अब तक तो आप समझ ही चुके होंगे कि उमर खैय्याम की रुबाइयों में कितनी व्यापकता है. जब मैं उमर खैय्याम की रुबाइयों और उनके उन अनुवादों के बारे में सोचता हूँ जो भारत में हुए तो उनमें एक साम्य जैसा लगता है. पहले उमर खैय्याम की मूल रचना की बात करें. उमर खैयाम ने इतिहास के उस युग में जन्म लिया जब युरोप के लोग इतने सभ्य नहीं थे…या यूं कहें कि निरे जंगली थे तो अतिशयोक्ति ना होगी. उस समय स्कॉटलैंड में मैलकम कैमोर का दबदबा था और इंग्लैंड में सैक्सन राजाओं का आधिपत्य था. ये सब राजा प्रजा को गुलाम की तरह रखते थे…लेकिन इसके विपरीत फारस (पारस) में ज्योति थी, जीवन था, ज्ञान था और साहित्य था. सूफी संस्कृति, वैज्ञानिक सोच की अपनी महत्ता थी. ऎसे सामाजिक परिदृश्य में उमर ने सांसारिकता को ईश्वरीय सत्ता से जोड़कर रखने के अपनी रुबाइयों का सहारा लिया.
जॉन फिटजराल्ड सहित कई अनुवादकों का मानना है कि उमर खुद सुरा-प्रेमी थी और उनके इन पदों में केवल सुरा,सुन्दरी का ही जिक्र है लेकिन उमर की रुबाईयों को ईश्वरीय सत्ता से जोड़कर देखने वालों की भी कमी नहीं है. मैने भी अब तक जितना उमर को पढ़ा उसके आधार पर मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि ये रुबाइयाँ मात्र सुरा-वन्दना हीं है. यह रुबाइयाँ उससे अधिक बहुत कुछ कह जाती हैं.मैं अपने और विचार लेख के अगले अंक में आने वाले सप्ताह में रखूंगा.
उमर की रुबाइयों के अनुवाद हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में 1930 से 1945 के बीच हुए. इस समय देश में अंग्रेजों का शासन था लेकिन स्वतंत्रता का सूरज भी धीरे धीरे आंखे खोल रहा था. यह नवजागरण का काल था. लोगों में पर्याप्त मात्रा में असंतोष था. यह ऎसा समय था जब लोग खुद-ब-खुद उमर की दार्शनिकता की ओर खिंचे चले आये.लोगों की आंखों में सपने थे, दिलों में जोश था और चाल में मस्ती. यह समय था जब लोगों ने उमर को पढना और गुनना प्रारम्भ किया.
हरिवंश राय बच्चन ने एक जगह इसी परिस्थिति का वर्णन कुछ ऎसे किया है.
” सात-आठ बरस बाद जब मैंने उमर खैयाम की रुबाइयों को पहली बार पढ़ा, तो मुझे अच्छी तरह याद है कि मैंने उनमें किसी रोदन, किसी वेदना या किसी निराशा की प्रत्याशा करते हुए पढ़ा था। मेरी यही प्रत्याशा कहाँ तक पूरी हुई होगी इसे ‘रुबाइयात उमर खैयाम’ का हरेक पाठक अपने आप समझ सकता है। मुमकिन है, यहाँ मेरी बात काटकर कुछ लोग मुझसे अपनी असहमति जताएँ। साधारण जनता के बीच, और इसमें प्रायः ऐसे लोग अधिक हैं जिन्होंने उमर खैयाम की कविता स्वयं नहीं पढ़ी, बस यदा-कदा दूसरों से उसकी चर्चा सुनी है, या कभी उसके भावों को व्यक्त करने वाले चित्रों को उड़ती नज़र से देखा है, कवि की एक और ही तसवीर घर किए हुए है। उनके ख़याल में उमर खैयाम आनन्दी जीव है, प्याली और प्यारी का दीवाना है, मस्ती का गाना गाता है, सुखवादी है या जिसे अंग्रेज़ी में ‘हिडोनिस्ट’ या ‘एपीक्योर’ कहेंगे। इतिहासी व्यक्ति उमर खैयाम ऐसा ही था या इससे विपरीत, इस पर मुँह खोलने का मुझे हक़ नहीं है। फ़ारसी की रुबाइयों में उमर ख़ैयाम