वो मेरे मित्र थे.पत्रकार तो वो थे ही लेकिन साथ साथ एक कवि भी थे, यानि कि पूरा का पूरा डैडली कंबीनेशन. लिखने बैठते तो किस विषय पर क्या लिख दें इसका उनको ही पता नहीं रहता था. प्रमाद की अवस्था में पहुंच जाते तो क्या क्या बकने लगते.दूसरों के लिखे को अपना बताने लगते. एक न्यूज चैनल में थे.उनका काम था समाचारों की समीक्षा करना. मूड हुआ तो घंटे में चार के हिसाब से समीक्षा लिख डालते नहीं अपनी पैन से कभी सर और कभी कान खुजाते.
उनकी सबसे बड़ी समस्या थी कि वो समझते कि लोग उन्हे पत्ता नहीं देते. शंकर जी के पक्के भक्त थे तो शिकायत भी उन्ही से करते. भगवान देख ना उसे देख कैसे वह बॉस के साथ हँस हँस कर बात कर रहा है. बॉस मेरे साथ ऎसे बात क्यों नहीं करता.जबाब भी वह जानते थे. मैं बॉस के साथ दारू नहीं पीता ना.वो सीधे सादे थे. दारू पीना, देर रात तक प्रेस क्लब में चिकन की टांग तोड़ते हुए अंतर्राष्टीय समस्याओं पर विचार करना ये सब उनकी आदतों में शामिल नहीं था. वे तेल लगाने की सार्वभौमिक कला में माहिर भी ना थे. इसलिये अठारह बीस साल भाड़ झोकने के बाद भी अभी वह वो मुकाम हासिल नहीं कर पाये थे जो यह ‘नये लौंडे” तीन चार सालों में ही कर लेते थे.
एक दिन मेरे पास आये और कहने लगे. “मैं यह नौकरी छोड़ दुंगा, नहीं करनी मुझे यह पत्रकारिता”. उनके दो छोटे छोटे बच्चे थे. जो अभी पढ़ रहे थे. उनका ख्याल करते हुए मैने उन्हें समझाने की कोशिश की और जानना चाहा कि आखिर क्यों वह नौकरी छोड़ना चाहते हैं. “अरे साले एक ही स्टोरी को सुबह से शाम तक चलाते रहते हैं…और मुझे कहते हैं कि इसे कभी इस ऎगिल से चेंज करो …कभी उस ऎगिल से.. वीडियो फुटेज कम होते हैं..तो एक ही विडियो को बार बार प्ले करते हैं और कहते हैं कि आप स्टोरी चालू रखो.. खाक स्टोरी चालू रखो…मैं कोई कहानीकार थोड़े हूँ ..पत्रकार हूँ… बिना कुछ हुए कैसे लिखूँ…मैं बदलाव लाऊंगा“. मैं इससे पहले कि उन्हे कुछ समझाता वो अपनी आवाज को और ऊंची कर बोलने लगे. ” वो साला खुद से एक लाइन नहीं लिख सकता ..खुद का एक भी कॉंसैप्ट नहीं है…मेरे कॉंसैप्ट ले जाता है और उन पर लिखता है… ” जाहिर है वो प्रमाद की अवस्था में जा रहे थे. मैने इस बात पर उन्हे छेड़ना उचित नहीं समझा कि वो नौकरी क्यों छोड़्ना चाहते हैं…निश्चित ही उनके दिल को गहरी चोट लगी थी..मैं जानता हूँ इस तरह के भावनात्मक आदर्शवाद से उनके सहकर्मी भी दो चार होते थे. लेकिन चार घूंट अन्दर जाते ही सारी आदर्शवादिता हवा हो जाती.
मैने प्रश्न बदलते हुए कहा कि “नौकरी छोड़ दोगे तो फिर करोगे क्या? अपना परिवार कैसे चलाओगे?” उनके चेहरे ने कई रंग एकसाथ बदले. लगा जैसे वो आसमान से जमीन पर आ रहे हों. लेकिन ठसक अभी बांकी थी… मैं कविता लिखुंगा. अपना कविता संग्रह छ्पवाऊंगा. वो हिन्दी के कवि थे इसलिये मेरे चेहरे पर मुस्कान तैर गयी…लेकिन साथ साथ मुझे उनके बच्चों का भूखा भविष्य भी नजर आने लगा. मैने उनसे पूछा …आप किस पर कविता लिखेंगे ..वही चांद, वही सूरज, वही तारे, वही प्रकृति, वही प्यार, वही कसमें, वही वादे,वही रूठना, वही मनाना,वही रस,वही छंन्द…बस इन्ही को तो अलग अलग ऎंगल से देखेंगे ना. .. वो फिर भड़क उठे..कहने लगे ..ये सब कविताऎं तो ना जाने कब से लिखी जा रही हैं.तुम्हे तो कविता की समझ ही नहीं ..यह सब कविता तो पुराने जमाने की छायावादी कविता है…मैं तो यथार्थवादी कवि हूँ…. मैं लिखुंगा भूख पर, बेरोजगारी पर,भष्टाचार पर, बाजारवाद पर, पूंजीवाद पर, छ्द्म साम्यवाद पर… वो आगे भी बोलते लेकिन मैने उन्हे रोककर कहा…लेकिन इन सब पर भी तो पिछ्ले ना जाने कितने साल से कविताऎं लिखी जा रही हैं…क्या हुआ..एक ही वीडियो है जिसे बार बार प्ले किया जा रहा है… आप क्या करेंगे एक ही स्टोरी को थोड़ा अलग ऎगल से दिखायेंगे ना..उससॆ क्या होने वाला है..क्या उससे तसवीर कुछ बदल जायेगी…यही करना है तो जहाँ हैं वही क्यों नहीं करते ..कम से कम घर तो चलेगा….
