बस पहाड़ी रास्तों पर हाँफते धीमे रफ्तार डीज़ल का धुँआ उगलते चढ़ रही है.केमो* की उस बस में बैठते ही उसे लगा था कि वह जैसे अपने घर पहुंच गया.ट्रेन की सारी रात की थकन बस में अपना सूटकेस रखते ही जैसे उड़न छू हो गयी. उन टेढ़े मेढ़े,ऊंचे नीचे रास्तों में हिचकोले खाती बस एक के बाद एक मोड़ों पर हॉर्न देते हुए ठिठक ठिठक कर चल रही थी. एक तेरह चौदह साल की लड़की उलटी कर करके परेशान है. वो लोग सैलानी हैं शायद. लड़की की माँ सब जतन कर हार गयी लेकिन उलटी रह रह कर हो ही जाती है.वो याद करता कि जब वह अपनी ईजा (माँ) के साथ कभी ऎसे ही केमो की गाड़ी में जाता था तो उसकी माँ उलटी जैसी कुछ शिकायत होने पर माल्टा (संतरे जैसा एक फल) चूस लेती और उलटी रुक जाती.
बस की खिड़की से बाहर जैसे सब कुछ चलचित्र की भांति चल रहा है.बरफ से ढके पहाड़, उनके नीचे छोटी छोटी चोटियाँ, चीड़ देवदारु के जंगल और उनके नीचे छोटे छोटे गांव,स्कूल से घर लौटते बच्चे किसी छोटे पत्थर या पांगर के दाने को पैर से फुटबाल की तरह लुढ़काते, दातुले को अपनी कमर में खोस कर सिर पर हरी घास का गट्ठा लाते पहाड़ी औरतें, कहीं किसी जंगल में गाय चराते लड़के,उसी जंगल के बीच भूमिया देवता का मंदिर, किसी गाढ़ (छोटी नदी) के किनारे चलता हुआ घट (पनचक्की), किसी चाय की दुकान पर फसक (गप) मारते कोई ठुलबाबू (ताऊ जी).
एक मोड़ आया तो चीड़ का जंगल शुरु हो गया. चीड़ के जंगल उसे हमेशा से ही बड़े मोहित करते रहे हैं.बचपन में अपनी ईजा के साथ पिरूल लेने जाता तो चीड़ के टूटे फूल ले आता जिसे ऊन में बांध कर सारे पटांगड़ में चलाता रहता और कहता कि यह मेरी बकरी है. चीड़ के पेड़ की देह पर चीरा लगाकर बनाये लीसा निकालने वाले खप्पर भी उसे आकर्षित करते कि यह है क्या जिससे यह चिपचिपा पदार्थ निकल रहा है.ये तो उसे बाद में पता चला कि ये लीसा है जो तारपीन तेल बनाने के काम आता है.
ड्राइवर का हाथ सधा हुआ है. वह मोड़ों पर बड़ी आसानी से बस को मोड़ देता है. सैलानी लड़की खिड़की से बाहर नीचे गहरी घाटी देखती तो एक अनजाने भय से सिहर जाती है.लेकिन ड्राइवर के चेहरे पर कोई भाव नहीं. बस का कंडक्टर बीड़ी फूंक रहा है और साथ ही किसी डेली पसैंजर से बात भी कर रहा है. “पदम ज्यू आज बोरे में क्या भर लाये हो?”… “कुछ नहीं चेला… बस लाई के पत्ते और नीम्बू है यार.”…..बीड़ी खतम कर वह शहर के कंडक्टरों की तरह दरवाजे से नहीं लटकता बल्कि अपनी सीट में बैठ कर अपने रैक्सीन के थैले में रखे पैसों का हिसाब करने लगा है.पैन उसने अपने कान के ऊपर रख रखी है. कभी किसी सवारी को उतरना होता तो वो दरवाजे के पास लटकती रस्सी को खींच देता और ड्राइवर के पास घंटी बज जाती और वह गाड़ी रोक देता. कंडक्टर का हिसाब शायद पूरा हो चुका है. पदम दत्त जी भी उतर चुके हैं.बीच बीच में कंडक्टर अपनी माशूका की याद भी आ जाती जिसके लिये पिछ्ले हफ्ते ही वो गोल्ल ज्यू के मंदिर में घंटी चढ़ाने की मन्नत मांग कर आया था.
