ज़लील करने के कायदे

यह रुत्ब-ए-बुलंद मिला जिसको मिल गया : तहसीलदार ने जनाने से अपने बेटों को बुलाया और उनसे कहा-चचाजान को आदाब करो। यह कल से तुम्हें पढ़ाने आयेंगे। बड़े और छोटे ने आदाब किया। मंझले ने दायें हाथ से ओक बनाया और झुक-झुक कर दो बार आदाब करने के बाद तीसरी बार झुका तो साथ ही मुंह भी चिढ़ाया।

अब तहसीलदार का मूड बदल चुका था। लड़के लाइन बना कर वापस चले गये तो वो बिशारत से कहने लगा ‘‘परसों ज्योग्राफ़ी की टीचर की जगह के लिये इन्टरव्यू है। मैं आपको सैलेक्शन कमेटी का मैम्बर बना रहा हूं। धार्मिक विषयों का टीचर इस लायक़ नहीं कि कमेटी का मैम्बर रहे। मौली मज्जन को ख़बर कर दी जायेगी। यह सुनते ही बिशारत को गुदगुदियां होने लगीं। उस वक़्त कोई उन्हें वायसराय बना देता तब भी इतनी ख़ुशी न होती। अब वो भी इन्टरव्यू में अच्छे-अच्छों को ख़ूब रगेदेंगे और पूछेंगे कि मियां तुम डिग्रियां बग़ल में दबाये अफ़लातून बने फिरते हो, जरा यह तो बताओ कि दुनिया गोल क्यों बनायी गयी है? बड़ा मजा आयेगा। यह इज्जत किसे नसीब होती है कि अकारण जलील होने के फ़ौरन बाद दूसरों को अकारण जलील करके हिसाब बराबर कर दे। उनके घायल स्वाभिमान के सारे घाव पल भर में भर गये।

मारे ख़ुशी के वो यह भी स्पष्ट करना भूल गये कि बन्दा हर इन्टरव्यू के बाद न आवाज लगायेगा, न घंटा बजायेगा। चलने लगे तो तहसीलदार ने मटमैले क़ानूनगो को आंखों से कुछ इशारा किया और उसने पन्द्रह सेर गेहूं और एक हांडी गन्ने के रस की साथ कर दी। उसे यह भी हिदायत दी कि कल मास्टर साहब के घर जवासे की एक गाड़ी डलवा देना और बेगार में किसी पन्नीगर को भेज देना कि हाथों-हाथ टट्टी बना दे। उस जमाने में जो लोग ख़स की क्षमता नहीं रखते थे वो जवासे के कांटों की टट्टी पर सब्र करते थे और जो इस क़ाबिल भी नहीं होते थे, वो ख़स की पंखिया पर कोरी ठिलिया का पानी छिड़क लेते। उसे झलते-झलते जब नींद का झोंका आता तो ‘‘ख़सख़ाना-ओ-बर्फ़ाब की ख़्वाबनाक ख़ुन्कियों’’ में उतरते चले जाते।

उर्दू टीचर के कर्मक्षेत्र से बाहर के दायित्व : अगले दिन बिल्कलु तडक़े बिशारत अपनी ड्यूटी पर हाजिर हो गये। मौलवी मुजफ़्फ़र ने उनसे ड्यूटी ज्वाइन करने की लिखित रिपोर्ट ली कि आज सुब्ह ग़ुलाम ने नियमानुसार चार्ज संभाल लिया।चार्ज बहुत धोके में डालने वाला शब्द है वरना हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी थी कि जो चीजें चार्ज में दी गयी थीं वो बग़ैर चार्ज के भी कुछ ऐसी असुरक्षित न थीं।

