रेलवे का खाना और स्पैनिश पर्यटक

उपस्थित हूँ फिर से कुछ दिनों की छुट्टियां बिताने के बाद. छुट्टियों में मैने अधिकतर चिट्ठे पढे पर हर जगह टिप्पणी नही दे पाया …कारण इंटरनैट की धीमी गति. पिछ्ले दिनों ट्रेन से अपने होमटाउन (अब होमटाउन की हिन्दी क्या होगी यह कोई सुधी जन बताये) जाना हुआ.शाम 4 बजे की ट्रेन थी लेकिन दीवाली से पहले वाला दिन था तो ट्रैफिक जाम का अन्देशा था. वैसे भी इससे पहले वाले दिन यानि धनतेरस के दिन दिल्ली में भयंकर ट्रैफिक जाम लगा था.इसी लिये ऑफिस से थोड़ी जल्दी रवाना हो गया और 2 बजे के आसपास पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंच गया.

उस दिन प्लेटफार्म पर काफी भीड़ थी अधिकतर लोग दीपावली के कारण अपने घरों की ओर प्रस्थान कर रहे थे. मैने अभी तक लंच नहीं किया था तो मैं यह समझने का प्रयास कर रहा था कि इतनी भीड़ में कहाँ कैसे अपनी भूख शांत करूँ. तभी एक कोने में कई विदेशी पर्यटक नजर आये.पर्यटकों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा थी. वे लोग प्लेटफॉर्म पर लगी रेलवे समय सारणी को बड़े ध्यान से देख रहे थे. कुछ पर्यटक उड़ते कबूतरों को अपने कैमरे में कैद करने की कोशिश कर रहे थे. मैं उनके करीब से गुजरा तो कान उनके वार्तालाप पर थे. कुछ ध्यान से सुनने पर लगा कि वो अंग्रेजी में बात नहीं कर रहे बल्कि किसी और भाषा में बात कर रहे हैं. वह भाषा भी कुछ जानी पहचानी सी लगी. और ध्यान से सुनने पर पता चला कि वो स्पैनिश में बात कर रहे हैं. किसी जमाने में मैने यह भाषा सीखी थी. मुझे लगा कि मुझे उनसे बात करनी चाहिये..आखिर बात प्रारम्भ करने का सूत्र तो पकड़ ही सकता हूँ. लेकिन हिम्मत सी नहीं हुई. कुछ देर वहीं खड़े होकर उनकी बातें सुनने लगा. हालांकि यह दर्शाने की पूरी कोशिश की कि मेरा ध्यान कहीँ और है. संयोग से एक पर्यटक ने पूछ ही लिया कि हावड़ा राजधानी एक्सप्रेस का समय क्या है. उसने यह प्रश्न अंग्रेजी में पूछा था जिसका जबाब भी मैने अंग्रेजी में दिया. लेकिन फिर मैने उसे अंग्रेजी में ही बताया कि मैं स्पेनिश समझ सकता हूँ…वह मुस्कुराया..मैने बोलने की कोशिश की.

हाबलो अन पोको एस्पिनिऑल (Hablo un poco español) : मैं थोड़ा थोड़ा स्पैनिश समझ सकता हूँ.

मेरी बात सुनके कुछ पर्यटक वहाँ और आ गये.करीब दस मिनट तक हम अंग्रेजी,स्पैनिश में बात करते रहे.उनसे पता लगा कि वो राजधानी एक्सप्रेस से हावड़ा जा रहे हैं और वहाँ से उनका दार्जिलिंग जाने का प्लान है. खाने के प्रति वो थोड़ा चितित दिखे. उन्हे भारतीय मसाले व मिर्च रास नहीं आ रहे थे. मैने उनके सामने राजधानी एक्सप्रेस की खूब तारीफ की. मैने उन्हे बताया कि राजधानी में कॉटिनेंटल खाना भी मिलता है क्योकि भारतीय रेलवे अपने यात्रियों का बहुत ख्याल रखती है. हाँलाकि मुझे मालूम था कि झूठी  तारीफ कर रहा हूँ लेकिन फिर भी विदेशियों के सामने आप बुराई भी तो नहीं कर सकते ना. उन लोगो ने मेरा कार्ड भी लिया और मेरे कुछ फोटो भी खीचे. मैने भी उनकी मेल आई. डी. ले ली.मुझे उस समय ध्यान नहीं रहा कि मैं भी अपने मोबाइल से उन लोगों की फोटो ले सकता हूँ अन्यथा मैं भी कुछ फोटो लेकर यहाँ चिपकाता.

मैंrailway-food फिर लंच की तलाश में निकला तो देखा कि रेलवे का सैल्फ सर्विस वाला रैस्टोरेंट पास ही है. अन्दर जाकर देखा तो एक बोर्ड में सभी खाद्य सामग्रियों के दाम लिखे थे. मैने उसी में देख कर मसाला डोसा खाने की इच्छा व्यक्त की तो पता चला कि थाली के अलावा वहाँ कुछ भी उपलब्ध नहीं था. थाली के लिये भी चावल अभी पक रहा था और उसके लिये 15-20 मिनट की प्रतीक्षा करनी पड़ती. मैने वहाँ काउंटर वाले सज्जन से कहा कि मेरे को केवल रोटी ही दे दे तो वह गहन सोच में पड़ गया लेकिन फिर वहाँ खड़े दूसरे सज्जन ने कहा कि आप बैठिये. मैं बाइस रुपये देकर एक कुर्सी पर बैठ गया.करीब पांच मिनट बाद मेरा नम्बर आया. थाली में दो तीन चीजें ( वह सब्जी थी कि दाल समझ में ही नहीं आया क्योकि सब में आलू अनिवार्य रूप से थे) और दही था. सब्जियां ठंडी थी.रोटियों में ऊपर की दो रोटी गरम और बाकीं दो एकदम ठंडी थी. सब्जियां और दही एक दूसरे से मिलकर अनन्य प्रेम भाव की सृष्टि कर रहे थे.खैर किसी तरह से दो रोटी खा के मैं उठ गया.

