मुन्नू को आज फिर डांट पड़ी.उसे ये डांट रोज ही पड़ती है जब भी वो क्रिकेट खेल के घर आता है.उसके पापा कहते कि उसे क्रिकेट पर ध्यान ना देकर पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिये. वो युवराज सिंह की तरह बनना चाहता है पर उसके पापा उसे कुछ और ही बनाना चाहते हैं. आज फिर वही हुआ यानि आने के बाद वही डांट और वही लैक्चर. उसके पापा ने समझाया बेटा यदि पढ़ोगे लिखोगे नहीं तो जिन्दगी में कुछ नहीं कर पाओगे. केवल क्रिकेट खेलने से कुछ नहीं होगा.उन्होने एक पुरानी कहावत भी बोली ” खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब,पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाब“. पापा के सामने बोलने की हिम्मत मुन्नू की नहीं थी लेकिन उसे पापा की बात कुछ समझ नहीं आयी. उसके लिये ‘नबाब’ नया शब्द था तो वो समझ नहीं सका कि वो पढ़ लिख भी लेगा तो आखिर बनेगा क्या.उसने अपने दादा से पूछा कि ये ‘नबाब’ क्या होता है. दादा ने बताया कि आजकल नबाब नहीं होते. नबाब पहले के जमाने में होते थे. उसकी समझ में आ गया कि इसका मतलब आजकल कोई पढ़ता लिखता नहीं है. वो सोने चला गया. वो दुखी था.
पापा की डांट मुन्नू के कानों में गूंज रही थी.”नबाब” शब्द भी बारबार दिमाग में आ जाता. वो उलझन में था.
“खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब,पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाब”…. उसे ध्यान आया कि उसने सुना था कि वीरेन्द्र सहवाग को “नजफगढ़ का नबाब” कहा जाता है. पर दादा जी तो कह रहे थे कि नबाब आजकल नहीं होते. क्या चक्कर है?? यही सोचते सोचते उसे नींद आ गयी.
उसे लगा कि एक बड़े स्टेडियम में पहुंच गया है.चारों ओर से दर्शक उसे देख रहे हैं.रंग बिरंगे कपड़े. बाउंड्री के किनारे तरह तरह के वाद्यों की धुन पर नाचते कुछ लड़के लड़्की.वो मैदान में है.वो क्रीज पर बैटिंग कर रहा है.दर्शक उसे उत्साहित कर रहे हैं. मुन्नू ….मुन्नू…..मुन्नू…… चारों और से आवाजें आ रही थी. “चक दे इंडिया” वाला गाना भी बज रहा था. उसके सामने दूसरे देश का बॉलर था.मुन्नू बहुत खुश हो रहा था. अगली गैंद पर उसने एक छ्क्का जड़ दिया. तालियों का शोर बढ़ता गया. इसी खुशी में उसने एक एक करके छ:ह छ्क्के मार दिये. उसने ईश्वर को धन्यवाद देने के लिये आसमान की ओर देखा. देखता क्या है कि आसमान एकदम काला है. चारों ओर काले घने बादल हैं.काले बादलों के बीच कुछ कुछ सफेद कपड़े पहने टोपी लगाये आकृतियां जैसी भी दिखायी दी. वो डरने लगा उसे लगा कि शायद वो भूत हैं तभी उसे ध्यान आया उसने ऎसे ही कपड़े पहने कुछ लोग किसी जुलूस में देखे थे. पापा से पूछने पर उन्होने बताया था कि ये हमारे देश के नेता हैं ये लोग देश चलाते हैं. उसे समझ नहीं आया कि देश चलाने वाले लोग अपना काम धाम छोड़कर बादलों के बीच में बैठकर क्रिकेट में क्यों झांक रहे हैं. वो कुछ समझ पाता अचानक बारिश होने लगी. वो खुद को भीगने से बचाने के लिये भागना ही चाहता था कि उसे पता चला कि पानी तो बरस ही नहीं रहा बल्कि रुपये-पैसे बरस रहे हैं.उसके समझ में कुछ नहीं आ रहा था.उसने आसमान से नजरें हटा कर दर्शकों की ओर देखना चाहा. उसे लगा की दर्शकों की आंखों की जगह टी वी के कैमरे हैं. जो उसे ही देख रहे हैं.
मुन्नू बुरी तरह डर गया था. उसने भागना चाहा. उसे लगा कि उसका घर पास ही है.लेकिन उसके घर के जाने के सारे रास्ते भीड़ से भरे हुए हैं.चारों ओर एक विशाल जन समूह है और वो लोगों से घिरा हुआ है.धन-वर्षा अभी भी हो रही थी.लोग नाच रहे हैं गा रहे हैं.शोर ही शोर है. टी वी वाले है. पटाखे फूट रहे हैं. वहीं उसे वो सफेद कपड़े पहने आकृतियां भी दिखी. वो लोग भी खुश थे. मुन्नू जल्दी से जल्दी अपनी मां के पास पहुंचना चाहता था. लेकिन इतनी भीड़ से घिरा होने के कारण उसका घर पहुंचना लगभग मुश्किल था. उसे पसीना आ गया.वो रोने लगा. …तभी उसकी आंख खुल गयी. सामने माँ खड़ी थी.
उसे थोड़ा आराम मिला…पर उसके कानों में अभी भी शोर गूँज रहा था.. “चैक दे ..चैक दे.. इंडिया” ..
मुन्नु बेटा सच का तो कुछ नहीं कर सकते वह तो जैसा है वैसा है ही पर कम से कम सपने तो अच्छे लिया करों
बड़ी गड्ड-मड्ड वैल्यूज हो गयी हैं. पहले मीडिया या बाजार नाम के तत्व नहीं थे लक्ष्य या रोल माडल बनाने में. केवल कुछ ही बच्चे बहक कर बम्बई जाते थे हीरो बनने. पर अब तो बल्ला पकड़ते ही शोहरत के ख्वाब दीखते हैं और पिताजी पढ़ने को कहते हैं.
बेचारा मुन्नू….
बन्धु, यह ह्यूमर नहीं, गहन सोच की पोस्ट है. लेबल भ्रामक है!
काकेश जी,
बहुत तीक्ष्ण नजर है आपकी, करारा व्यंग्य है.इसे समझने के लिये बुद्धि चाहिए.आप लगे रहिये. टिप्पणीयों की परवाह ना करें.
बहुत बेहतरीन व्यंग्य है. जारी रहो.