हवेली की पीड़ा कराची में

[किसी भी अच्छे व्यंग्य में करुणा का पुट लिये यथार्थ की झलक भी होती है.खोया पानी में भी यह प्रचुर मात्रा में है लेकिन यह करुणा ऎसी है जो हास्य से ही उपजती है. युसूफी साहब भी बीच बीच में कड़वा यथार्थ लेकर आये हैं जो हास्य की चाशनी में लिपटा हुआ है. आइये आज देखें हास्य मिश्रित करुणा की झलक.इसमें आपको जीवन की सच्चाईयां भी मिलेंगी और सहज हास्य भी. आपकी टिप्पणीयां ही इसको आगे चलाये रखने का संबल देंगी इसलिये कृपया टिपिया दें. ]  

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ये छोड़ कर आये हैं

कानपुर से उजड़ के कराची आये तो दुनिया ही और थी। अजनबी माहौल, बेरोज़गारी, सबसे बढ़कर बेघरी। अपनी पुरखों की हवेली के दस-बारह फ़ोटो खिंचवा लाये थे। ‘ज़रा यह साइड पोज़ देखिये, और यह शाट तो कमाल का है।’ हर आये-गये को फ़ोटो दिखा कर कहते ‘यह छोड़ कर आये हैं।’ जिन दफ्रतरों में मकान के एलॉटमेंट के प्रार्थना-पत्र दिये थे, उनके बड़े अफ़सरों को भी कटघरे के इस पार से तस्वीरी प्रमाण दिखाते ‘यह छोड़ कर आये हैं।’ वास्कट और शेरवानी की जेब में और कुछ हो या न हो, हवेली का फ़ोटो ज़ुरूर होता था। अस्ल में यह उनका विज़िटिंग-कार्ड था। कराची के फ्लैटों को कभी माचिस की डिब्बियां, कभी दड़बे, कभी काबुक कहते। लेकिन जब तीन महीने जूतियां चटख़ाने के बावजूद एक काबुक में भी सर छुपाने को जगह नहीं मिली तो आंखें खुलीं। दोस्तों ने समझाया ‘फ्लैट एक घंटे में मिल सकता है, कस्टोडियन की हथेली पर पैसा रखो और जिस फ्लैट की चाहो, चाबी ले लो।’ मगर क़िबला तो अपनी हथेली पर पैसा रखवाने के आदी थे, वो कहां मानते । महीनों फ्लैट एलॉट करवाने के सिलसिले में भूखे-प्यासे, परेशान-हाल सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते रहे। ज़िदगी भर किसी के मेहमान न रहे थे। अब बेटी-दामाद के यहां मेहमान रहने की तकलीफ़ भी सही।

‘अब क्या होएगा?’

इंसान जब किसी घुला-देने-वाली पीड़ा या परीक्षा से गुज़रता है तो एक-एक पल, एक-एक बरस बन जाता है और यूं लगता है जैसे। ‘हर बरस के हों दिन पचास हज़ार’

बेटी के घर टुकड़े तोड़ने या उस पर भार बनने की वो कल्पना भी नहीं कर सकते थे। कानपुर में कभी उसके यहां खड़े-खड़े एक गिलास पानी भी पीते तो हाथ पर पांच-दस रुपये रख देते। लेकिन अब ? सुब्ह सर झुकाये नाश्ता करके निकलते तो, दिन-भर ख़ाक छान-कर मग़रिब (सूरज डूबने के बाद की नमाज़) से ज़रा पहले लौटते। खाने के समय कह देते कि ईरानी होटल में खा आया हूं। जूते उन्होंने हमेशा रहीम बख़्श से बनवाये, इसलिए कि उसके बनाये हुए जूते चरचराते बहुत थे। इन जूतों के तले अब इतने घिस गये थे कि चरचराने के लायक़ न रहे। पैरों में ठेकें पड़ गयी, अचकनें ढीली हो गयीं। बीमार बीबी रात को दर्द से कराह भी नहीं सकती थी कि समधियाने वालों की नींद खराब होने का डर था। मलमल के कुर्ते की लखनवी कढ़ाई मैल में छुप गयी। चुन्नटें निकलने के बाद आस्तीनें उंगलियों से एक-एक बालिश्त नीचे लटकी रहतीं। खिज़ाबी मूंछों का बल तो नहीं गया, लेकिन सिर्फ़ बल-खायी हुई नोकें सियाह रह गयीं। चार-चार दिन नहाने को पानी न मिलता। मोतिया का इत्र लगाये तीन महीने हो गये। बीबी घबरा कर बड़े भोलेपन से देहाती अंदाज़ में कहतीं ‘अब क्या होयेगा? होगा के बजाए होयेगा उनके मुंह से बहुत प्यारा लगता था। इस एक वाक्य में वो अपनी सारी परेशानी,मासूमियत, बेबसी, सामने वाले के ज्योतिष-ज्ञान और उसकी बेमांगी मदद पर भरोसा-सभी कुछ समो देती थी। क़िबला इसके जवाब में बड़ा विश्वास से ‘देखते हैं’ कह कर उनकी तसल्ली कर देते थे।