खादी का डस्टर-डेढ़ अदद, हाथ का पंखा-एक अदद रजिस्टर हाजरी-एक अदद मिट्टी की दवात-दो अदद। मौलवी मुजफ़्फ़र ने ब्लैक बोर्ड का डस्टर उन्हें सौंपते हुए चेतावनी दी कि देखा गया है मास्टर साहिबान चाक के मुआमले में बहुत फ़ुजूलख़र्ची करते हैं, इसलिये स्कूल की कमेटी ने यह फ़ैसला किया है कि आइन्दा मास्टर साहिबान चाक ख़ुद ख़रीद कर लायेंगे। खजूर के पंखे के बारे में भी उन्होंने सूचना दी कि गर्मियों में एक ही उपलब्ध कराया जायेगा। मास्टर बिल्कुल लापरवाह साबित हुए हैं। दो ही हफ़्तों में सारी बुनाई उधड़ कर झंतूरे निकल आते हैं और अक्सर मास्टर साहिबान छुट्टी के दिन स्कूल का पंखा घर में इस्तेमाल करते हुए देखे गये हैं। कई तो इतने आरामतलब और काहिल हैं कि उसी की डंडी से लौडों को मारते हैं, हालांकि दो क़दम पर नीम का पेड़ बेकार खड़ा है। हां! मौलवी मुजफ़्फ़र ने एक होल्डर (लकड़ी का निब वाला क़लम) भी उनके चार्ज में दिया जो उनके पूर्ववर्तियों ने दातुन की तरह इस्तेमाल किया था। इसका आधे से अधिक हिस्सा चिन्तन-मनन के समय लगातार दांतों में दबे रहने के कारण झड़ गया था। बिशारत को इस ग़लत इस्तेमाल पर बहुत ग़ुस्सा आया कि वो अब इससे नाड़ा नहीं डाल सकते थे।

चार्ज पूरा होने के बाद बिशारत ने कोर्स की किताबें मांगी तो मौलवी मुजफ़्फ़र ने सूचना दी कि स्कूल कमेटी के रिजोल्यूशन नं.-5 तारीख़ 3 फ़रवरी 1935 के अनुसार मास्टर को कोर्स की किताबें अपनी जेब से खरीद कर लानी होगी। बिशारत ने जल कर पूछा “सब’’ यानी कि पहली क्लास से लेकर आठवीं तक? फ़रमाया, “तो क्या आपका ख़याल है आप पहली क्लास के क़ायदे से आठवीं का इन्तहान दिलवा देंगे।“

मौलवी मुजफ़्फ़र ने चलते-चलते यह भी सूचना दी कि स्कूल कमेटी फ़िजूल के ख़र्चे कम करने की ग़रज से ड्रिल मास्टर की पोस्ट ख़त्म कर रही है। ख़ाली घंटों में आप पड़े-पड़े क्या करेंगे? स्टाफ़-रूम ठाली मास्टरों के ऐंडने और लोटें लगाने के लिये नहीं है। खाली घंटों में ड्रिल करा दिया कीजिये, (पेट की तरफ़ इशारा करके) बादी भी छंट जायेगी। जवान आदमी को चाक-चैबंद रहना चाहिये। बिशारत ने विनम्र अस्वीकार से काम लेते हुए कहा ‘‘मुझे ड्रिल नहीं आती।’’ बहुत मीठे और धीमे लहजे में उत्तर मिला, “कोई बात नहीं, कोई भी मां के पेट से ड्रिल करता हुआ तो पैदा नहीं होता, किसी भी लड़के से कहियेगा, सिखा देगा। आप तो माशाअल्लाह से जहीन आदमी हैं। बहुत जल्द सीख जायेंगे। आप तो टीपू सुल्तान और स्पेन के जीतने वाले तारिक़ का नाम लेते हैं।“

