ज्ञान जी बोले “भैया, यह बताना कि यूसुफी जी ने यह लिखने में कितना समय लिया था। हमें तो इस छाप का सोचने में इतना समय लगे कि उम्र निकल जाये!” . सच जब से मैने यह उपन्यास पढ़ना शुरु किया कुछ इसी तरह के विचार मेरे दिल में भी आये थे.संजीत जी ने कहा “इतनी किश्तें पढ़ने के बाद कहा जा सकता है कि वाकई अद्भुत व्यंग्य उपन्यास है।”. तो मैं संजीत जी से कहना चाहुंगा कि अभी तो ये शुरुआत है..आगे आगे देखिये होता है क्या. तो आइये आगे पढ़ें.
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कटखने बिलाव के गले में घंटी
आहिस्ता-आहिस्ता बीबी को सब्र आ गया। एक बेटी थी। क़िबला को वह अत्यन्त प्रिय होती गयी। इस हद तक सब्र आ गया कि अक्सर कहते, ‘ख़ुदा बड़ा दयावान है। उसने बड़ी मेहरबानी की जो बेटा न दिया। अगर मुझ पर पड़ता तो सारी उम्र परेशान होता और अगर न पड़ता तो मैं नालायक को निकाल बाहर करता। ’सयानी बेटी कितनी भी चहेती हो, मां-बाप की छाती पर पहाड़ होती है।
लड़की, रिश्तों के इश्तेहार के अनुसार देखने में ठीकठाक, सुशील, हंसमुख, घरेलू काम काज में माहिर, लेकिन किसका बुरा वक़्त आया था कि क़िबला की बेटी के लिये रिश्ता भेजे। हमें नमरूद की आग में निर्भय होकर कूदने से कहीं ज़ियादा खतरनाक काम नमरूद की वंशावली में कूद पड़ना लगता है। जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, क़िबला हमारे मित्र बिशारत के फूफा, चचा और अल्लाह जाने! क्या-क्या लगते थे। दुकान और मकान दोनों-प्रकार से पड़ोसी भी थे। बिशारत के पिता भी रिश्ते के पक्ष में थे, लेकिन सन्देशा भेजने से साफ़ इन्कार कर दिया कि बहू के बिना फ़िर भी गुज़ारा हो सकता है लेकिन नाक और टांग के बिना तो व्यक्तित्व अधूरा-सा लगेगा। बिशारत ने रेल की पटरी से खुद को बंधवाकर बड़ी लाइन के इंजन से आत्महत्या करने की धमकी दी। रस्सियों से बंधवाने की शर्त खुद इसलिये लगा दी कि कहीं ठीक समय पर डर कर भाग न जायें लेकिन उनके पिता ने साफ़ कह दिया कि उस कटखने बिलाव के गले में तुम्हीं घंटी बांधो।
क़िबला मुंहफट, बदतमीज़ मशहूर ही नहीं थे, थे भी। वो दिल से, बल्कि बेदिली से भी, किसी की इज़्जत नहीं करते थे। दूसरे को ज़लील करने का कोई-न-कोई कारण ज़ुरूर निकाल लेते। मिसाल के तौर पर अगर किसी की उम्र उनसे एक महीना भी कम हो तो उसे लौंडा कहते और अगर एक साल ज़ियादा तो बुढ़ऊ।
ज्वालामुखी पहाड़ में छलांग
बिशारत ने इन दिनों बी.ए. का इम्तिहान दिया था और पास होने की संभावना फ़िप्टी-फ़िप्टी थी। फ़िप्टी-फ़िप्टी इतने गर्व और विश्वास से कहते थे जैसे अपनी कांटा-तौल की हुई आधी-नालायक़ी से इम्तिहान लेने वाले को कड़ी परीक्षा में डाल दिया है। फुर्सत-ही-फुर्सत थी। कैरम और कोट पीस खेलते। आत्माओं को बुलाते और उनसे ऐसे प्रश्न करते कि ज़िदों को शर्म आती। कभी दिन-भर बैठे नज़ीर अकबराबादी के कविता संग्रह में बिंदुओं वाले ब्लैंक भरते रहते जो मुंशी नवल किशोर प्रेस ने सभ्यता की मांग और भारतीय क़ानून की वज्ह से ख़ाली छोड़ दिये थे। बातचीत में हर वाक्य के बाद शेर का ठेका लगाते। कहानी लिखने का अभ्यास भी जारी था।
आखिरकार एक सुहानी सुब्ह बिशारत ने खुद अपने हाथ एक पर्चा लिखा और रजिस्ट्री से भिजवा दिया। हालांकि जिसे भेजा उसके मकान की दीवार उनके मकान की दीवार से मिली हुई थी। सन्देशा 23 पृष्ठों और लगभग पचास शेरों पर आधारित था। इनमें से आधे शेर उनके अपने और आधे अंदलीब शादानी के थे, जिनसे क़िबला के भाइयों जैसे संबंध थे। उस ज़माने में संदेशे केसर से लिखे जाते थे। लेकिन इस संदेश के लिये तो केसर का एक खेत भी अपर्याप्त होता। इसलिये सिर्फ सम्मानसूचक संबोधन केसर से और बाक़ी बातें लाल-सियाही से ज़ैड के मोटे निब से लिखीं। जिन हिस्सों पर ख़ास-तौर से ध्यान दिलाना था, उन्हें नीली सियाही से बारीक अक्षरों में लिखा। बात हालांकि धृष्टतापूर्ण थी, लेकिन भाव फ़िर भी ताबेदारी का और अंदाज़ बेहद चापलूसी का था। क़िबला के अच्छे स्वभाव, हंसमुखपन, मुहब्बत की जी खोल कर प्रशंसा की, जिसकी परछाई तक क़िबला के चरित्र में न