बाहुबल और तेज़ काट की अवस्था

हर दु:ख, हर परेशानी के बाद ज़िन्दगी आदमी पर अपना एक रहस्य खोल देती है। बोधि वृक्ष की छांव तले बुद्ध भी एक दु:ख भरी तपस्या से गुज़रे थे। जब पेट पीठ से लग गया, आंखें अन्धे-कुंओं की तह में अंधेरी हो गयीं और हडि्डयों की माला में बस सास की डोरी अटकी रह गयी तो गौतम बुद्ध पर भी एक भेद खुला था। जैसा, जितना और जिस कारण आदमी दु:ख भोगता है, वैसा ही भेद उस पर खुलता है, निर्वाण ढूंढने वाले को निर्वाण मिल जाता है और जो दुनिया के लिये कष्ट उठाता है दुनिया उसको रास्ता देती चलती जाती है।

गली-गली ख़ाक फांकने और दफ्तर-दफ्तर धक्के खाने के बाद क़िबला के दुखी दिल पर कुछ खुला तो ये कि क़ायदे-क़ानून बुद्धिमानों और ज़ालिमों ने कमज़ोर दिल वालों को क़ाबू में रखने के लिये बनाये हैं। जो व्यक्ति हाथी की लगाम की तलाश करता रह जाये, वो कभी उस पर चढ़ नहीं सकता। जाम उसका है, जो बढ़कर खुद साक़ी को जाम-सुराही समेत उठा ले। दूसरे शब्दों में, जो बढ़कर ताला तोड़ डाले, मकान उसी का हो गया। कानपुर से चले तो अपनी जमा-जत्था, वंशावली, स्प्रिंग से खुलने वाला चाकू, अख़्तरी बाई फ़ैजाबादी के तीन रिकार्ड, मुरादाबादी हुक़्के और सुराही के हरे कैरियर स्टेंड के अतिरिक्त अपनी दुकान का ताला भी ढो कर ले आये थे। अलीगढ़ से ख़ास तौर पर बनवाकर मंगवाया था, तीन सेर से कम न होगा। ऊपर जो कुछ उन पर खुला, उसके बाद बर्नस रोड पर एक शानदार फ्लैट अपने लिये पसन्द किया। मार्बल की टाइल्स, समुद्र की ओर खुलने वाली खिड़कियां जिनमें रंगीन शीशे लगे थे, दरवाज़े के ज़ंग लगे ताले पर अपने अलीगढ़ी ताले की एक ही चोट से फ्लैट में खुद को सरकार का अहसानमंद हुए बग़ैर आबाद कर लिया। तख़्ती दुबारा पेंट करवा के लगा दी। तख़्ती पर नाम के आगे ‘मुज़तर कानपुरी’ भी लिखवा दिया। पुराने परिचितों ने पूछा आप शायर कब से हो गये? फ़रमाया, मैंने आज तक किसी शायर पर दीवानी मुक़दमा चलते नहीं देखा, न डिग्री, क़ुर्की होते देखी! फ्लैट पर कब्ज़ा करने के कोई चार महीने बाद अपने चूड़ीदार का घुटना रफू कर रहे थे कि किसी ने बड़ी बदतमीज़ी से दरवाज़ा खटखटाया। मतलब ये कि नाम की तख़्ती को फटफटाया। जैसे ही उन्होंने हड़बड़ा कर दरवाज़ा खोला, आनेवाले ने अपना परिचय इस प्रकार करवाया जैसे अपने ओहदे की चपड़ास उठा के उनके मुंह पर दे मारी। ‘अफ़सर कस्टोडियन इवैकुएट प्रापर्टी।’ फ़िर डपट कर कहा, ‘बड़े मियां! फ्लैट का एलाटमेंट आर्डर दिखाओ।’ क़िबला ने वास्कट की जेब से हवेली का फ़ोटो निकाल कर दिखाया ‘ये छोड़ कर आये हैं’ उसने फ़ोटो का नोटिस न लेते हुए सख़्ती से कहा, बड़े मियां! सुना नहीं? एलॉटमेट आर्डर दिखाओ।’ क़िबला ने बड़ी शाति से अपने बायें पैर का सलीम-शाही जूता उतारा और उतने ही आराम से कि उसे, खयाल तक न हुआ कि क्या करने वाले हैं, उसके मुंह पर मारते हुए बोले ‘यह है यारों का एलॉटमेंट आर्डर! कार्बन कॉपी भी देखेंगे?’ उसने अब तक, यानीज़लील होने तक, रिश्वत-ही-रिश्वत खायी थी, जूते नहीं खाये थे। फ़िर कभी इधर का रुख नहीं किया।

