मैं एक महीने से भी ज्यादा सक्रिय ब्लॉगिंग से दूर रहा. उसके बाद आया तो सोचा कि हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में ना सोच/लिख कर केवल अपनी बात ही लिखुंगा.लेकिन कुछ बातें हैं जो दिमाग में उमड़ घुमड़ रही हैं. सोचा लिख ही डालूं.
पिछ्ले आठ नौ महीने में हिन्दी चिट्ठाजगत में कई परिवर्तन हुए हैं.मेरे विचार से इन परिवर्तनों की रफ्तार उन सभी परिवर्तनों से कहीं ज्यादा है जो हिन्दी चिट्ठाकारी में पिछ्ले तीन चार सालों से हो रहे है. आज हमारे पास नये ऎग्रीगेटर हैं, पोस्ट भी चटपट ऎग्रीगेटरों पर आ जाती हैं,किसी को गरियाना नहीं पड़ता 🙂 . एक हजार से ज्यादा चिट्ठाकार हैं जिनमें सक्रिय चिट्ठाकारों की संख्या भी पहले से ज्यादा हुई. आपकी पोस्ट थोड़ी देर में ऎग्रीगेटरों के पहले पन्ने से गायब हो जाती है.चिट्ठाकार मिलन भी पिछ्ले कुछ समय से ज्यादा ही हो रहे हैं.हर कोई अपना अलग मीट पका रहा है. लेकिन एक आम चिट्ठाकार को इससे क्या फायदा हुआ? क्या उसके पाठक बढ़े हैं?क्या उसके चिट्ठे पर टिप्पणीयां बढ़ी हैं?क्या टिप्पणीयों के माध्यम से आपस में विमर्श बढ़ा है?
मैं खुद के चिट्ठे पर जितना देख रहा हूँ या दूसरों के चिट्ठों पर टिप्पणीयों की संख्या देख कर अनुमान लगा रहा हूँ..मुझे तो हिट और टिप्पणीयों की संख्या में कमी होती ही जान पड़ती है.कुछ धुरंधरों जैसे फुरसतिया जी या समीर जी को टिप्पणीयों के मामले में अपवाद मान लें और सारथी जी को हिट्स के मामले में तो कमोबेश यही कहानी है. ऎसा नहीं है कि हिन्दी में स्तरीय नहीं लिखा जा रहा लेकिन हम सब (मैं भी) पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं. हम अक्सर उन्ही चिट्ठों पर जाना पसंद करते हैं जिन्हे हम जानते हैं..भले ही केवल ब्लॉग से ही जानते हों. ऎसे में जो नये चिट्ठाकार अच्छा लिख रहे हैं क्या उनको पढना और प्रोत्साहित करना जरूरी नहीं हैं.
मुझे लगता है कि हिन्दी चिट्ठाकारी में भी परोक्ष गुट हैं या बनते जा रहे हैं.ऎसे में सब अपने अपने गुट के चिट्ठाकारों को ही पढ़ना और वहीं टिपियाना पसंद करते हैं. चिट्ठाकारी मुद्दों और मन की भावना को उठाने का मंच नहीं,सलेक्टेड टार्गेट ऑडियंस तक अपनी बात पहुंचाने का माध्यम रह गया है. सबकी अपनी अपनी दुकान है और अपने अपने ग़्राहक. मैं यह नहीं कह रहा कि ये गलत है या सही है..लेकिन ऎसा होता जा रहा है. ऎसे में क्या हिन्दी चिट्ठाकारी सच में कुछ कर पायेगी? क्या जो लोग चिट्ठाकारी को वैब पत्रकारिता, वैकल्पिक पत्रकारिता या फिर नये मुद्दों पर विमर्श का माध्यम मानते हैं उनके सपने पूरे हो पायेंगे.
क्या ये सही है? मैं नहीं जानता..पर जानना जरूर चाहता हूँ…आप कुछ सहायता करेंगे?
