जब आदमी अपनी नजर में गिर जाये

जनाज़े से दूर रखना

लम्बे समय से उन्हें जीवन में जो ख़ालीपन खटकता था वो इस घोड़े ने पूरा किया। उन्हें बड़ा आश्यर्च होता था कि इसके बिना अब तक कैसे बल्कि काहे को जी रहे थे।

I wonder by my troth what thou and I did till we loved-done.

इस घोड़े से उनका प्रेम इस हद तक बढ़ चुका था कि फ़िटन का विचार छोड़ कर सेठ का तांगा भी साढ़े चार सौ रुपये में खरीद लिया, हालांकि तांगा उन्हें जरा-भी पसंद नहीं आया था। बहुत बड़ा और गंवारू-सा था, लेकिन क्या किया जाये। सारे कराची में एक भी फ़िटन नहीं थी। सेठ घोड़ा और तांगा साथ बेचना चाहता था। यही नहीं उसने दाने की दो बोरियों, घास के पांच पूलों, घोड़े के फ्रेम किये हुए फ़ोटो, हाज्मे के नमक, दवा और तेल पिलाने की नाल, खरेरे और तोबड़े का मूल्य-साढ़े उन्तीस रुपये-अलग से धरवा लिया। वो इस धांधली को ‘‘पैकेज-डील’’ कहता था। घोड़े के भी मुंहमांगे दाम देने पड़े। घोड़ा यदि अपने मुंह से दाम मांग सकता तो सेठ के मांगे हुए दामों यानी नौ सौ रुपये से कम ही होते। घोड़े की ख़ातिर बिशारत को सेठ का तकिया कलाम ‘‘क्या’’ और ‘साला’ भी सहन करना पड़ा। हिसाब चुकता करके जब उन्होंने लगाम अपने हाथ में ले ली और उन्हें यह विश्वास हो गया कि अब संसार की कोई शक्ति उनसे उनकी इच्छा के स्वप्नफल को नहीं छीन सकती, तो उन्होंने सेठ से पूछा कि आपने इतना अच्छा घोड़ा बेच क्यों दिया? कोई ऐब है?

उसने जवाब दिया, ‘‘दो महीने पहले की बात है। मैं तांगे में लारेंस-रोड से ली-मार्केट जा रहा था। म्यूनिस्पिल वर्कशाप के पास पहुंचा होगा कि सामने से एक साला जनाजा आता दिखाई पड़ा……क्या? किसी पुलिस अफ़सर का था। घोड़ा आल-आफ़-ए-सडन बिदक गया, पर कन्धा देने वाले इससे भी अधिक बिदके। बेफ़िजूल डर के भाग खड़े हुए……क्या? बीच सड़क पे जनाज़े की मिट्टी खराब

हुई। हम साला उल्लू के माफ़िक़ बैठा देखता पड़ा। वो दिन है और आज का दिन, बेकार बंधा खा रहा है। दिल से उतर गया……क्या? वैसे ऐब कोई नहीं, बस जनाज़े से दूर रखना। अच्छा, सलामालेकुम।’’ ‘‘आपने पहले क्यों नहीं बताया?’’ ‘‘तुमने

पहले क्यों नहीं पूछा? सलामालेकुम।’’

जग में चले पवन की चाल

उन्होंने रहीम बख़्श नाम का एक कोचवान नौकर रख लिया। तनख़्वाह मुंह-मांगी, यानी पैंतालीस रुपये और खाना कपड़ा। घोड़ा उन्होंने केवल रंग, दांत और घनी दुम देखकर खरीदा था। वो इनसे इतने संतुष्ट थे कि बाक़ी घोड़े की जांच-पड़ताल आवश्यकता न समझी। कोचवान भी कुछ इसी प्रकार रखा अर्थात केवल जबान पर रीझ कर। बातें बनाने में माहिर था। घोड़े जैसा चेहरा, हंसता तो लगता कि घोड़ा हिनहिना रहा है। तीस वर्ष घोड़ों की संगत में रहते-रहते उनकी सारी आदतें, बुराइयां, और बदबुऐं अपना ली थीं। घोड़े की अगर दो टांगें होतीं तो इसी प्रकार चलता, बच्चों को कई बार अपना बायां कान हिला कर दिखाता। फुटबाल को एड़ी से दुलत्ती मारकर पीछे की ओर गोल करता तो बच्चे ख़ुशी से तालियां बजाते। घोड़े के चने की चोरी करता था। बिशारत कहते थे, ‘‘यह मनहूस चोरी-छुपे घास भी खाता है। वरना एक घोड़ा इतनी घास खा ही नहीं सकता। जभी तो इसके बाल अभी तक काले हैं। देखते नहीं, हरामख़ोर तीन औरतें कर चुका है!’’ विषय कुछ भी हो, सारी बातचीत साईसी भाषा में करता और रात को चाबुक़ साथ लेकर सोता। दो मील के भीतर कहीं भी घोड़ा या घोड़ी हो, वो तुरन्त बू सूंघ लेता और उसके नथुने फड़कने लगते। रास्ते में कोई सुन्दर घोड़ी दिखाई पड़ जाये तो वहीं रुक जाता और आंख मार-के तांगे वाले से उसकी उम्र पूछता। फिर अपने घोड़े से कहता ‘‘प्यारे! तू भी जलवा देख ले, क्या याद करेगा!’’ और पंकज मलिक की आवाज, अपनी लय और घोड़े की टाप की ताल पर ‘‘जग में चले पवन की चाल’’ गाता हुआ आगे बढ़ जाता। मिर्जा कहते थे कि यह व्यक्ति पूर्व-जन्म में घोड़ा था और अगले जन्म में भी घोड़ा ही होगा। ऐसा केवल महात्माओं और ऋषियों, मुनियों के साथ होता है कि वो जो पिछले जन्म में थे, अगले में भी वहीं हों। वरना ऐसे-वैसों की तो एक ही बार में जून पलट जाती है।

