तिरे कूचे से हम निकले

तिरे कूचे से हम निकले : हंगामे के बाद किसी को मेहमान शायरों का होश न था। जिसके, जहां सींग समाये वहीं चला गया और जो ख़ुद इस लायक़ न था उसे दूसरे अपने सींगों पर उठा ले गये। कुछ रात की हड़बोंग की शर्मिन्दगी, कुछ रुपया न होने के कारण अव्यवस्था, बिशारत इस लायक़ न रहे कि शायरों को मुंह दिखा सकें। मौली मज्जन के दिये दस रुपये कभी के चटनी हो चुके थे बल्कि वो अपनी जेब के बहत्तर रुपये ख़र्च कर चुके थे और अब इतनी क्षमता न थी कि शायरों को वापसी का टिकिट दिलवा सकें। मुंह पर अंगोछा डाल कर छुपते छुपाते धार्मिक-शिक्षा टीचर के ख़ाली घर में गये। वेलेजली उनके साथ लगा था। ताला तोड़ कर घर में घुसे और दिन भर मुंह छुपाये पड़े रहे। तीसरे पहर वेलेजली को जंजीर उतार कर बाहर कर दिया कि बेटा जा, आज ख़ुद ही घूम आ। बिफरे हुए कानपुर के शायरों का झुण्ड उनकी तलाश में घर-घर झांकता फिरा, आख़िर थक हार-कर पैदल स्टेशन के लिये रवाना हुआ। सौ-दौ सौ क़दम चले होंगे कि लोग साथ आते गये और बाक़ायदा जुलूस बन गया। क़स्बे के तमाम अधनंगे बच्चे, एक पूरा नंगा पागल, म्यूनिस्पिल बोर्ड की हद में काटने वाले तमाम कुत्ते उन्हें स्टेशन छोड़ने गये। जुलूस के आख़िर में एक साधू भभूत रमाये, भंग पिये और तीन कटखनी बत्तख़ें भी अकड़े हुई फ़ौजियों की Ceremonial चाल यानी अपनी ही चाल…Goose Step ……में चलती हुई साथ थीं। रास्ते में घरों में आटा गूंधती, सानी बनाती, रोते हुए बच्चे का मुंह दूध के ग्लैंड से बंद करती और लिपाई-पुताई करती औरतें अपना-अपना काम छोड़कर, सने हुए हाथों के तोते से बनाये जुलूस देखने खड़ी हो गईं। एक बंदर वाला भी अपने बंदर और बंदरिया की रस्सी पकड़े ये तमाशा देखने खड़ा हो गया। बंदर और लड़के बार-बार तरह-तरह के मुंह बनाकर एक दूसरे पर खोंखियाते हुए लपकते थे। ये कहना मुश्किल था कि कौन किसकी नक़ल उतार रहा है।

आते वक़्त जिन शायरों ने इस बात पर नाक-भौं चढ़ाई थी कि बैलगाड़ी में लाद कर लाया गया, अब इस बात से नाराज थे कि पैदल खदेड़े गये। चलती ट्रेन में चढ़ते वक़्त हैरत कानपुरी एक क़ुली से ये कह गये कि उस कमीन (बिशारत) से कह देना, जरा धीरजगंज से बाहर निकले, तुझसे कानपुर में निमट लेंगे। सब शायरों ने अपनी जेब से वापसी के टिकिट ख़रीदे, सिवाय उस शायर के जो अपने साथ पांच मिसरे उठाने वाला लाया था। ये साहब अपने मिसरा उठाने वालों समेत आधे रास्ते में ही बिना टिकिट सफ़र करने के जुर्म में उतार लिये गये। प्लेटफार्म पर कुछ दर्दमंद मुसलमानों ने चंदा करके टिकिटचेकर को रिश्वत दी तब कहीं जा के छुटे। टिकिटचेकर मुसलमान था वरना कोई और होता तो छहों के हथकड़ी डलवा देता।

