
“शेरो-शायरी या नॉविलों में देहाती जिन्दगी को रोमेंटिसाइज करके उसकी निश्छलता,सादगी, सब्र और प्राकृतिक सौन्दर्य पर सर धुनना और धुनवाना और बात है लेकिन सचमुच किसी किसान के आधे पक्के या मिट्टी गारे के घर में ठहरना किसी शहरी इन्टेलेक्चुअल के बस का रोग नहीं”
“आम-सा वाक्य भी उन पर कविता बन कर उतरता था। गद्य बोलने और लिखने में उन्हें उतनी ही उलझन होती थी जितनी एक आम आदमी को कविता लिखने में।”
“सही दाद देना तो दूर अब लोगों को ढंग से हूट करना भी नहीं आता।”
एक से बढ़कर एक….वाह!
आज कल जिस तरह शेर कहा जाता है बिल्कुल उसी तरह दाद दी जाती है, यानी मतलब समझे बग़ैर।
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यही नियम टिप्पणी देने के विषय में भी लागू होता है! 🙂