प्रभु कई दिनों से गायब थे. उनके गायब होने से तरह तरह की अटकलों का बाजार गर्म था. कोई कहता प्रभु संजीवनी बूटी खाने लाने गये हैं. कोई कहता कि मंहगाई का जमाना है. प्रभु को भी दुनिया चलानी है शायद अतिरिक्त कमाई का जुगाड़ बैठा रहे होंगे.कोई कहता लॉग ड्राइव पर निकल गये होंगे.जितने मुँह उतनी बातें.
धीरे धीरे सब कुछ सामान्य हो गया. लोग प्रभु को भूलने लगे.जैसा कि आमतौर पर होता है कि किसी के जाने से दुनिया नहीं रुकती प्रभु के जाने से भी कुछ नहीं रुका. उनके बिना दुनिया चलने लगी. अचानक एक हलचल सी हुई. प्रभु की पार्टी के लोग जो उंघते उंघते सो चुके थे एकाएक जग गये. खबर आयी कि प्रभु आ रहे हैं.
कुछ बचे खुचे समर्थकों ने नारेबाजी शुरु कर दी. “जब तक सूरज चांद रहेगा….”, “हमारा नेता कैसा हो …” , “प्रभु जी तुम संघर्ष करो..” जैसे नारों से आकाश गूजने लगा. जनता टकटकी लगाये देखती रही और सोचती रही कि जिसे हमने चुन कर भेजा था वो हमें मझधार में छोड़ कर कहाँ गायब हो गया था. लेकिन जनता तो जनता थी सोचने के अलावा और कर भी क्या सकती थी.
वो अवतरित हुए. लगा कि जैसे सब कुछ बदल गया. उनके फूले फूले गाल एकदम पिचक से गये जैसे किसी ने पान की गिलोरी को मुँह से निकाल दिया हो.तौंद एकदम गायब. छ्ररहरा बदन.चेहरे का रंग भी बदला बदला नजर आ रहा था. चाल भी हाथी जैसी ना होकर घोड़े जैसी हो गयी थी.यानि कि तेज तर्रार ….लगा जैसे स्लिम एंड ट्रिम होने का पूरा कोर्स करके आ रहे हों.
आते ही इधर उधर देखने लगे. फिर सकपका कर अपने एक सहायक से बोले कि मेरी कुर्सी नहीं दिखायी दे रही.
कुर्सी !! कौन सी कुर्सी ?
अरे मेरी कुर्सी !! मैं यहाँ का मुख्यमंत्री हूँ ना.
हूँ नहीं थे..
थे मतलब…!! मेरे को तो जनता ने चुन कर भेजा था.
हाँ लेकिन आप कुर्सी छोड़कर चले गये थे ना.
हाँ लेकिन मैं तो..
हाँ.. तो जब तक आप ये रूप बदल रहे थे.जनता ने नया मुख्यमंत्री चुन लिया.
ऎसा कैसे हो सकता है.
हो सकता है नहीं हो गया है. आजकल कुर्सी बहुत महत्वपूर्ण हो गयी है उसे एक मिनट भी छोड़ना नहीं चाहिये.
लेकिन … मुख्यमंत्री जो कि अब भूतपूर्व हो गया था उसके चेहरे पर परेशानी के भाव बदले हुए मेकअप के बाद भी साफ देखे जा सकते थे.इससे पहले कि वह कुछ सोचता कि क्या करें ,फोन की घंटी बजी. उधर से हाई कमान का फोन था. उसे थोड़ी आस बंधी कि चलो कोई तो उसकी सुनेगा. लेकिन इससे पहले वो अपना पक्ष हाईकमान के सामने रखता. उधर से आवाज आयी.
तो आ गये आप.
जी….
आपको कुर्सी छोड़कर जाने की क्या आवश्यकता थी?
मैने सोचा कि मैं थोड़ा स्लिम…..भूतपूर्व हकलाते हुए बोलना चाह रहा था.
आपको नहीं मालूम ..कंपटीसन का जमाना है. देश में अस्थिरता का माहौल है. ऎसे में एक एक मिनट बहुत कीमती है.
लेकिन स्लिम..
देखिये आपको स्लिम ही होना था तो आप कुर्सी में बैठकर ही कुछ आसन वगैरह करते रहते.वैसे भी कुर्सी में बैठकर भी कौन सा काम ही करते थे.सुनते हैं आजकल आसनों से आसानी से स्लिम हुआ जा सकता है…
लेकिन मैं तेज….
अरे जब कुर्सी ही नहीं रही तो ये तेजी किस काम की…
लेकिन कुर्सी तो मेरी थी ना…
लोकतंत्र में कुर्सी किसी की नहीं होती. अपनी बारी भूल गये जब पिछली बार आपने कुर्सी खाली देखी थी तो सब विधायकों को पटा कर खुद उस कुर्सी पर बैठ गये थे और तब से एकछ्त्र राज भी कर रहे थे. देखो जब तुम अपनी कुर्सी नहीं बचा पाये तो ये देश कैसे बचाओगे.