बात एक रात की : सिर्फ़ बेइज्जत हुए शायर ही नहीं, कानपुर की सारी शायर बिरादरी बिशारत के ख़ून की प्यासी थी। उन शायरों ने बिशारत के ख़िलाफ़ इतना प्रोपेगंडा किया कि कुछ गद्य लेखक भी इनको कच्चा चबा जाने के लिये तैयार बैठे थे। कानपुर में हर जगह इस मुशायरे के चर्चे थे। धीरजगंज जाने वाले शायरों ने अपनी जिल्लत और परेशानी की दास्तानें बढ़ा-चढ़ाकर बयान कीं। वो अगर सच नहीं भी थीं तो सुनने वाले दिल से चाहते थे कि ख़ुदा करे सच हों कि वो इसी लायक़ थे।लोग कुरेद कुरेद के विस्तार से सुनते थे। एक शिकायत हो तो बयान करें अब खाने को ही लीजिये, हर शायर को शिकायत थी कि रात का खाना हमें दिन दहाड़े चार बजे उसी किसान के यहां खिलाया गया जिसके यहां सुलाया गया। ज़ाहिर है किसान ने अलग किस्म का खाना खिलाया, चुनांचे जितनी किस्म के खाने थे उतनी ही किस्म की पेट की बीमारियों में शायरों ने खुद को उलझा पाया।हैरत कानपुरी ने शिकायत की कि मैने नहाने के लिये गर्म पानी मांगा तो चौधराइन बे घूंघट उठा कर मुझे सबसे पास के कुंए का रास्ता बता दिया और ये भरोसा दिलाया कि उसमें से गर्मियों में ठंडा और सर्दियों में गर्म पानी निकलता है।चौधरी ने तो नहाने का कारण भी जानना चाहा और जब मैने नहाये बगैर अचकन पहन ली और मुशायरे में जाने लगा तो चौधरी ने मेरी गोद मे दो महीने का नंग धड़ंग बेटा दे कर जबरदस्ती पुष्टि करनी चाही कि नवजात अपने बाप पर गया है। मेरा क्या जाता था मैने कह दिया हाँ और बड़े प्यार से बच्चे के सर पर हाथ फेरा जिससे बैचेन होके उसने मेरी अचकलन पे पेशाब कर दिया। उसी अचकन को पहने पहने मैने लोकल शायरों को गले लगाया।

फिर कहा कि बन्दा आबरू हथेली पर रखे एक बजे मुशायरे से लौटा। तीन बजे तक चारपायी के ऊपर खटमल और नीचे चूहे कुलेले करते रहे। तीन बजते ही घर में “सुबह हो – सुबह हो गयी “ का शोर मच गया। और ये शिकायत तो सबने की कि चार बजे हमें झिंझोड़-झिंझोड़ कर उठाया और एक एक लोटा हाथ में पकड़ा के झड़बेरी की झाड़ियों के पीछे भेज दिया।

