अरुण जी इस सिरीज पर नियमित टिपियाकर इसे जारी रखने का हौसला दे रहे हैं. वह पिछ्ले कई अंकों से मुशायरे के इंतजार में हैं.पिछ्ले अंक में उन्होने कहा “शेर के नाम पर गीदड तक के दर्शन नही कराये” . तो ज़नाब आज उनका और आपका भी इंतजार खत्म होता है.पेश है एक रोचक मुशायरा. आनंद लें.आनंद आये तो टिपिया दें बस.
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साग़र जालौनवी : रात के बारह बजे थे चारों ओर श्रोताओं की तूती बोल रही थी।मुशायरे के शोर से सहम कर गांव की सरहद पर गीदड़ों ने बोलना बन्द कर दिया था। एक स्थानीय शायर ख़ुद को हर शेर पर हूट करवा कर सर झुकाये जा रहा था कि एक साहब चांदनी पर चलते हुए मुशायरे के अध्यक्ष तक पहुंचे, दायें हाथ से आदाब किया और बायें हाथ से अपनी मटन-चाप मूंछ जो खिचड़ी हो चली थी, ताव देते रहे। उन्होंने प्रार्थना की कि मैं एक ग़रीब परदेसी हूं, मुझे भी शेर पढ़ने की इजाजत दी जाये। उन्होंने ख़बरदार किया कि अगर पढ़वाने में देर की गई तो उनका दर्जा ख़ुद-ब-ख़ुद ऊंचा होता चला जायेगा और वो उस्तादों से पहलू मारने लगेंगे। उन्हें इजाजत दे दी गयी। उन्होंने खड़े हो कर दर्शकों को दायें, बायें और सामने घूम कर तीन-बार आदाब किया। उनकी क्रीम रंग की अचकन इतनी लम्बी थी कि भरोसे से नहीं कहा जा सकता था कि उन्होंने पाजामा पहन रक्खा है या नहीं। काले मख़मल की टोपी को जो भीड़-भड़क्के में सीधी हो गई थी, उन्होंने उतार कर फूंक मारी और अधिक टेढ़े एंगिल से सर पर जमाया। मुशायरे के दौरान यह साहब छटी लाइन में बैठे अजीब अन्दाज से “ऐ सुब्हानल्ला-सुब्हानअल्ला” कह कर दाद दे रहे थे। जब सब ताली बजाना बन्द कर देते तो यह शुरू हो जाते और इस अन्दाज में बजाते जैसे रोटी पका रहे हैं। फ़र्शी आदाब करने के बाद वो अपनी डायरी लाने के लिये अचकन इस तरह ऊपर उठाये अपनी जगह पर वापस गये जैसे कुछ औरतें भरी बरसात और चुभती नजरों की सहती-सहती बौछारों में, सिर्फ़ इतने गहरे पानी से बचने के लिये जिसमें चींटी भी न डूब सके, अपने पांयचे दो-दो बालिश्त ऊपर उठाये चलती हैं और देखने वाले क़दम-क़दम पे दुआ करते हैं कि “इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे”।
अपनी जगह से उन्होंने अपनी डायरी उठाई, जो दरअस्ल स्कूल का एक पुराना हाजिरी रजिस्टर था जिसमें इम्तिहान की पुरानी कापियों के ख़ाली पन्नों पर लिखी हुई ग़जलें रखी थीं। उसे सीने से लगाये वो साहब वापस मुशायरे के अध्यक्ष के पास पहुंचे। हूटिंग किसी तरह बन्द होने का नाम ही नहीं लेती थी। ऐसी हूटिंग नहीं देखी कि शायर के आने से पहले और शायर के जाने के बाद भी जोरों से जारी रहे। अपनी जेबी घड़ी एक बार बैठने से पहले और बैठने के बाद ध्यान से देखी। फिर उसे डमरू की तरह हिलाया और कान लगा कर देखा कि अब भी बन्द है या धक्कमपेल से चल पड़ी है। जब फ़ुरसत पाई तो श्रोताओं से बोले, ‘‘हजरात! आपके चीख़ने से मेरे तो गले में ख़राश पड़ गई है।’’
इन साहब ने अध्यक्ष और श्रोताओं से कहा कि वे एक ख़ास कारण से ग़ैर-तरही ग़जल पढ़ने की इजाजत चाहते हैं, मगर कारण नहीं बताना चाहते। इस पर श्रोताओं ने शोर मचाया। हल्ला जियादा मचा तो उन साहब ने अपनी अचकन के बटन खोलते हुए ग़ैर-तरही ग़जल पढ़ने का यह कारण बताया कि मिसरा ‘तरह’ दिया गया है उसमें ‘सकता’ (छन्द दोष) पड़ता है, ‘मरज’ शब्द को ‘फ़र्ज’ के ढ़ंग पर बांधा गया है। श्रोताओं की आख़िरी पंक्ति से एक दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने उठ कर न सिर्फ़ सहमति व्यक्त की बल्कि ये चिंगारी भी छोड़ी कि अलिफ़ (आ की ध्वनि को अ बांधना) भी गिरता है।
यह सुनना था कि शायरों पर अलिफ़ ऐसे गिरा जैसे फ़ालिज गिरता है। सकते में आ गये। श्रोताओं ने आसमान, मिसरा-तरह और शायरों को अपने सींगों पर उठा लिया। एक हुल्लड़ मचा हुआ था। जौहर इलाहाबादी कुछ कहना चाहते थे मगर अब शायरों के कहने की बारी ख़त्म हो चुकी थी। फब्तियों, ठठ्ठों और गालियों के सिवा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। ऐसा स्थिति थी कि अगर उस समय जमीन फट जाती तो बिशारत स्वयं को, मय कानपुर के शायरों और मौलवी मज्जन को गावतकिये समेत उसमें समा जाने के लिये ख़ुशी से ऑफ़र कर देते।
