खरबूजा खुद को गोल कर ले तब भी तरबूज नहीं बन सकता

किबला वाली कहानी का अंत अब निकट है. इसमें व्यंग्य के साथ साथ करुणा भी है और जीवन की सच्चाई भी. अब आप आगे पढ़िये.

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हम जिधर जायें दहकते जायें

कराची में दुकान तो फिर भी थोड़ी बहुत चली, मगर क़िबला बिल्कुल नहीं चले। ज़माने की गर्दिश पर किसका ज़ोर चला है जो उनका चलता। हादसों को रोका नहीं जा सकता, हां, सोच से हादसों का ज़ोर तोड़ा जा सकता है। व्यक्तित्व में पेच पड़ जायें तो दूसरों के अतिरिक्त खुद अपने-आप को भी तकलीफ़ देते हैं, लेकिन जब वो निकलने लगें तो और अधिक कष्ट होता है। कराची आने के बाद अक्सर कहते कि डेढ़ साल जेल में रह कर जो बदलाव मुझमें न आया, वो यहां एक हफ्ते में आ गया। यहां तो बिज़नेस करना ऐसा है जैसे सिंघाड़े के तालाब में तैरना। कानपुर ही के छुटे हुए छाकटे यहां शेर बने दनदनाते फिरते हैं और अच्छे-अच्छे शरीफ़ हैं कि गीदड़ की तरह दुम कटवा के भट में जा बैठे। ऐसा बिजागे पडा कि ”ख़ुद-ब- ख़ुद बिल में है हर शख्श समाया जाता” जो बुद्धिमान हैं वो अपनी दुमें छुपाये बिलों में घुसे बैठे हैं , बाहर निकलने की हिम्मत नहीं पड़ती। इस पर मिर्ज़ा ने हमारे कान में कहा:

‘अनीस ‘दुम“ का भरोसा नहीं, ठहर जाओ’

एक दोस्त ने अपनी इज़्जत-आबरू जोखिम में डालकर क़िबला से कहा कि गुज़रा हुआ ज़माना लौट कर नहीं आ सकता। हालात बदल गये हैं, आप भी खुद को बदलिये, मुस्कुरा के बोले खरबूजा खुद को गोल कर ले तब भी तरबूज नहीं बन सकता। बात यह थी कि ज़माने का रुख पहचानने की शक्ति, क्षमता, नर्मी और लचक न उनके स्वभाव में थी और न ज़मींदाराना माहौल और समाज में इनकी गिनती गुणों में होती थी। सख्त़ी, अभिमान, गुरूर और गुस्सा अवगुण नहीं बल्कि सामंती चरित्र की मजबूती की दलील समझे जाते थे और जमींदार तो एक तरफ़ रहे, उस जमाने के धर्मिक स्कॉलर तक इन गुणों पर गर्व करते थे।

क़िबला के हालात तेजी से बिगड़ने लगे तो उनके हमदर्द मियां इनआम इलाही ने, जो छोटे होने के बावजूद उनके स्वभाव और मामलात में दख्ल़ रखते थे, कहा कि दुकान खत्म करके एक बस खरीद लीजिये। घर बैठे आमदनी होगी। रूट परमिट मेरा ज़िम्मा। आजकल इस धन्धे में बड़ी चांदी है, एकदम जलाल (तेज गुस्सा) आ गया। फ़र्माया चांदी तो तबला सारंगी बजाने में भी है। एक रख-रखाव की रीत बुजुर्गों से चली आ रही है, जिसका तकाजा है कि बरबाद होना ही मुक़द्दर में लिखा है तो अपने पुराने और आज़माये हुए तरीके से होंगे, बंदा ऐसी चांदी पर लात मारता है।

