मन जब उद्विग्न हो तो ना जाने क्या क्या सोचने लगता है.रोटी और पैसे के सवालों से जूझना जीवन की सतत आकांक्षा है पर उसके अलावा भी तो हम हैं..क्या सिर्फ रोटी पैसा और मकान ही चाहिये जीने के लिये…यदि वो सब मिल गया तो फिर क्या करें??? …कैसे जियें? क्या इतना काफी है जीने के लिये ? संवेदना किस हद तक सूनी हो सकती है.?.और फिर उस संवेदना को पकड़ना भी कौन चाहता है..? कितनी महत्वपूर्ण है वो संवेदना..? क्या हम संवेदनशील हैं…? क्या उगता सूरज देखा है आपने..और फिर डूबता भी देखा ही होगा .. क्या कोई अन्तर पाया..?? दोनों लाल ही होते हैं ना… आकाश वैसा ही दिखता है गुलाबी… चलिये फिर ध्यान से देखें उन रंगो को ..
मै कविता नहीं जानता ..कुछ लिखा है..आप भी पढ़ लें…
(1)
बदलते समय और भटकते मूल्यों के बीच ,
धँस गया हूँ ,
दूसरों की क्या कहूँ,
खुद को ही लगता है कि,
फँस गया हूँ.
(2)
समय के अनवरत बढ़ते चक्र
को थामने की कोशिश बेमानी है,
पर जीवन के इस रास्ते पर
अब चलने में हैरानी है..
(3)
दीवार अब खिड़की से
उजाले के बाबत
सवाल पूछ्ती है
आग अब जलने के लिये
मशाल ढूंढती है.
(4)
टेड़ा-मेड़ा,भारी-भरकम
कैसा भी हो ,
पर है उत्तम
जीवन पथ है.
(5)
बनकर मीठा,
अब तक सहकर,
जीवन रीता,
सारा बीता.
(6)
नहीं कमी है,
फिर क्यों खाली ?
तेरी मेरी उसकी थाली !!
(7)
बदल जरा तू ,
संभल जरा तू ,
मिल जायें तो ,
बहल जरा तू.
पा जायेगा…
राह नवेली..
ये झूठी है…
आह अकेली.
(8)
चाहे चुककर,
चाहे झुककर,
बस चलता जा,
बस जलता जा,
कभी मिलेंगी,
प्यारी-प्यारी ,
ये खुशियाँ
कब तलक करेंगी
अपने मन की… !!
आंख मिचौनी …
कमाल कर दिया और कहते है, कविता नहीं आती.
ये इतना अच्छा माल कहा छुपा रखी था ,इस पर कोई कानून है क्या,तो बताये हम मुकदमा करेगे,
लगता है की आपके मन का विशाल द्वार पूर्णत: खुल गया और आकाश पंक्तियों से रच गया…मधुरता इतनी और बाते बेबाकी की अंगुली दांतों तले पीस गया…।
बहुत बढ़िया!!!
एक से बढ़ कर एक-सभी में गहन चिंतन रेखांकित हो रहा है. इसे कवित्त न कह कर रेखाचित्र ही कहें:
बनकर मीठा,
अब तक सहकर,
जीवन रीता,
सारा बीता.
आह्ह!! बहुत ही सुंदर. बधाई हमारे मित्र. 🙂
अद्भुत है ये आपका नया रंग, अब ये रंग भी उड़ाते रहिएगा।
सही है, प्यारे.. सुर में है..
बहुत खूब हम भी हैं लाइन में तारीफ़ करने वालों की।
मित्र मोटी बुद्धि का व्यंग्यकार हूं, कविता कुछ कम समझ में आती है-आपकी ये लाइनें ही समझ पाया हूं-
दीवार अब खिड़की से
उजाले के बाबत
सवाल पूछ्ती है
यानी दीवार नामक कन्या खिड़की नामक सखी से पूछती है कि उजालेराम राम का बालक कहां गया। शायद खिड़की ने बताया हो कि कायदे के बालक अब इंडिया में रहते ही कहां है। पतली गली से निकल उजालेराम एनआरआई हो लिये हैं।
गुस्ताखी के लिए एडवांस में क्षमायाचना।
आलोक पुराणिक
अच्छा लिखा है आपने !
इतनी अच्छी कविता लिखी है और कहते है कि कविता लिखना नही आता ।
अच्छी कवितायेँ लिखीं हैं काकेश जी! बधाई
काकेश जी आज हमने देखा आप हमारी छत पर भी आ ही गये काँव-काँव करने…हमे तो मालूम ही नही था आप तो कवियो के भी कवि है
वाह बहुत ही सुन्दर लिखते है…
बधाई…
शानू
“चाहे चुककर,
चाहे झुककर,
बस चलता जा,
बस जलता जा,”
सन्देशवाहक रचना . धन्यवाद