उस एतराज करने वाले शायर ने अपना उपनाम साग़र जलौनवी बताया, लोग बड़ी देर से उकताये बैठे थे। साग़र जलौनवी के धमाकेदार एतराज से ऊंघते मुशायरे में जान ही नहीं, तूफ़ान आ गया। दो गैस की लालटेनों का तेल पन्द्रह मिनट पहले खत्म हो चुका था। कुछ में वक़्त पर हवा नहीं भरी गयी। वो फुस्स हो कर बुझ गईं। साग़र जलौनवी के एतराज के बाद किसी शरारती ने बाक़ी लालटेनों को झड़झड़ाया, जिससे उनके मेंटल झड़ गये और अंधेरा हो गया। अब मारपीट शुरू हुई, लेकिन ऐसा घुप्प अंधेरा था कि हाथ को शायर सुझायी नहीं दे रहा था इसलिये बेक़सूर श्रोता पिट रहे थे। इतने में किसी ने आवाज लगाई, भाइयो! हटो! भागो! बचो! रण्डियों वाले हकीम साहब की भैंस रस्सी तुड़ा गई है। यह सुनते ही घमासान की भगदड़ पड़ी। अंधेरी रात में काली भैंस तो किसी को दिखाई नहीं दी लेकिन लाठियों से लैस मगर घबराये हुए देहातियों ने एक दूसरे की, भैंस समझ कर ख़ूब धुनाई की। लेकिन आज तक यह समझ न आया कि चुराने वालों ने ऐसे घुप अंधेरे में नये जूते कैसे पहचान लिये और जूते की क्या, हर चीज जो चुरायी जा सकती थी चुरा ली गयी। पानों की चांदी की थाली, दर्जनों अंगोछे, साग़र जलौनवी की दुगनी साइज की अचकन, जिसके नीचे कुरता या बनियान नहीं था। एक जाजम, तमाम चांदनियां, यतीमख़ाने के चंदे की सन्दूक़ची, उसका फ़ौलादी ताला, यतीमख़ाने का काला बैनर, मुशायरे के अध्यक्ष का गाव-तकिया और आंखों पर लगा चश्मा, एक पटवारी के गले में लटकी हुई दांत कुरेदनी और कान का मैल निकालने की डोई, ख़्वाजा क़मरूद्दीन की जेब में पड़े आठ रुपये, इत्र में बसा रेशमी रूमाल और पड़ौसी की बीबी के नाम महकता ख़त (यही एक चीज थी जो दूसरे दिन बरामद हुई और इसकी नक़्ल घर-घर बंटी), हद ये कि कोई बदतमीज उनकी टांगों में फंसे चूड़ीदार का रेशमी नाड़ा एक ही झटके में खींचकर ले गया। एक शख़्स बुझा हुआ हंडा सर पर उठा के ले गया। माना कि अंधेरे में किसी ने सर पर ले जाते हुए तो नहीं देखा, मगर हंडा ले जाने का सिर्फ़ यही एक तरीक़ा था। बीमार मुर्ग़ियों के केवल कुछ पर पड़े रह गये। साग़र जलौनवी का बयान था कि
एक बदमाश ने उसकी मूंछ तक उखाड़ कर ले जाने की कोशिश की जिसे उसने अपनी चीख से नाकाम कर दिया। यानी इस बात की चिंता किये बिना कि उपयोगी है या नहीं, जिसका जिस चीज पर हाथ पड़ा उसे उठा कर, उतार कर, नोच कर, फाड़ कर, उखाड़ कर ले गया। हद यह कि तहसीलदार के पेशकार मुंशी बनवारी लाल माथुर के इस्तेमाल में आते डेंचर्स भी। केवल एक चीज ऐसी थी जिसे किसी ने हाथ नहीं लगाया। शायर अपनी डायरियां जिस जगह छोड़ कर भागे थे वो दूसरे दिन तक वहीं पड़ी रहीं।
बाहर से आये देहातियों ने यह समझकर कि शायद यह भी मुशायरे का हिस्सा है, मार-पीट और लूट-खसोट में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और बाद को बहुत दिन तक हर आये-गये से बड़े चाव से पूछते रहे कि अगला मुशायरा कब होगा।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया 12. ज़लील करने के अलग अलग शेड 13.कुत्ते की तारीफ और मुशायरा 14. शायरों की खातिरदारी 15. इक्के का आविष्कार घोड़े ने किया 16.मुशायरे की तैयारी 17. तवायफ़ के किस्से 18. मूलगंज: तवायफों का जिक्र 19. और मुशायरा लुट गया
शानदार!
Mushayra ho raha tha ya dangal, aise bade hunarmand log the.maza aa gayaa.
क्या कहें, मज़ा आ गया पढ़ के।
लाज़वाब, शानदार…
समझ मे नही आ रहा कि टिप्पणियो पर टिपियाये या मुसाहरो के मुशायरे पर ,चलो वो तो देहाती थे,पर ये पढे लिखे लोगो को अगर अनूप जी @ शानदार ,आलोक जी @मजा आ गया पढके लग रहा है तो फ़िर तो ये मुशायरा वाकई शानदार था,अनूप जी की एक मिटिंग मे तो हम भी गये थे,उसके अगले दिन देख चंडूखाना पर अनूप जी के टिप्पणि देख समझ भी लिया की अनूप जी को कैसे मजा आता है,पर आलोक जी ..लगता है अब उनके नौ दो ग्यारह पर कुछ करना पड़ेगा जी 😉
बेहतरीन
जबरदस्त!!