जारी………………

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पिछले अंक : 1. खोया पानी-1:क़िबला का परिचय 2. ख़ोया पानी 2: चारपाई का चकल्लस 3. खोया पानी-3:कनमैलिये की पिटाई 4. कांसे की लुटिया,बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी़

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khoya_pani_front_coverकिताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

 

चिट्ठाजगत चिप्पीयाँ: पुस्तक चर्चा, समीक्षा, काकेश, विमोचन, हिन्दी, किताब, युसूफी, व्यंग्य

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

9 comments

  1. जारी रहो..किताब तो अब खरीद कर दे ही देना…पैसे दे दूँगा भाई..मगर फिर भी यहाँ पढ़ूंगा..इसी ट्रिप में चाहिये यह किताब..कब और कहाँ मिलना है..सूचना दे दी जायेगी..खबरदार..जो पुलिस को सूचना दी. 🙂 कोड रहेगा..उड़न तश्तरी..

  2. क्या बात है…जैसा, जितना और जिस कारण आदमी दु:ख भोगता है, वैसा ही भेद उस पर खुलता है, निर्वाण ढूंढने वाले को निर्वाण मिल जाता है और जो दुनिया के लिये कष्ट उठाता है दुनिया उसको रास्ता देती चलती जाती है।
    लगता है काकेश भाई आप किताब खरीदवा के ही मानेंगे।

  3. काकेश आप अपनी साईट पर सभी को खोया पानी पिला रहे हैं, शायद मेरी शंका का कुछ समाधान कर सकें। पिछले अंक पढे नही लेकिन इस अंक को पढकर लगता है उन्हें पढने के लिये समय निकालना चाहिये।

  4. क्या सर अद्भत कथा लेकर आए आप तो. बीच का एक एपिसोड छुट गया था लेकिन अब जरूर पढूंगा. एक बात है ये किबला है बहुत ही रोचक पात्र है. शानदार और जानदार चीज लाये है आप. कृपया जारी रहे.

  5. वाकई यह किताब अपने पास होना ही चाहिए ऐसा लगता जा रहा है!!

    शुक्रिया!!

  6. विभाजन का विस्थापन भी सटायर पैदा कर सकता है! अद्भुत। इस हिसाब से तो सटायर में शृंगार और विरह भी आ सकता है? है क्या इस किताब में?

  7. आप सभी को टिप्पणी के लिये धन्यवाद.

    ज्ञान जी इस किताब को पढिये. आपको सटायर की इतनी स्थितियां मिलेंगी कि विश्वास ही नहीं होगा. एक मजे हुए लेखक के लिये किसी भी स्थिति में सटायर पैदा करना मुश्किल नहीं है.

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