थी। साथ-साथ दुश्मनों की नाम ले-ले कर डट कर बुराई की। उनकी संख्या इतनी थी कि 23 पृष्ठों की मिट्टी के पियाले में रखकर खरल करना उन्हीं का काम था। बिशारत ने जी कड़ा करके ये तो लिख दिया कि मैं शादी करना चाहता हूं। लेकिन ये कहने की हिम्मत न पड़ी कि किससे। बात बिखरी-बिखरी सही लेकिन क़िबला अपनी अच्छी आदतों और दुश्मनों की हरमज़दगियों के बयान से बहुत खुश हुए। इससे पहले किसी ने उनको खूबसूरत और सजीला भी नहीं कहा था। दो बार पढ़कर अपने मुंशी को पकड़ा दिया कि तुम्हीं पढ़कर बताओ कि साहबज़ादे किससे शादी करना चाहते हैं, अच्छाइयां तो मेरी बयान की हैं। ग्लेशियर था कि पिघला जा रहा था। मुस्कुराते हुए मुंशी जी से बोले, किसी-किसी बेउस्ताद शायर के शेर में कभी-कभी अलिफ़ गिरता है। इसके शेरों में तो अलिफ़ से लेकर ये तक सारे अक्षर एक-दूसरे पर गिर पड़ रहे हैं, जैसे ईदगाह में नमाज़ी एक-दूसरे की कमर पर सिजदा कर रहे हों। बिशारत के साहस की कहानी जिसने सुनी, हैरान रह गया। खयाल था कि ज्वालामुखी फट पड़ेगा। क़िबला ने तरस खाकर सारे ख़ानदान को क़त्ल नहीं किया तो कम से कम हरेक की टांगें ज़ुरूर तोड़ देंगे, लेकिन यह सब कुछ नहीं हुआ। क़िबला ने बिशारत को अपनी गुलामी में लेना स्वीकार कर लिया।
जारी………………
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पिछले अंक : 1. खोया पानी-1:क़िबला का परिचय 2. ख़ोया पानी 2: चारपाई का चकल्लस 3. खोया पानी-3:कनमैलिये की पिटाई 4. कांसे की लुटिया,बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी़ 5. हवेली की पीड़ा कराची में 6. हवेली की हवाबाजी 7. वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है 8. इम्पोर्टेड बुज़ुर्ग और यूनानी नाक
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किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
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चलिये दसवीं पोस्ट ठेलें। ये शादी और वह भी बिना कत्ल या अंग-भंग के हो कर ही रहेगी।
किबला संत-वंत बनते हैं अंतत: या ऐसे ही गुदगुदी करते रहते हैं! 🙂
चलो प्यारे, यह जानकर तसल्ली हुई है, कि आप अब यह मान रेले हैं, कि वो वाली शाम आपकी बर्बाद नहीं ना हुई।
ये सच्चे अर्थों में अद्भभुत उपन्यास है। इसकी कई परतें हैंजी, जितनी बार पढ़ेंगे, उतनी बार नयी खुलेंगी। व्यंग्यकार सच्ची में क्या होता है. कितना पढ़ा लिखा होता है, कित्ता बड़ा आबजर्वर होता है., ये मसले इस उपन्यास को पढ़कर खुलते हैं।
दरअसल यह किताब हास्य-व्यंग्य की टेक्स्टबुकों में एक मानी चाहिए।
इंतज़ार रहेगा!!
अद्भुत है..चरित्र-चित्रण का जवाब नहीं..
“वो दिल से, बल्कि बेदिली से भी, किसी की इज़्जत नहीं करते ….. दूसरे को ज़लील करने का….मिसाल के तौर….उसे लौंडा कहते और अगर एक साल ज़ियादा तो बुढ़ऊ..”
“कभी दिन-भर बैठे नज़ीर अकबराबादी के कविता संग्रह में बिंदुओं वाले ब्लैंक भरते रहते जो मुंशी नवल किशोर प्रेस ने सभ्यता की मांग और भारतीय क़ानून की वज्ह से ख़ाली छोड़ दिये थे।”
“सन्देशा 23 पृष्ठों और लगभग पचास शेरों पर आधारित था। इनमें से आधे शेर उनके अपने और आधे अंदलीब शादानी के थे……”
किताब की दुकानों में कुछ दिनों पहले पूछा था, मिली नहीं किताब…अभी दिल्ली जा रहा हूँ, किताब लाने…..
बहुत अच्छा लगा पढकर
अतुल
किसी-किसी बेउस्ताद शायर के शेर में कभी-कभी अलिफ़ गिरता है
क्या बात कही है, छापते रहें, अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।
काकेश जी
मेरे सब्र का बाँध शायद सरकारी ठेके पे बना हुआ था आप की इस पोस्ट के आते आते टूट गया.मैंने ये किताब देहली से मंगवा ली और अब एक साँस में पढने का इरादा है. मेरा सभी पाठकों से अनुरोध है की ये उपन्यास चाहे किश्तों पे यहाँ पढ़ें लेकिन इसकी एक प्रति घर में भी रखें. जब कभी मूड ख़राब हो एक आध पन्ना पढ़ लें.
दूसरी बात आप को मेरे ब्लॉग पर आए अरसा बीत गया है क्या कारण है ? नाराज हैं ? भूल गए हैं ? समय नहीं है या निमंत्रण का इंतज़ार है? बतईये ना ताकि उपयुक्त उपक्रम किया जाए ?
नीरज