बिशारत बड़ी मेहनत और लगन से उर्दू पढ़ा रहे थे कि दो ढाई हफ़्ते बाद मौलवी मुजफ़्फ़र ने अपने दफ़्तर में तलब किया और फ़र्माया कि आप तो मुसलमान के बेटे हैं जैसा कि आपने दरख़्वास्त में लिखा था। अब जल्दी से जनाज़े की नमाज पढ़ाना और नियाज देना सीख लीजिये। वक़्त, बेवक़्त, जुरूरत पड़ती रहती है। नमाज़े-जनाजा तो कोर्स में भी है। हमारे जमाने में तो स्कूल में शवस्नान भी कम्पलसरी था। धार्मिक विषय के टीचर की बीबी पर बाराबंकी में जिन्न दोबारा सवार हो गया है। रातों को चारपाई उलट देता है। उसे उतारने जा रहा है। पिछले साल एक पड़ौसी का जबड़ा और दो दांत तोड़ कर आया था। उसकी जगह आपको काम करना होगा। जाहिर है! उस हरामख़ोर के बदले काम करने के लिये आसमान से फ़रिश्ते तो आने से रहे।

तीन-चार दिन का भुलावा दे कर मौलवी मुजफ़्फ़र ने पूछा, ‘‘बर्ख़ुरदार आप इतवार को क्या करते रहते हैं?’’ बिशारत ने जवाब दिया, ‘‘कुछ नहीं।’’ फ़रमाया, “तो यूं कहिये! केवल सांस लेते रहते हैं। यह तो बड़ी बुरी बात है। सर मुहम्मद इकबाल ने कहा है कभी ऐ नौजवां मुस्लिम तदब्बुर भी किया तूने, जवान आदमी को इस तरह हाथ पर हाथ धरे बेकार नहीं बैठना चाहिये। जुमे को स्कूल की छुट्टी जल्दी हो जाती है। नमाज के बाद यतीमखाने की चिट्ठी-पत्री देख लीजिये। आप तो घर के आदमी हैं आप से क्या परदा, आपकी तनख़्वाहें दरअस्ल यतीमख़ाने के चंदे से ही दी जाती हैं। तीन महीने से रुकी हुई हैं। मेरे पास इलाहदीन का चराग़ तो है नहीं। दरअस्ल यतीमों पर इतना खर्च नहीं आता, जितना आप हजरात पर। इतवार को यतीमख़ाने के चंदे के लिये अपनी साइकिल ले कर निकल जाया कीजिये। पुण्य कार्य भी है और आपको बेकारी की लानत से भी छुटकारा मिल जायेगा, सो अलग। आस-पास के देहात में अल्लाह के करम से मुसलमानों के काफ़ी घर हैं। तलाश करने से ख़ुदा मिल जाता है। चंदा देने वाले किस खेत की मूली हैं।’’

बिशारत अभी सोच ही रहे थे कि चंदा देनेवाले को कैसे पहचानें और ढूंढ़ेंगे कि इतने में सर पर दूसरा बम गिरा। मौलवी मुजफ़्फ़र ने कहा कि चंदे के अलावा आस-पास के देहात से सही यतीम भी तलाश कर लाने होंगे।

जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]

[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]

इस भाग की अन्य कड़ियां.

1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम

पहला भाग

किताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

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By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

6 comments

  1. काकेशजी , आपकी मेहनत की तारीफ़ करते हैं हम। जी खोलकर। बहुत अच्छे। ये उपन्यास नेट पर लाने में आपका बहुत योगदान है।

  2. काकेश, अनुपजी की बात से शत प्रतिशत सहमत हैं हम। थोड़ा सा ऐसा dedication हमें भी सिखा दो यार 🙂

  3. काकेश जी,

    अद्भुत ढंग से लिखा गया है जी. हंस-हंस कर पेट में बल पड़ जाते हैं. ऐसा चरित्र-चित्रण, ऐसे-ऐसे वाकये,….बाप रे, सब एक से बढ़कर एक.

  4. कितनी बार इसे अद्भुत कहूं!!

    वाकई कल अनीताकुमार जी से यही बात हो रही थी कि काकेश जी कितनी मेहनत करते हैं इस उपन्यास के लिए!!
    शुक्रिया आपका!!

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