लगभग आधा रस्ता कट चुका है. उसे अब चाय की तलब लग रही है.वह सोच रहा कि कब ड्राइवर ज्यू गाड़ी रोकें और वह पहाड़ी रायते और पकोड़ी का स्वाद ले और साथ में गरमा गरम चाय भी. वह सोच ही रहा था कि एक झटके से गाड़ी (बस) रुक गयी. ‘चाय-पानी पी लो हो फटाफट’ …कंडक्टर बस से उतरते उतरते बोला. वो भी उतरा. सामने वही चिर परिचित दुकाने और उनमें आलू के गुटके, काले चने, प्याज की गरमा गरम उतरती पकोडियां , पहाड़ी रायता. उसके मुँह में हमेशा की तरह पानी आ गया.वह रायता-पकोड़ी का ऑर्डर देकर बैठ गया. पार्श्व में पहाड़ी गाना बज रहा था…”टक टका टक कमला बाटुली लगाये…”.रायता-पकौड़ी के अनोखे स्वाद के बीच उसे भी अपनी कमला याद आने लगी. ….अब तो बस आधा ही सफर और बांकी था…..
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के.मो.ओ.यू. (KMOU) : कुमाऊँ मोटर्स ओनर्स यूनियन की प्राइवेट बसें जिन्हे उत्तराखंड के पहाड़ों में केमो की बस के नाम से जाना जाता है.
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साथ में बोनस के रूप में सुनिये नरेन्द्र सिंह नेगी का गाया गढ़वाली गीत. “चली बे मोटर चली…सर-रर..प्वां..प्वां……”
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ऊपर वाला गाना तकनीकी समस्या के कारण थोड़ा फास्ट सुनायी दे रहा है. जल्दी ही इसे ठीक करता हूँ.
तब तक आप यह गाना सुनिये….”टक टका कमला बाटुली लगाये…” …मस्त गाना है… जरूर सुनियेगा….
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पहाड़ के बारे में पहले रस्किन बॉण्ड को ही पढ़ा था। हिन्दी में और स्थानीय शब्दों की छौंक के साथ तो यह पठन तो बहुत ही अच्छा लग रहा है।
कीमती पोस्ट है यह मित्र!
ओह, कितना कसके कसप-कसप सा लगता है, नहीं?
शानदार!!
laajaab,shaandaar,bhetareen sayaad jitnee taarif ki jaaye kam hai.
I really liked.Keeping writing
Pe daaju kemu bas tame par puji gechi ya baat main der hai pari,kadin tayer laki puncher hai jaan.
Chaah pakori garam paani main bhaal milche.
Lalit
आपने तो हमें हमारी उत्तराखंड की यात्रा याद करा दी।
Maz aago chahe ke ka…
Bahut sundar, bahut achche Kakesh Bhai…. Mujhe ab bhi yaad hai KMOU or LP ki buses…
Hum ki bhi bus ko dekh ke gaya karte the…
“Jhan jaye kamla LP gari maa, Kas rangilo phola ter disco sari maa”
Appko jankar khushi hogi ki aapki sari posts ka mein printout lekar ek collection bana raha hu… Or jab bhi ghar par koi pahari aata hai use chai ke saath kam se kam ek article to zarur sunata hu….
Mujhe keyboard par hindi likhna nahi aata warna hindi mein hi likhta…. bahut bhaut dhanyawad aapko… hamein purane dino ki mithas phir se yaad dilane ke liye….
Keep up writing Kakesh Bhai…
Amit
Very good,
I REMEMBER My OLD DAYS AFTER READING THIS.
THANKS
dear kakeshda.
apka likha dekh ker mujhe shivaniji aur manohar shyam joshi saheb ke kuch behterin rachnao ki yaad aa gayi. keep it writing.
We all uttrakhandi with you – the world ahead is your.
thanks
kakeshji, nameskar!! kmou ke bus kee yaad taaza ho gai jab hum nainital se danya jaroon ki chuttiyon mai jate the.17 feb ko school khulte the, wo pahari rasta ghumaodar sarkain, horn ke po-po driver ka picha wali seat upper or baad wali lower hoti thi. biri ki smell sab yad aa gaye. aapka lekh bahut achha laga.ek bar fir bachpan yaad aa gaya,aama barbaju sab ke yadain jee uthi.Bharat desh mahan.
dhanyabad.deepa
Pl.sent me garwali and kumauni lok geet mala .
