तो ख़ुदा आपका भला करे और मुझे माफ करे… मूलगंज रंडियों का चकला था।उस जमाने में भी लोगों का चाल-चलन इतना ही ख़राब था,जितना अब है। मगर निगाह अभी उतनी ख़राब नहीं हुई थी कि तवायफ़ों को बस्ती को आजकल की तरह ‘बाजारे हुस्न’ कहने लगें। चकले को चकला ही कहते थे।
दुनिया में कहीं और बदसूरत रंडियों के कोठों और बेडौल , विहंगम जिस्म के साथ यौन रोग बेचने वालियों की चीकट कोठरियों को इस तरह ग्लैमराइज़ नहीं किया गया।‘ बाजारे हुस्न’ की रोमांटिक उपमा आगे चलकर उन साहित्यकारों ने प्रचलित की जो कभी तुरंत उपलब्ध होने वाली औरतों की बकरमंडी के पास भी नहीं गुजरे थे , लेकिन निजी तजरुबा इतना आवश्यक भी नहीं। ‘रियाज खैराबादी’ सारी उम्र शराब की तारीफ़ में शेर कहते रहे , जब कि उनकी तरल पदार्थों की बदपरहेज़ी कभी शरबत और सिकंजी से आगे नहीं बढ़ी। दूर क्यों जायें , खुद हमारे शायर मक़तल , फांसी घाट,ज़ल्लाद और रस्सी के बारे में ललचाने वाली बातें करते रहे हैं। इसके लिये फांसी पे झुला होना जुरुरी नहीं।
ऐश की दाद देने और रात की गलियों में चक्कर लगाने की हिम्मत या ताकत न हो तो “हवस सीनों में छुप-छुप कर बना लेती है तस्वीरें” और सच तो ये है कि ऐसी ही तसवीरों के रंग जियादा चोखे और लकीरें जियादा दिलकश होती हैं। क्यों? केवल इसलिये कि ख़याली होती हैं। अजंता और ऐलोरा की गुफाओं के Frescos ( भित्ति-चित्र) और मूर्तियां इसके क्लासिक उदाहरण हैं। कैसे भरे पूरे बदन बनायें हैं बनाने वालों ने,और बनाने पर आये तो बनाते ही चले गये। मांसल मुर्ति बनाने चले तो हर Sensuous लकीर बल खाती,गदराती चली गयी। सीधी सादी लकीरें आपको मुश्किल से दिखायी पड़ेंगी। हद ये कि नाक तक सीधी नहीं। भारी बदन की इन औरतों और अप्सराओं की मूर्तियां अपने मूर्तिकार के विचारों की चुगली खाती हैं। नारंगी के फांक जैसे होंठ। बर्दाश्त से ज़ियादा भरी भरी छातियां जो खुद मूर्तिकार से भी संभाले नहीं संभलती।बाहर को निकलते हुए भारी कूल्हे, जिन पर गागर रख दें तो हर कदम पर पानी, देखने वालों के दिल की तरह उछ्लता चला जाये। उन गोलाइयों के खमों के बीच बलखाती कमर और जैसे ज्वारा भाटे के पीछे हटती लहर, फिर वो टांगे जिनकी उपमा के लिये संस्कृत शायर को केले के तने का सहारा लेना पड़ा। इस मिलन से अपरिचित और अनुपलब्ध बदन को और उसकी इच्छा की सीमा तक Exaggerated लकीरों और खुल-खेलते उभारों को उन तरसे हुए ब्रह्मचारियों और भिक्षुओं ने बनाया और बनवाया है जिन पर भोग-विलास वर्जित था और जिन्होने औरतों को सिर्फ फ़ैंटेसी और सपने में देखा था और जब कभी सपने में वो इतने करीब आ जाती कि उसके बदन की आंच से अपने लहू में अलाव भड़क उठता तो फौरन आंख खुल जाती और वो हथेली से आंखें मलते हुए पथरीली चट्टानों पर अपने सपने लिखने शुरु कर देते।
मुशायरा किसने लूटा : जौहर इलाहाबादी, काशिफ़ कानपुरी और नुशुर वाहिदी को छोड़कर बाक़ी स्थानीय और बाहरी शायरों को काव्य पाठ में आगे-पीछे पढ़वाने का मसअला बड़ा टेढ़ा निकला, क्योंकि सभी एक-दूसरे के बराबर थे और ऐसी बराबर की टक्कर थी कि यह कहना मुश्किल था कि उनमें कम बुरे शेर कौन कहता है ताकि उसको बाद में पढ़वाया जाये। इस समस्या का हल यह निकाला गया कि शायरों को अक्षरक्रम के उल्टी तरफ़ से पढ़वाया गया यानी पहले यावर नगीनवी को अपनी हूटिंग करवाने की दावत दी गई। अक्षरक्रम के सीधी तरफ़ से पढ़वाने में ये मुश्किल थी उनके उस्ताद जौहर इलाहाबादी को उनसे भी पहले पढ़ना पड़ता।