का जो व्यक्तित्व झलका है, उस पर अपनी राय देने का मैं अधिकारी नहीं हूँ क्योंकि फ़ारसी का मेरा ज्ञान बहुत कम है, लेकिन, एडवर्ड फ़िट्ज़जेरल्ड ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में अपने अंग्रेज़ी तरजुमे के अन्दर उमर खैयाम का जो खाका खींचा है उसके बारे में बिना किसी संकोच या सन्देह के मैं कह सकता हूँ कि वह किसी सुखवादी आनन्दी जीवन अथवा किसी हिडोनिस्ट या ‘एपीक्योर’ का नहीं है।
इन रुबाइयों का लिखने वाला वह व्यक्ति है जिसने मनुष्य की आकांक्षाओं को संसार की सीमाओं के अन्दर घुटते देखा है, जिसने मनुष्य की प्रत्याशाओं को संसार की प्राप्तियों पर सिर धुनते देखा है, जिसने मनुष्य के सुकुमार स्वप्नों को संसार के कठोर सत्यों से टक्कर खाकर चूर-चूर होते देखा है। इन रूबाइयों के अन्दर एक उद्विग्न और आर्त आत्मा की पुकार है, एक विषण्ण और विपन्न मन का रोदन है, एक दलित और भग्न हृदय का क्रन्दन है। संक्षेप में कहना चाहें तो यह कहेंगे कि रुबाइयात मनुष्य की जीवन के प्रति आसक्ति और जीवन की मनुष्य के प्रति उपेक्षा का गीत है-रुबाइयों का क्रम जैसा रक्खा गया है उससे वे अलग-अलग न रहकर एक लम्बे गीत के ही रूप में हो गई हैं। यह गीत जीवन-मायाविनी के प्रति मानव का एकांतिक प्रणय निवेदन है। पर कौन सुनता है ? वह अपना क्रोध-विरोध प्रकट करता है-पर उसे हार ही माननी पड़ती है। मानव की दुर्बलता, उसकी असमर्थता, उसकी परवशता, उसकी अज्ञानता और उसकी लघुता के साथ उसका दम्भ, उसका क्रोध-विरोध और उसकी क्रान्ति उसे कितना दयनीय बना देती है ! रुबाइयात सुख का नहीं दुख का गीत है, सन्तोष का नहीं असन्तोष का गान है।”
बच्चन जी की ’मधुशाला‘ में ही देखें तो पायेंगे कि इसके पूर्वाद्ध में यदि कवि ने मरणोपरांत क्रियाओं में भी मधु की महत्ता स्थापित की है तो इसके उत्तरार्द्ध में दर्द,अस्थिरता,क्षण भंगुरता और मोह भंग का यह रूप भी है –
कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गई सुरभित हाला
कहाँ गया स्वप्निल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला
पीने वालों ने मदिरा का मूल्य हाय कब पहचाना
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला
तो उमर की रुबाइयों को मात्र सुरा,सुन्दरी से जोड़कर देखना शायद सही नहीं है. इसके और भी कई पहलू हैं…जिनकी चर्चा अगले अंक में करेंगे.
क्रमश :….
[अब यह श्रंखला अब प्रत्येक गुरुवार को प्रकाशित की जायेगी]
इस श्रंखला के पिछ्ले लेख.
1. खैयाम की मधुशाला.. 2. उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद.. 3. मधुशाला में विराम..टिप्पणी चर्चा के लिये 4. उमर की रुबाइयों के अनुवाद भारतीय भाषाओं में 5. मैथिलीशरण गुप्त का अनुवाद 6. खैयाम की रुबाइयाँ रघुवंश गुप्त की क़लम से 7. मधुज्वाल:मैं मधुवारिधि का मुग्ध मीन 8.कभी सुराही टूट,सुरा ही रह जायेगी,कर विश्वास !!
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मैं सहमत हूं – रुबाइयां मात्र सुरा वंदना कदापि नहीं हैं। उनमें मेरे जैसे न पीने वाले के लिये भी डूबने को पर्याप्त है।