वो तो ठीक है लेकिन अब करूं तो क्या करूं.
अब बस इंतजार करो. देखो अगला कब कुर्सी छोड़कर जाता है. जैसे ही वो जाये लपक के बैठ लेना यह कहकर हाई कमान ने फोन काट दिया. प्रभु को भी बात समझ आ गयी थी.
[ यह मात्र एक व्यंग्य है इसका हाल फिलहाल की किसी घटना से कोई संबंध नहीं है ]
दीपावली मँगलमय हो उसकी शुभेच्छाएँ भी स्वीकारेँ परिवार के सभी के लिये
दीलचस्प रहा ये व्यग भी काकेश जी –
-लावण्या
बढिया.
यह तो केवल आपकी मानसिक हलचल लगती है। जो प्रभु सबको धकिया कर कुर्सी पर आसीन हो सकता है वह कुर्सी पर अपना शाश्वत पट्टा मानने की चुगदई कैसे कर सकता है? यह तो वैसे ही हुआ कि आप सीनियर मोस्ट ब्लॉगर हों और हिमालय की कन्दराओं में अज्ञात वास करने चले जायें। आने पर आशा करें कि आपकी सीनियॉरिटी बरकरार रही होगी! 🙂
प्रभु महान हैं भक्तों के मजाक से प्रमुदित होते हैं। मौज ले ली फिर कह रहे हैं किसी घटना से सम्बन्ध नहीं है। मौज हमने भी ले ली। जरा सी ही सही। 🙂
प्यारे प्रभू को जरा टमाटर आलू के भाव पूछने भेजना चाहिए था। प्रभू बेहोश पाये जाते। प्रभू को किसी भक्त की शिकायत सुनवानी चाहिए, प्रभो तुम चंदन हम पानी नहीं का मामला नहीं जम रहा है. पानी की एक बोतल दस रुपये की आ रही है। आदमी के दो टके भी ना मिल रहे । मिसेज प्रभू जब बतातीं हे प्रभो बेटे का एडमीशन करने के लिए डोनेशन चाहिए, भक्तों के एकाध लाख रुपये के चढावे से काम ना चल रहा।
काकेशजी धांसू च मारु व्यंग्य। लगे रहिए।
क्या बात करते हो भाई..बहुत पहुँची चीज हो…दीपावली की मंगल कामनायें.
अरे भाई, किसे किस की कूर्सी चाहिए? सबके अपने अपने आसन है. सब विराजमान है. नारद की वापसी से घबराएं नहीं 🙂
इस टिप्पणी को मजाक में लें.
क़ाकेश : संजय भाई आपने डिस्क्लेमर नहीं पढ़ा.. :-).जी मजाक ही करते हैं और मजाक में ही लेते हैं. आलोक पुरानिक जी ने कहा किसी को सीरियसली ना लें. खुद को भी नहीं. उसी पर अमल कर रहे हैं.
“लोकतंत्र में कुर्सी किसी की नहीं होती” वाह वाह क्या बात कही.मारक व्यंग्य लिखा सर आपने. इससे मुझे ये सीख मिली कि फालतू मे स्लिम ट्रिम के चक्कर मे कुर्सी छोड़ कर नही भटकूंगा.वैसे अभी तो अपन के पास कोई कुर्सी है नही पर जब होगी तब तो अमल कर सकूंगा.
वसीम बरेलवी साहब का एक शेर है…
हमारा अजम-ए-सफर कब किधर का हो जाए
ये वो नहीं जो किसी रहगुजर का हो जाए
उसी को जीने का हक़ है जो इस जमाने में
इधर का दिखता रहे और उधर का हो जाए
‘प्रभु’ जी तो ‘सीधी बात’ में विश्वास जताते रहे….लेकिन बात क्या इतनी सीधी है…..
जोरदार…मजेदार
सटीक, वाकई धांसू च मारू लिखा आपने!!
बहुत सही लिखा.क्या बात है?
वाह भैया.. भिगो भिगो के मारा और बाद में कह दिया.. नथिंग पर्सनल टाइप.. किसी घटना से कोई सम्बन्ध नहीं.. प्रभु ने सब नोट किया होगा.. मिलने दो एक बारी कुर्सी.. फेर देख लांगे तैनूं..
बहुत बढिया…सब कुछ बताता और साथ ही साथ सब कुछ ढाँपता भी …करारा व्यंग्य…
वैसे है सचमुच बडा ही तेज़…आपका लेखन और जिसका बारे में लिखा गया वो भी…