KMOU Ki bus or Pahadi rayta ..wah aapne to dil khus kar diya kakesh da..
pl c Kundly font.
gkWa dkds’k th] phM ds NksVs cMs B~BhV ds cdjh o ikB~V cukrs Fks vkt Hkh ;kn vkrk gS ij ifjfLFkfr;kW vkt cny xbZ gSa vkt dk cpiu cdjh cukdj ugh [ksy jgk gS
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[काकेश ने कहा : रावत जी की टिप्पणी का युनिकोड रूपांतरण]
हाँ काकेश जी, चीड़ के छोटे बड़े ठूंठ के बकरी व पाठे बनाते थे आज भी याद आता है पर परिस्थितियां आज बदल गयी हैं आज का बचपन बकरी बनाकर नहीं खेल रहा है. वह मोबाइल , वीडियो गेम व प्लास्टिक के खिलोनों से खेल रहा है.
खीमसिंह रावत
संतनगर बुराड़ी
kakeshy ji aap to pahad se door rahne walo ko bhi pahad ki anubhuti karwa dete hain, apni lekhni ka jadu chalate rahiye meri shubhkaamnaye sadav aapke saath hain.
pls apna parichaya mughe mail kijiye main atyant aabhari rahunga aapka.
kakesh ji aapki kalam mein jadu hai jo pahad se dur rehne k baad bhi pahad ki anubhuti karwa deti hai.
pls apna parichaya mail kijiye i m eager to know about u.
kakesh ji aapki lekhni ka jawaab nahin.
kakesh ji maja aa gaya
Dear Kakesh Ji,
Heads off to you for such brilliant writing skills.
You are reminding me sometimes “Shivani”.
But you are more original than Shivani sometimes, as I feel,her creations are mixture of Bengal and Kumaon(Don’t take me otherwise I am also Shivani Fan but just sharing my views).
I forgot for a second that I am not in Uttarachal sitting far apart but I was remembering Garam Pani’s Pahadi Mooli Raita and Pakode. Many thanks to you as after reading your wonderful “Topics” i feel so refreshing .
Regards,
Dheera
ददा,
अब तो केमू बसें इतिहास की बात हो जायेंगी, ऎसा लगता है, पहाड़ों में जीपों ने इस उद्योग पर पूरी तरह से कैप्चर कर लिया है। सुखद यह भी है कि जीप यात्रा से समय की बचत हो रही है, लेकिन इसके दुखःद पहलू रोज हो रही दुर्घटना के रुप में सामने आ रहीं हैं, मेरा अनुरोध है कि आप जीप यात्रा का भी वर्णन करें।
I like This Song:
I Love Uttrakhand
I Love MY Home Dewal (Chamoli)
kakesh da purane dinoo ki yad dila di kaya likhte ho very nice harsh
kakesh ji aap pahar ke jo deshya samne rakh te hai aur jis nasargikta ke saath rkhate hai uska koi jawab nahi…bahut khoob
Dear,
Whatever you & your supporter has written about pahari & pahari caltural it is really true. I also belongs from Bageshwar.
dajyu,
anand aa gyo ho,its realy a very live pictorious kind of presentation which any paharo who spend his/her childhood in pahar can relate. Iam punetha basicaly from pithoragarh presently in MP,
regards
Kakesh Daa Namaskaar………..!
KUMOULtd Bus ki Pwaa Pwaa…. padkhar Bahut mazaa aa gayaa. Ye padkhar muze bhi apne Gaon – JAINAL (Ramnagar – Badrinath Road near Bhikiyasen) aane aur jaane ki yaad taaza ho gayi hai.
Garama Garam Aalu+Pyaaj+Gobhi ke Pakore
Kaale Chane
Mooli + Kakari ka Rayata
saath mai Kaanch ki glass mai Chai (Tea)
In subne muze SOURAL aur Bhatraujkhan ki yaad dila di…
Mann kartaa ha padte padte Ek Plate Order kar du abhi.
Thanx a lot……
I Love My uttrakhand (Almora) Bhikyasen and my native place Toli. Gahana.