कुछ ने शिकायत की हमें “ठोस” नाश्ता नहीं दिया गया। निहार मुँह फुट भर लम्बे गिलास में छाछ पिलाकर विदा कर दिया। एक साहब कहने लगे कि उनकी खाट के पाये से बंधी हुई एक बकरी सारी रात मींगनी करती रही। मुँह अन्धेरे उसका दूध दूह कर उन्हे पेश कर दिया गया। उनका ख़्याल था कि ये सुलुक तो कोई बकरी भी बर्दास्त नहीं कर सकती। ख़रोश शाहजहांपुरी ने कहा कि उनके सिरहाने रात के ढाई बजे से चक्की चलनी शुरु हो गयी। चक्की पीसने वाली दोनों लड़कियां हँस हँस कर जो गीत गा रही थी वो देवर-भावज और नंदोई-सलहज की छेड़छाड़ से संबंधित था, जिससे उनकी नींद और नीयत दोनों में खलल पड़ा। एज़ाज अमरोही ने कहा कि भांति भांति के परिन्दों ने सुबह चार बजे से ही शोर मचाना शुरु कर दिया। ऐसे में कोई भी शरीफ आदमी सो नहीं सकता। मजज़ूब मथरावी की शिकायत थी कि उन्हे कच्चे सहन में जामुन के पेड़ तले मच्छरों की छांव में सुलाया गया। पुरवा के हर चैन देने वाले झोंके कि साथ रात भर उनके सर जामुनें टपकती रहीं। सुबह उठकर उन्होने शिकायत की तो मकान मालिक के मैट्रिक फेल लौंडे ने कहा, ग़लत ! जामुनें नहीं , फलेंदे थे। मैने खुद लखनऊ वालों को फलेंदे कहते सुना है। मजज़ूब मथरावी के बयान के मुताबिक़ उनकी चारपायी के पास खूंटे से बंधी हुई भैस रात-भर डकराती रही। तडके उसने एक बच्चा दिया जो सीधा उनकी छाती पर आ गिरता , अगर वो कमाल की फुरती से बीच में ही कैच न लेते। शैदा जारचवी ने अपनी बेइज़्ज़ती में भी अनूठेपन और गर्व का पहलू निकाल लिया। उन्होने दावा किया कि जैसी बेमिसाल बेइज़्ज़ती उनकी हुई वैसी तो एशिया भर में कभी भी किसी शायर की नहीं हुई। राअना सीतापुरी ने शगुफ़ा छोड़ा कि जिस घर में मुझे सुलाया गया बल्कि रात-भर जगाया गया, उसमें जिद्दी बच्चा सारी रात मां के दूध और उसका बाप चर्चा के पहले विषय के लिये मचलता रहा। अख़गर कानपुरी बोले कि उनका किसान मेज़वान हर आध घंटे बाद उठ-उठकर उनसे पूछ्ता रहा कि “जनाबे-आली कोई तकलीफ़ तो नहीं, नींद तो ठीक आ रही है ना? “ हर शायर इस तरह शिकायत कर रहा था कि जैसे उसके साथ किसी व्यवस्थित षडयंत्र के तहत निजी ज़ुल्म हुआ है। हांलाकि हुआ-हवाया कुछ नहीं। हुआ सिर्फ ये कि उन शहरी शायरों ने देहात की ज़िन्दगी को पहली बार..और वो भी चंद घंटो के लिये …जरा करीब से देख लिया और बिलबिला उठे। उनपर पहली बार खुला कि शहर से सिर्फ़ चंद मील की ओट में इंसान कैसे जीते हैं और अब उनकी समझ में ये नहीं आ रहा था कि यही कुछ है तो किसलिये जीते हैं.

जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]

[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]

किताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

इस भाग की अन्य कड़ियां.

1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया 12. ज़लील करने के अलग अलग शेड 13.कुत्ते की तारीफ और मुशायरा 14. शायरों की खातिरदारी 15. इक्के का आविष्कार घोड़े ने किया 16.मुशायरे की तैयारी 17. तवायफ़ के किस्से 18. मूलगंज: तवायफों का जिक्र 19. और मुशायरा लुट गया 20. अजब-गजब मुशायरा

पहला भाग

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

5 comments

  1. दर असल हम गांव के लोग जब किसी की इज्जत अफ़जाई करते है तो उसका बहुत ध्यान रखते है,जब अनूप जी दिल्ली आये थे,तो हम भी सारी रात जाग कर हर आधे घंटॆ बाद उनको फ़ोन कर कर के पूछते रहे ,कि नीद आ गई ना कोई दिक्कत हो तो बताये हम आ जाते है, भाइ गर दिक्कत रात मे हिती और हम सुबह पूछते तो कोई मतलब नही था ना पूछने का ,अब अगर उन्हे फ़ोन से पूछने का बुरा लगा हो तो माफ़ी चाहते है अगली बार सिरहाने बैठ कर पूछते रहेगे जी 🙂

  2. धनयवाद!!
    अब कीस लीये धनयवाद दीया यह मै कैसे बताऊं

    आप हिन्दी बहूत अच्छा लीख लेते हैं। अब मै भी हिन्दी का ट्रेनींग ले लेता हूं।

    🙂 ज्लदी सीखा दीजीयेगा।

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