“गिरीश तिवारी जी” अर्थात गिरदा पर ना जाने कब से लिखना चाहता था.लेकिन समय ही नहीं मिल पा रहा था. शाम को जब युनुस भाई की पोस्ट पर फैज की रचना का जिक्र सुना तो अपना खजाना देखा कि यह रचना तो मेरे पास थी ही और वह भी ‘गिरदा’ की आवाज में. ‘गिरदा’ ने यह रचना पिछ्ले साल दिल्ली में एक कार्यक्रम में गाई थी और सौभाग्य से उस कार्यक्रम में मैं भी शामिल था. मैने तब वह रचना रिकॉर्ड कर ली थी. उसे सहेज कर तो रखा था कि गिरदा पर पूरी एक श्रंखला के लिये लेकिन आज युनुस भाई ने जब अपनी पोस्ट डाली तो मुझे लगा कि मुझे इसे डाल देना चाहिये.
तो लीजिये पेश है गिरदा की आवाज में फैज की रचना जिसे गिरदा ने हिन्दी और कुमांऊनी दोनों में गाया है.
हिन्दी में
हम मैहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं,एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.
यहां पर्वत पर्वत हीरे हैं, यहां सागर सागर मोती हैं,
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे
जो खून बहे, जो बाग उजड़े, जो गीत दिलों में कत्ल हुए,
हर कतरे का,हर गूंचे का,हर ईंट का बदला मांगेगे
हम मैहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं,एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे.
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कुमांऊनी में
हम ओढ़, बारुड़ी,ल्वार, कुल्ली-कफाड़ी,जै दिन यो दुनी धैं हिसाब ल्यूंलो,
एक हांग नि मांगूं, एक भांग नि मांगू, सब खसरा खतौनी किताब ल्यूंलो.
यां डाना काना हीरा हरया छ्न,यां गाढ़ गध्यारा मोत्यूं भरया छ्न,
यो माल खजान सब हमरै तो छू, हम एक एक पाई को हिसाब ल्यूंलो
जो ल्वै को सिखा जो मौकु गुजरी, जौ मन सुकू मन मे कतल भईं
हर ल्वै को तोपक, हर धुरि को ढुंगक, हर एक कतल को जबाब ल्यूंलों
हम ओढ़, बारुड़ी,ल्वार, कुल्ली-कफाड़ी,जै दिन यो दुनी धैं हिसाब ल्यूंलो,
एक हांग नि मांगूं, एक भांग नि मांगू, सब खसरा खतौनी किताब ल्यूंलो.
कैसी लगी यह रचना मज़दूर दिवस पर टिप्पणी द्वारा बतायें.
जबर्दस्त. एक समय हम भी अपनी मीटिंगों मे इसे गाया करते थे.
रचना बहुत बढ़िया लगी. और हिन्दी एवं कुमांउनी में मिक्स करके सुनना एक अद्भुत अनुभव रहा. आभार इसे पेश करने का.
वाह वाह वाह वाह वाह ।
बहुत बहुत शुक्रिया ।
नेट सर्च में गिरदा बहुत आ रहा था ।
फिर अपन को कुमाऊंनी समझ नहीं आती ।
इसलिए सुनने का कष्ट नहीं किया ।
दिल खुश हो गया काकेश जी ।
सुंदर प्रस्तुति ।
excellent…presented on labour day…great
बहुत अच्छी मेहनतकश पोस्ट। धन्यवाद।
मेहनत की इज्जत हमारे समाज में उत्तरोत्त्र कम हो रही है। बदलाव चाहिये।
बहुत खूब। जबरदस्त।
बहुत सुंदर
पर अब जमाना
हर घूस मे हिस्सा मागेंगे
का है जी ,तबी कुछ हाथ आयेगा
काकेश भाई , धन्यवाद ।
मैंने इस क्रान्ति गीत को कर्नाटक दलित संघर्ष समिति की टीम से कन्नड़ और हिन्दी में सुना है ।
गिरदा का जवाब नहीं. मैने भी द्वाराहाट में गिरदा के मुख से यह रचना सुनी है…
इस ओजस्वी कविता को मई दिवस पर सुनाने के लिये आपका धन्यवाद!
काकेश जी,
तरक्की के नए तराने लिखते इस ज़माने ने मेहनतकशों को जैसे भुला दिया है। ऑफिस में लाखों कमाने की ख्वाहिश ने खेतों से हमारा नाता तोड़ दिया है। शरीर की मेहनत वाले अब जाहिल की गिनती में आने लगे हैं। एक रस्म ही सही, कम से कम मजदूर दिवस पर उनको याद करें, येही बहुत होगा।
एक अनुरोध सभी से……..
जिस तरह से ऑफिस के बाबु को काम के धन्यवाद देते हैं, कृपया अपने दरबान, ऑटो चालक, धोबी, सब्जी वाला और अनगिनत ऐसे ही लोगों को कम से कम मुहं से ही धन्यवाद ज़रूर दें। उन्हें अच्छा लगेगा, उन्हें अपने काम पर गर्व होगा और आपका एक भी पैसा खर्च नही होगा।
वाह कौमरेड!
उत्तराखण्ड के जनकवि श्री गिरीश तिवाड़ी “गिर्दा” की इस रचना पाडकास्ट पर सुनकर बहुत अच्छा लगा।
बहुत अच्छा लगा।
kakesh jee,
mail bahut dino se aapki katrane pad raha huan. mughe kaphi achha laga ki aap pahad ke bare main bhi likhte hain.
shanker singh
journalist
Excellent theame .excellent emotions.excellent thinking about one world and one nation.