मुशायरा स्थल पर एक अजब हड़बोंग मची थी। उम्मीद के विपरीत आस-पास के देहात से लोग झुण्डों में आये। दरियां और पानी कम पड़ गया। सुनने में आया कि मौली मज्जन के दुश्मनों ने ये अफ़वाह फैलायी कि मुशायरा खत्म होने के बाद लड्डुओं, खजूर का प्रसाद और मलेरिया तथा रानीखेत (मुर्गियों की बीमारी) की दवा की पुड़ियां बटेंगी। एक देहाती अपनी दस बारह मुर्गियां झाबे में डाल के लेकर आया था कि सुब्ह तक बचने की उम्मीद नहीं थी। इसी तरह एक किसान अपनी जवान भैंस को नहला धुला कर बड़ी उम्मीदों से साथ लाया था, उसके कट्टे ही कट्टे होते थे, मादा बच्चा नहीं होता था। उसे किसी ने ख़बर दी थी कि शायरों के मेले में तवायफ़ों वाले हकीम अहसानुल्लाह ‘तस्लीम’ आने वाले हैं। श्रोताओं की बहुसंख्या ऐसी थी जिन्होंने इससे पहले मुशायरा और शायर नहीं देखे थे।
मुशायरा ख़ासी देर से यानी दस बजे शुरू हुआ, जो देहात में दो बजे रात के बराबर होते हैं। जो नौजवान वॉलंटियर रौशनी के इंतिजाम के इंचार्ज थे, उन्होंने मारे जोश के छह बजे ही गैस की लालटेनें जला दीं जो नौ बजे तक अपनी बहारें दिखा कर बुझ गयीं। उनमें दोबारा तेल और हवा भरने और काम के दौरान आवारा लौंडों को उनकी शरारत और जुरूरत के मुताबिक़ बड़ी, और बड़ी गावदुम गाली देकर परे हटाने में एक घंटा लग गया। तहसीलदार को उसी दिन कलैक्टर ने बुला लिया था। उसकी अनुपस्थिति से लौंडों-लहाड़ियों को और शह मिली। रात के बारह बजे तक कुल सत्ताईस शायरों का भुगतान हुआ। मुशायरे के अध्यक्ष मौली मज्जन को किसी जालिम ने दाद का अनोखा तरीक़ा सिखाया था। वो वाह वाह! कहने के बजाय हर शेर पर मुकर्रर इरशाद (दुबारा पढ़िये) कहते थे, नतीजा सत्ताईस शायर चव्वन के बराबर हो गये। हूटिंग भी दो से गुणा हो गई। क़ादिर बाराबंकवी के तो पहले शेर पर ही श्रोताओं ने तम्बू सर पर उठा लिया। वो परेशान हो कर कहने लगा, “हजरात! सुनिये तो! शेर पढ़ा है, गाली तो नहीं दी।’’ इस पर श्रोता और बेक़ाबू हो गये, मगर उसने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि एक शख़्स से बीड़ी मांग कर बड़े इत्मीनान से सुलगा ली और ऊंची आवाज में बोला, ‘‘आप हजरात को जरा चैन आये तो अगला शेर पढूं।” मिर्जा के अनुसार मुशायरों के इतिहास में यह पहला मुशायरा था जो श्रोताओं ने लूट लिया।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया 12. ज़लील करने के अलग अलग शेड 13.कुत्ते की तारीफ और मुशायरा 14. शायरों की खातिरदारी 15. इक्के का आविष्कार घोड़े ने किया 16.मुशायरे की तैयारी 17. तवायफ़ के किस्से 18. मूलगंज: तवायफों का जिक्र
क्या बात है जी सारे लेखको और तवायफ़ो पर बनी फ़िलमो की पोल् खोल दी ,खुजराओ भी घुमा दिया ,पर शेर के नाम पर गीदड तक के दर्शन नही कराये,
श्रोंताओं से लुटा मुशायरा.आनन्द आ गया. जारी रहें.
मस्त!!
ऐसे मुशायरे के बारे में पहली बार सुन रहे हैं आगे की कड़ी का इंतजार है