ये कौन हज़रते-‘आतिश’ का हम जबां निकला
इसमें कोई शक नहीं कि सागर जालौनवी के कई शेर बड़े दमपुख्त निकलते थे. कुछ शेर तो वाकई ऐसे थे कि “मीर” और “आतिश” भी उन पर गर्व करते,जिसका एक कारण यह भी था कि ये खुद उन्ही के थे. खुद को एक विद्यार्थी और अपनी शायरी को वो देवीय अवतरण बताता था. चुनांचे एक अरसे तक तो उसके भक्त और शिष्यगण इसी खुशगमानी में रहे कि चोरी नहीं अवतरण में साम्य हो गया. रुदौली में अपनी ग़ज़ल पढ़ रहा था कि किसी गुस्ताख़ ने भरे मुशायरे में टोक दिया कि ये तो नासिख़ का है.चोरी हओ चोरी! ज़रा जो घबराया हो. उलटा मुस्कुराया , बिल्कुल ग़लत! आतिश का है.
फिर अपनी डायरी मुशायरे के अध्यक्ष की नाक के नीचे बढ़ाते हुए बोला “हुज़ूर देख लें, ये शेर डायरी में Inverted Commas में लिखा है और आगे आतिश का नाम भी लिख दिया है.” मुशायरे के अध्यक्ष ने इसकी पुष्टि की और एतराज़ करने वाला अपना-सा मुँह ले के रह गया.
सागर अपने छोड़े हुए वतन जालौन के कारण प्यार से छोटा सागर (जाम) कहलाता था,मगर वो खुद अपना रिश्ता शायरी के लखनऊ स्कूल से जोड़ता था और ज़बान के मामले में दिल्ली वालों और पंजाब वालों से पक्षपात करता था ,चुनांचे केवल लखनऊ के शायरों के कलाम चोरी करता था.
माई डियर मौलवी मज्जन : दिन तो जैसे तैसे काटा लेकिन शाम पड़ते ही बिशारत एक क़रीबी गांव सटक गये। वहां अपने एक परिचित के यहां (जिसने कुछ महीने पहले एक यतीम तलाश करने में मदद दी थी) अंडरग्राउंड हो गये। अभी जूतों के फ़ीते ठीक से खोले भी नहीं थे कि हर जानने वाले को अलग-अलग लोगों के जरिये, अपने गोपनीय भूमिगत स्थान की जानकारी भिजवाई। उन्होंने धीरजगंज में सवा साल रो-रो कर गुजारा था। देहात में वक़्त भी बैलगाड़ी में बैठ जाता है। उन्हें अपनी सहनशक्ति पर आश्चर्य हुआ। नौकरी के सब रास्ते बंद नजर आयें तो असहनीय भी सहन हो जाता है। उत्तरी भारत में कोई स्कूल ऐसा नहीं बचा जिसका नाम उन्हें पता हो और उन्होंने वहां दरख़्वास्त न भेजी हो। आसाम के एक मुस्लिम स्कूल में उन्हें जिम्नास्टिक मास्टर तक की नौकरी न मिली। चार-पांच जगह अपने ख़र्च पर जा कर इंटरव्यू में नाकाम हो चुके थे। हर असफलता के बाद उन्हें समाज में एक नयी ख़राबी नजर आती थी, जिसे सिर्फ़ रक्त-क्रांति से ही दूर किया जा सकता था। लेकिन जब कुछ दिन एक दोस्त की मेहरबानी से सन्डीला के हाईस्कूल में एप्वाइंटमेंट लेटर मिला तो अनायास मुस्कुराने लगे। दस-बारह बार ख़त पढ़ने और हर बार नई ख़ुशी अनुभव करने के बाद उन्होंने चार लाइन वाले काग़ज पर इस्तीफ़ा लिख कर मौली मज्जन को भिजवा दिया। एक ही झटके में बेड़ी उतार फैंकी। इस्तीफ़ा लिखते हुए वो आजादी के भक-से उड़ा देने वाले नशे में डूब गये अतः इस्तीफ़े की इ की टांग त के पेट में घुस गई। लिफ़ाफ़े को थूक कर ऐसे चिपकाया जैसे मौली मज्जन के मुंह पर थूक रहे हों। लिफ़ाफ़ा मौलवी मज्जन को थमाया तो जो कांटा सवा साल से उनके तलवे को छेदता हुआ तालू तक पहुंच चुका था एक झटके से निकल गया। उन्हें इस बात पर हैरत थी कि वो सवा साल ऐसे फटीचर आदमी से इस तरह अपनी औक़ात ख़राब क्यों करवा रहे थे।
मौलवी मज्जन को भी शायद इसका अहसास था उन्होंने विदा के समय हाथ तो मिलाया आंखें न मिला सके।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
[दूसरा भाग यहीं पर समाप्त होता है. अगले शुक्रवार से तीसरा भाग प्रस्तुत किया जायेगा.दूसरे भाग में बीच बीच बीच में कुछ छोटे छोटे अंश काट दिये गये हैं.]
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया 12. ज़लील करने के अलग अलग शेड 13.कुत्ते की तारीफ और मुशायरा 14. शायरों की खातिरदारी 15. इक्के का आविष्कार घोड़े ने किया 16.मुशायरे की तैयारी 17. तवायफ़ के किस्से 18. मूलगंज: तवायफों का जिक्र 19. और मुशायरा लुट गया 20. अजब-गजब मुशायरा 21. तिरे कूचे से हम निकले 22. कई पुश्तों की नालायकी का निचोड़
और इस्तीफ़ा भी शायद दुनिया का सबसे छोटे वाला ही लिखा होगा” भाड मे जा हम चले”
🙂
बढ़िया-अगली कड़ी का इन्तजार.