आख़िरी गाली

कारोबार मन्दा बल्कि बिल्कुल ठंडा, तबीयत में उदासी। दुकानदारी अब उनकी आर्थिक नहीं, मानसिक आवश्यकता थी। समझ में नहीं आता था कि दुकान बंद कर दी तो घर में पड़े क्या करेंगे, फिर एक दिन यह हुआ कि उनका नया पठान मुलाज़िम ज़र्रीन गुल खान कई घंटे देर से आया। वो हर प्रकार से गुस्से को पीने की कोशिश करते थे लेकिन पुरानी आदत कहीं जाती है। चन्द माह पहले उन्होंने एक साठ साला मुंशी आधी तनख्व़ाह पर रखा था, जो गेरुवे रंग का ढीला-ढाला लबादा पहने, नंगे पैर ज़मीन पर आल्थी-पाल्थी मारे हिसाब किताब करता था। कुर्सी या किसी भी ऊंची चीज पर बैठना उसके सम्प्रदाय में मना था।

वारसी सिलसिले के किसी बुजुर्ग से दीक्षा ली थी। मेहनती, ईमानदार, रोजे नमाज का पाबन्द, तुनकमिजाज और काम में चौपट था। क़िबला ने तैश में आकर एक दिन उसे हरामखोर कह दिया। सफ़ेद दाढ़ी का लिहाज़ भी न किया। उसने आराम से कहा ”दुरुस्त! हज़ूर के यहां जो चीज़ मिलती है वही तो फ़कीर खायेगा।सलाम अलैकुम” और ये जा वो जा। दूसरे दिन से मुंशी जी ने नौकरी पर आना और क़िबला ने हरामखोर कहना छोड़ दिया, लेकिन हरामखोर के अलावा और भी तो दिल दुखाने वाले बहुतेरे शब्द हैं। ज़र्रीन गुल खान को सख्त़ सुस्त कहते-कहते उनके मुंह से रवानी और गुस्से में वही गाली निकल गयी जो अच्छे दिनों में उनका तकिया कलाम हुआ करती थी। गाली की भयानक गूंज दर्रा-आदम खो़ल के पहाड़ों तक ठनठनाती पहुंची, जहां ज़र्रीन गुल की विधवा मां रहती थी। वो छ: साल का था जब मां ने वैध्व्य की चादर ओढ़ी थी। बारह साल का हुआ तो उसने वादा किया था कि मां! मैं बड़ा हो जाउंफगा तो नौकरी करके तुझे पहली तनख्व़ाह से बगै़र पैवंद की चादर भेजूंगा। उसे आज तक किसी ने यह गाली नहीं दी थी। जवान खून,गुस्सैल स्वभाव, पठान के स्वाभिमान का सवाल था। ज़र्रीन गुल खान ने उनकी तिरछी टोपी उतार कर फ़ैंक दी और चाक़ू तान कर खड़ा हो गया। कहने लगा ”बुड्ढे! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अभी तेरा पेट फाड़ के कलेजा कच्चा चबा जाऊंगा। तेरा पलीद मुर्दा बल्ली पे लटका दूंगा।“

एक ग्राहक ने बढ़कर चाकू छीना। बुड्ढे ने झुक कर ज़मीन से अपनी मख़मली टोपी उठायी और गर्द झाड़े बगै़र सर पर रख ली।

जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जायेगी]

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पिछले अंक : 1. खोया पानी-1:क़िबला का परिचय 2. ख़ोया पानी 2: चारपाई का चकल्लस 3. खोया पानी-3:कनमैलिये की पिटाई 4. कांसे की लुटिया,बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी़ 5. हवेली की पीड़ा कराची में 6. हवेली की हवाबाजी 7. वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है 8. इम्पोर्टेड बुज़ुर्ग और यूनानी नाक 9. कटखने बिलाव के गले में घंटी 10. हूँ तो सज़ा का पात्र, पर इल्ज़ाम ग़लत है 11. अंतिम समय और जूं का ब्लड टैस्ट 12. टार्जन की वापसी 13. माशूक के होंठ 14. मीर तकी मीर कराची में 15. दौड़ता हुआ पेड़ 16. क़िबला का रेडियो ऊंचा सुनता था 17. बीबी! मिट्टी सदा सुहागन है.

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किताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

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By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

2 comments

  1. खरबूजा भी तो गोल ही होता उसे खुद को गोल करने की क्या जरूरत। यही बात तरबूजे के संदर्भ में भी कही जा सकती है, तुम किबला खोये पानी को ढूँढना जारी रखो।

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