मैं सोच रहा था यदि वो स्पैनिश पर्यटक रेलवे का यह खाना खाते तो उनके मन में भारतीय रेल की क्या छवि बनती.

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

14 comments

  1. यात्री सुविधायें तो खराब हैं। असल में रेलवे का मोनोपोली से व्यवसायिक संस्थान में परिवर्तन ऐसा नहीं हो पाया है, जिसमें कर्मचारी यात्री सुविधाओं के प्रति सेंसिटिव बन जाये। समय लगेगा।

  2. मुंबई-दिल्ली राजधानी में तो खाना बढ़िया होता है। हां, दूसरी रेलगाड़ियों में तो भगवान ही मालिक है।
    काकेशजी होमटाउन की हिंदी गृहनगर होगी।

  3. लालू की भारतीय रेल में आपका स्वागत है। आंकड़ों के दर्शन कीजिए, चीजों को हाथ मत लगाइए क्योंकि रेल आपकी संपत्ति है।

  4. सरल और सहज भाषा में आपने अपने अनुभव बताए जिसका सजीव चित्र आँखों के सामने उभर आया… !

  5. सबसे पहले होमटाउन की हिंदी, गृहनगर। तो आप छुट्टी पर थे हम तभी सोच रहे थे कि आपकी कभी कभी देखने वाली टिप्पणियां नही आ रही। रेलवे का बाकि का तो पता नही लेकिन राजधानी में खाना बहुत अच्छा मिलता है ये कह सकते हैं। दिल्ली से गोवा के बीच जो जलती है उसकी कह रहे हैं शायद साउथ में कहीं जाती है, अब कह नही सकते कि वो एसी उच्च क्लास के कारण था या वाकई में ऐसा था।

  6. इस बार अपने परहेज़ी खाने के दौर में जब बाहर निकलना हुआ तो स्वयं को एक्दम विदेशी की तरह महसूस किया.. हर चीज़ में बेइंतहा मिर्च मसाले की मेरी शिकायतों से थक कर मेरे भाई ने कह ही दिया कि तुम अंग्रेज़ो की तरह बात कर रहे हो.. और ये प्रंशसा के शिल्प में नहीं था..
    स्पेनी जानते हैं यह तो बढ़िया बात है.. अलमोदवार को देखो और बताओ कि उसकी भाषा कैसी है.. यू नो ट्रान्सलेटर्स आर ट्रेटर्स..

  7. वाकई यदि हमारा रेलवे पर्यटकों को बेहतर सुविधाएं उपलब्‍ध कराए तो हम वाकई इनक्रेडिबल इण्डिया बन सकते हैं और रेलवे ही क्‍यों बाकी दूसरे विभाग भी……..

  8. काकेशजी भारत रेल में बसता है।
    भारत का मतलब गंदा खाना, बजबजाता पखाना, फालतू किसी की बात में टांग अड़ाना, यूं ही किसी की ओर तकते जाना, फोकटी की गपबाजी में टाइम गलाना, रिश्तेदारों को स्टेशन छोड़ने के बहाने भीड़ बढ़ाना, देश की गरीबी को गरियाना, फिर अमीरी को भी गरियाना, सीट लेने के लिए यथायोग्य को यथायोग्य रिश्वत टिकाना, फिर अपनी ईमानदारी के किस्से सुनाना, सो जाना, फिर फुल आलस में सोते ही रह जाना भी होता है, बोले तो ये सारे ट्रेट्स विशुद्ध भारतीय हैं, प्यारे ट्रेन के अलावा और कहां मिलेंगे सब। रेल में जब निकला करो, कबीर दास को याद करते हुए निकला करो-पत्ता टूटा डार से ले गई पवन उड़ाय, अब के बिछुड़े कहां मिलेंगे, दूर पड़ेंगे जाय।

  9. रीस्वागतम. मंज़र आपने अच्छा बयां किया. पर ये अलोक भाई को सब ख़राब ही ख़राब क्यों दिखता है. इस समस्या पर ज्ञान भइया कुछ विस्तार से बताते तो अच्छा होता. शायद एक आध दिन मे एक पोस्ट ही मिल जाए.

  10. आलोक पुराणिक जी के बाद टिप्पणी करने पहुंचने में यई तो लोचा है कि कुछ बाकी ही नही होता कहने के लिए!! 😉

  11. काकेश जी नमस्कार .
    मैं आपके ब्लॉग से खासा प्रभावित हूँ . कारण पहले तो हिन्दी मैं ब्लोगों की संख्या इतनी कम है की कभी कभी ही ऐसे ब्लॉग पढने का प्रारब्ध होता है. दूसरा आप साहित्य विषय से संबंधित हैं और इसमे अपना भी कुछ कीडा है 😉 तीसरा इस अंग्रेजी के ज़माने में थोड़ा अपना हिन्दी का रिविजन हो जाता है और चौथा कि बस खुशी होती है अपनी भाषा में ब्लोग्स देखकर.
    आपसे ही प्रेरणा लेकर में भी प्रयास कर रहा हूँ हिन्दी में लिखने का. बस आप लिखते रहिये.
    सौरभ

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