अब तो केमू बसें इतिहास की बात हो जायेंगी, ऎसा लगता है, पहाड़ों में जीपों ने इस उद्योग पर पूरी तरह से कैप्चर कर लिया है। सुखद यह भी है कि जीप यात्रा से समय की बचत हो रही है, लेकिन इसके दुखःद पहलू रोज हो रही दुर्घटना के रुप में सामने आ रहीं हैं, मेरा अनुरोध है कि आप जीप यात्रा का भी वर्णन करें।
कुमाँऊ के प्रसिद्ध लोक नृत्यों में एक है छोलिया नृत्य जिसका इतिहास लगभग १००० साल पुराना है। इस नृत्य का उदय खसिया राज्य के वक्त माना जाता है जब विवाह तलवारों की नोक पर हुआ करते थे। खस शायद छत्रिय शब्द का अपभ्रंश हो क्योंकि इनके ज्यादातर रिति रिवाज राजपूतों के रिवाजों से काफी मिलते हैं।
बाद में शायद राजाओं का वक्त खत्म होने के बाद कुमाऊँ में छत्रियों की शादियों में छोलिया नृत्य किया जाने लगा (होगा)। जब बारात घर से निकलती थी तो बारात के आगे कुछ पुरूष नृतक रंग बिरंगी पोशाकों में तलवार और ढाल के साथ नृत्य करते हुए चलते थे। ये नृत्य दुल्हन के घर तक पहुँचने तक जारी रहता था। साथ में गाजे बाजे भी होते थे जो हरिजन जाति के लोग बजाते थे जिन्हें ढोलिया या ढोली कहते थे। बारात के साथ तुरी या रणसिंगा (ये कुमांऊनी संगीत यंत्र हैं जो रणभेरी या बैगपाईपर जैसे ही होते हैं) भी होता था जो बैरागी, जोगी या गोसांई जाति के लोग बजाते थे; और हाँ, साथ में
लाल रंग का झंडा भी चलता था।
हाँ बिल्कुल आज भी ऐसी शादियाँ होती हैं…पर शायद कलाकारों की कमी, लोगों का नाकारापन या फिर अपनी संस्कृति की तरफ अनदेखापन इस सालों की परंपरा को ढहाने में (विलुप्त होने का कारण) मदद कर रहा है। अब कुछ प्रोग्रामों या गिनीचुनी शादियों में ही ये डांस देखने को मिलते हैं। २२ लोगों की टीम तो मैने शायद ही देखी है और कहीं ना कहीं शायद ज़ांस में मोर्डन डांस की छाप भी दिखती है…बस भगवान से प्रार्थना ही करता हूँ कि इस कला का बचा के रखना।
उनका दर्द समझमें आता है क्योंकि विश्वस्त सूत्रों के अनुसार इन्होंने ये नृत्य सीखा हुआ है, और ये चाहते भी हैं कि इनकी शादी में २२ वाली टीम पूरी हो जिससे लोग इन्हें कम और इन छोलिया नृतकों को ज्यादा देखें शायद यही एक कलाकार का कला प्रेम है। kailash gururani इसी कड़ी में आगे जोड़ते हुए कहते हैं,
ये तो हर शादी ब्याह का जरूरी अंग होता था मेरे बचपन के दिनों में…असल में ये दो योद्धाओं के बीच युद्ध का नाटकीय रूपांतरण है…बीच में कलाबाजियाँ जोड़ दी जाती हैं…डांसर के कपड़े, और हथियार एक योद्धा की तरह ही होते हैं।
हालांकि ये कोई पेशेवर नृतक नही होते थे लेकिन इस नृत्य कला में पारांगत जरूर होते थे जाहिर सी बात है ऐसी विशेष कला के लोग हर शहर में तो होते नही होंगे। इसलिये ज्यादातर शादियों में ये अल्मोड़ा बागेश्वर या चंपावत क्षेत्र से बुलाये जाते थे। इन नृतकों की वेशभूषा में चूड़ीदार पैजामा (पायजामा), एक लंबा सा घेरदार छोला (कुर्ता) और उसके ऊपर पहनी जाती थी बेल्ट, सिर में पगड़ी, पैरों में घुंघरू की पट्टियाँ, कानों में बालियाँ और चेहर सजा होता था चंदन और सिन्दूर से। लगभग 22 लोगों की इस छोलिया नृतकों की टीम में 8 तो होते थे नृतक और बाकि 14 लोग गाजे बाजे वाले होते थे। संगीत और बाजों की थाप पर इन छोलिया नृत्यों की कलाकारी देखने लायक होती थी।
जब ये बारात गली मोहल्लों या गाँवों से निकलती थी तो बारात में आकर्षण का केन्द्र ये छोलिया होते थे ना कि दुल्हा दुल्हन। मुझे आज भी इस तरह की शादियाँ याद हैं जो बागेश्वर में अपने घर के छज्जे (खिड़कियों) से मैंने देखी थी। शायद आज भी गांवों में कुछ लोग इस परंपरा को जीवित रखे हों लेकिन बदलते वक्त के साथ इन छोलिया नृतकों की जगह बैंड बाजों वालों ने ले ली है।
धन्यवाद
कैलाश