घोड़े-तांगे का उद्घाटन कहिये, मुहूर्त कहिये, जो कहिये-बिशारत के पिता के हाथों हुआ। सत्तर के पेटे बल्कि लपेटे में आने के पश्चात! लगातार बीमार रहने लगे थे। कराची आने के उपरांत उन्होंने बहुत हाथ-पांव मारे, मगर न कोई मकान और जायदाद अलाट करा सके, न कोई ढंग का बिजनेस शुरू कर पाये। बुनियादी तौर पर वो बहुत सीधे आदमी थे। बदली हुई परिस्थितियों में वो अपने बंधे-टिके उसूलों और आउट-आफ़-डेट जीवन-शैली में परिवर्तन लाने को सरासर बदमाशी मानते थे। इसलिए असफलता के कारण दुखी अथवा शर्मिंदा होने की बजाय एक गौरव और संतोष अनुभव करते। वो उन लोगों में से थे, जो जीवन में नाकाम होने को अपनी नेकी और सच्चाई की सबसे रोशन दलील समझते हैं।

अत्यंत भावुक और स्वाभिमानी व्यक्ति थे, किसी से अधिक मिलते-जुलते भी न थे। कभी किसी के सामने हाथ नहीं फ़ैलाया था। पामिस्ट के सामने भी नहीं। अब यह भी किया। ख़ुशामद से जबान को कभी दूषित नहीं किया था। यह क़सम भी टूटी मगर, काम न बनना था, न बना। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग का कहना है कि, जब स्वाभिमानी और बाउसूल व्यक्ति अपनी हिम्मतानुसार धक्के खाने के पश्चात डीमॉरलाइज होकर कामयाब लोगों के हथकंडे अपनाने का भोंडा प्रयास करता है तो रही-सही बात और बिगड़ जाती है। एकाएक उनको लक़वा मार गया। शरीर के बायें भाग ने काम करना बंद कर दिया। डाइबिटीज, एलर्जी, पार्किंसन और ख़ुदा जाने कौन-कौन से रोगों ने घेर लिया। कुछ ने कहा उनके घायल स्वाभिमान ने रोगों में शरण ढूंढ ली है। स्वयं स्वस्थ नहीं होना चाहते कि फिर कोई तरस नहीं खायेगा। अब उन्हें अपनी असफलता का इतना अफ़सोस नहीं था जितना कि अपनी जीवनशैली हाथ से जाने का दुख। लोग आ-आ कर उनका साहस बढ़ाते और कामयाब होने के तरीक़े सुझाते तो उनके आंसू बहने लगते।

लज्जा और अपमान की सबसे जलील सूरत यह है कि व्यक्ति स्वयं अपनी दृष्टि में भी कुछ न रहे। सो वो इस नर्क से भी गुजरे-उनका बायां बेजान हाथ अलग लटका इस गुजरने की तस्वीर खींचता रहता। लेकिन बेबसी का चित्रण करने के लिये उन्हें कुछ अधिक चेष्टा करने की आवश्यकता न थी। वो सारी उम्र दाग़ की ग़जलों पर सर धुनते रहे थे। उन्होंने कभी किसी तवायफ़ को फ़ानी या मीर की ग़जल गाते नहीं सुना था। दरअस्ल उन दिनों नृत्य और गायन की महफ़िलों में किसी हसीना से फ़ानी या मीर की ग़जल गवाना ऐसा ही था जैसे शराब में बराबर का नींबू का रस निचोड़ कर पीना, पिलाना। गुस्ताख़ी माफ़, ऐसी शराब पीने के बाद तो आदमी केवल तबला बजाने योग्य रह जायेगा! तो साहब! बाबा सारी उम्र फ़ानी और मीर से दूर रहे। अब जो शरण मिली तो उन्हीं के शेरों में मिली। वो मजबूत और बहादुर आदमी थे। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि उनको कभी रोते हुए देखूंगा। मगर देखा, इन आंखों से, कई बार।’’

जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शनिवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]

[उपन्यास खोयापानी की तीसरे भाग “स्कूल मास्टर का ख़्वाब से ” ]

किताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

इस भाग की पिछली कड़ियां

1. हमारे सपनों का सच 2. क़िस्सा खिलौना टूटने से पहले का 3. घोड़े को अब घोड़ी ही उतार सकती है 4. सवारी हो तो घोड़े की

पहला और दूसरा भाग

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

3 comments

  1. तो आखिर घोडा आ ही गया बिशारत मिया के पास, यानी अब ख्वाहिशे पुरी होने चल दी है 🙂

  2. वदिया भोत वदिया
    देंखे अब आगे क्या गुल खिलाया जाता है.

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