मुझे लगता है कि हिन्दी चिट्ठाकारी में भी परोक्ष गुट हैं या बनते जा रहे हैं.ऎसे में सब अपने अपने गुट के चिट्ठाकारों को ही पढ़ना और वहीं टिपियाना पसंद करते हैं.
———————————
गुट हैं. काफी हद तक आत्म मुग्ध, फूहड़ और निर्दय. कुछ कुटिल भी हैं. पर हिन्दी ब्लॉगरी गुट से ही बढ़ती – चलती है. मैने यही देखा है.
पर इसमें अटपटा क्या है. आम जीवन भी तो ऐसा ही है.
फिलहाल हमें आपके ही गुट का या आपकी दुकान का ग्राहक मान लें 🙂
वैसे मैं तो शीर्षक और एग्रीग्रेटर पर पहला पैरा देख कर चिठ्ठा पढ़ता हूँ, लिखने वाला भले ही कोई हो। हाँ यह बात आपकी सही है कि टिप्प्णीयों की संख्या घटी है। मैं भी इस मामले में कुछ आलसी सा हो गया हूँ, चिठ्था पढ़ तो लेता हूँ पर टिप्प्णी करते समय आलस आ जाता है।
चिट्ठाकारी बुरी दुनिया में बसा अच्छा मरुद्यान नहीं हो सकता। इसलिए भले ही आप सही कह रहे हैं पर इससे निराश होने की कोई वजह नहीं है
तो बात साफ हो गयी कि निर्गुट आंदोलन चिट्ठाकारी में भी सफल नहीं हो सकता. अन्य विधाओं की तरह.
कुछ चीजे होती हैं जो समय से साथ ख़ुद घटित होती हैं, हमारा बस नही चलता. चिठे बढ़ रहे हैं अच्छी बात है लोगो को कमेंट भी मिल रहे हैं अगर वो लगातार अच्छा लिखते हैं तो. और न भी मिले तो निराश हताश न हो. ब्लॉग कमेंट के लिए नही अपनी बात बस कहने के लिए लिखा जाता है. और काकेश जी आप को तो इसकी चिन्ता एक दम नही होनी चाहिए आपको तो कमेंट, हित सब कुछ मिलता है 🙂
धन्यवाद सभी का.
@ ज्ञान जी , मसीजीवीजी , संजय जी : गुट तो रहेंगे ही और ये मालूम भी है.क्योंकि जैसा की मसिजीवी जी ने कहा ..चिट्ठों की दुनिया हमारी दुनिया से अलग नहीं हो सकती.. बस ये है कि हम इस मुगालते में ना रहें कि गुट है नहीं.यदि है तो मान लेने में कोई हर्ज नहीं है.
@राजेश जी : आप जैसे पाठक रहेंगे तो हिट और कमेंट की चिंता शायद मुझे नहीं करनी पड़ेगी. धन्यवाद. लेकिन मेरी चिंता उनके लिये है जो अभी हिन्दी में लिखना शुरु कर रहे हैं और वो ये ना मान लें कि हिन्दी में हिट होने का तरीका अच्छा लेखन नहीं बल्कि इधर उधर का कुछ भी छाप देना मात्र है.
काकेश भाई
आप नाहक ही जल्द परेशान हो उठे हैं ऐसा लगता है.
आप जैसे एक सिद्धहस्थ लेखक, ऊँची और सार्थक सोच के मालिक, उम्दा व्यंग्य की क्षमता रखने वाले, मंजे हुए चिट्ठाकार जब इस तरह से सोचने लगें तो चिंता होने लगती है.
कहाँ आपको गुट दिखने लग गये इस छोटे से परिवार में?
नये, पुराने सभी को प्रोत्साहन चाहिये. बिना उसके कुछ कर अगर असंभव नहीं तो मुश्किल तो जरुर है. आप तो बस सबको प्रोत्साहित करते चलें अपनी लेखनी से, टिप्पणियों से. बाकि सब अपने आप होता रहेगा.