उनके चेहरे की दृढ़ता निरिहता में बदलती गयी.. उनके हाथों की बँधी मुट्ठियाँ ढीली हो गयी….आदर्श के सारे सपने टूटकर चकनाचूर हो गये थे..वो उठे और कहने लगे..नहीं मैं यह नौकरी नहीं छोड़ूंगा.
इधर वकालत में भी हम ऐंगल ही बदल रहे हैं। आप ने कविता और न्यूज चैनल दोनों एक साथ निपटा दिए। आदमी करामाती हो।
काकेशजी, आपके ये मित्र आजकल कहां हैं। ये तो बताया ही नहीं। वैसे आपके मित्र जैसे लोग हर न्यूज चैनल के दफ्तर की कुर्सियों पर जमे मिल जाएंगे।
आखिर तक आते-आते मामला ठीक हो गया ये अच्छी बात है। 🙂
झूठ बोले कौआ काटे … मैं मैके चली जाऊंगी की रट और फिर रियलाइजेशन … मैं मैके नहीं जाऊंगी – सातों वचन निभाऊंगी!
‘पार्ट टाइम’ कवि, ‘पार्ट टाइम साम्यवादी’ और फुल टाइम नौकरी पेशा आदमी कन्फ्यूजन का हिमालय होता है. लेकिन सुधार आख़िर में आ ही जाता है. और कोई चारा भी तो नहीं है. सारा चारा ‘समाजवादी’ खा गए………:-)
काकेश बडा खालिस लिख रहे हो आजकल … नज़र ना लगे! बहुत शुभकामनाएं!!
दो चीज़ों से बचना, लगातार लिखते जाने की कसक में १. बर्न-आऊट २. ब्लागिंग से बोरियत – ये दोनो न जाने कितने अच्छे ब्लागरों को मूक कर गई और मैं आपको बहुत समय तक पढते रहना चाहता हूं!
झकास! अच्छा लिखा है।
मजा आ गया। उस मित्र को फालोअप करते रहना, ना जाने फिर किसी दिन बमक जाए।
कहानी अखबार अखबार की, चैनल चैनल की।
चुक गए लोग कहीं कुछ नहीं कर पाते। न ही अखबार या चैनल में और न ही जीवन या लेखन में। इनकी ऊर्जा का स्रोत सूख गया होता है क्योंकि ये ज़िंदगी और यथार्थ से कट गए लोग होते हैं। मुलम्मों में अपनी पहचान ढूंढते हैं। हमारे समय के बड़े खोखले, मगर दयनीय चरित्र हैं ये लोग।
व्यंग्य की मार में भी मार्मिक.. हँसने वाले बड़े कलेजे वाले लोग हैं..
अपना भी हाल कुछ ऐसा ही है..ग़ालिब चचा कह गए हैं कि आगे आती थी हाले दिल पर हँसी, अब किसी बात पर नहीं आती..
सटीक लिखा है बंधु!!
बड़िया, आप ने अच्छी दोस्ती निभाई अपने मित्र के साथ्…। अरे ये ज्ञान जी भी गाने जानते हैं वो तो कह रहे थे मैं फ़िलमों से बहुत दूर रहता हूँ…।:)
isi Gazal men Gaalib ne misara-e-shani kahaa hai-
varnah kya baat kar naheen aatee.
pramaad kaa matalab bhee naheen samajhate? pramaad kee avasthaa men aadamee bakataa to kya; hoon-haan bhe naheen karanaa chaata. dhanya ho prabu, pahale teer-kamaan to sambhaalo, hazaaree prasaad dvivedee ke khet men pade hain!
कुंठित पत्रकार और निराश कवि , इनका काटा पानी भी नहीं माँग पाता !
उनको संतोष की ज़िन्दगी जी लेने देते , नाहक फिर उसी दलदल में ठेल दिया ।
This is learning lesson for all confuse person & other who have feel bore with his occupation. ———- Don’t fear always fights. Mr .– Sushil Singh (B.Sc , M.C.A ,M.B.A)