अगर आपको अपने हिट्स कम होते दिख रहे हैं तो उखाड़ फेंकिये ऐसे हिट काउन्टर को. शायद उसी में कुछ खामी होगी. दूसरा लगाईये.
हम तो बस पलक पावड़े बिछाये आपके अगले उत्साही लेख की प्रतिक्षा में हैं.
अनेकों शुभकामनायें.
जब हिन्दी के चिट्ठाकार हजारों में पहुँच जाएँगे तो अपने-आप परिवर्तन आएगा। तब लोग एग्रीगेटरों की बजाय सर्चइंजनों की मदद से अपने मनपसंद लेख और चिट्ठे खोजेंगे। वह दिन होगा जब हिन्दी चिट्ठों को भी अंग्रेजी की तरह हजारों हिट्स मिलेंगी।
बस उस दिन का इंतजार कीजिए, हम भी कर रहे हैं। 🙂
भईया, काकेशजी ये ब्लागजगत कहीं मंगल ग्रह से नहीं आया है। इस दुनिया का हिस्सा है, गुट,चिरकुट, चरकुट, जैसे सब जगह हैं, वईसे ही यहां होंगे। पर मैं सिर्फ एक बात जानता हूं और मानता हूं अगर अपने लिखे में दम है, तो पहचान मिलने में देर हो सकती है, पर पहचान ना मिले, अईसा नहीं हो सकता। चाहे ब्लाग पर लिखें, या अखबार में। सूरज को कोई हथेली से नहीं ढक सकता, ठीक वैसे ही अच्छे लेखन को कोई पहचान से वंचित नहीं कर सकता।
गुट् कोई साथ् लेकर ब्लागिंग की शुरुआत नहीं करता। यहीं अपनी पसंद् के चिट्ठे लोग् छांट लेते हैं और पढ़ते-टिपियाते हैं। जैसा आलोक पुराणिक ने बताया कि हम् जैसे होंगे वैसे हमारे ब्लाग होंगे। चिट्ठे बढ़ने के साथ टिप्पणियां कम् हुई हैं क्योंकि लोगों के पढ़ने और टिपियाने की क्षमतायें सीमित हैं। यह भी संयोग ही है कि अभी जो ब्लागर है वही पाठक भी। जब् पाठक बढ़ें तब् शायद वाह-वाह करने वाले भी बढ़ेंगे। गुटबाजी सहज स्वाभाविक मानव् स्वभाव है। हम् आपसे एकबार् मिले। अब् आपका यह् लेख चार् दिन बाद बांच् रहे हैं। तो लेखन के अलावा कहीं न् कहीं गुटबाजी तो है ही न्! हमारी -आपकी! है कि नहीं ? 🙂
फायदा तो हुआ है, इसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहियें। इस फायदे को लोग अलग-अलग तरह से ले सकते हैं। जैसे यह लिखने के लिये एक बेहतर प्लेटफार्म है। आपका लिखा फौरन लाखों लोगों तक पहुंच जाता है। जहां तक गुट का संबंध है तो जब कोई ब्लाग आपको अच्छा लगता है तो आप नियमित उस पर जाना शुरू कर देते हैं। टिप्पणी भी करते हैं। इसे गुटबाजी की तरह नहीं लेना चाहिये, बल्कि कोशिश तो यह होनी चाहिये कि ये गुट निरंतर बड़े होते रहें ताकि उनका लिखा ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके। कई लोगों के पास इतना समय नहीं होता कि वो नियमित अखबार या पत्रिका के लिये लिख सकें। वहां स्वीकृति-अस्विकृति का भी पंगा होता है। लिहाजा कई बार नये लेखक हतोत्साहित भी हो जाते हैं। यहां ऐसा नहीं है। लोग लगातार लिखने के लिये प्रेरित होते हैं। यही इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती है।