नवभारत टाइम्स में वरिष्ठ कवि/पत्रकार श्री मंगलेश डबराल जी ने हिन्दी ब्लॉग पर एक लेख लिखा. वो धन्यवाद के पात्र तो हैं ही कि उनकी नजरें इस नये बने अराजनैतिक, व्यक्तिगत, रूमानी, भावुक और अगंभीर माध्यम पर इनायत हुई लेकिन इन सबके ऊपर उन्होने हिन्दी ब्लॉगजगत पर जो आरोप लगाये हैं वो शायद इस हँसी-ठिठोली और खुशफहमी में कहीं दब ना जायें कि हिन्दी ब्लॉग के ऊपर नवभारत टाइम्स जैसे मुख्यधारा के अखवार ने संडे स्पेशल फोकस कर लिया इसलिये हम हाजिर हैं उस पर अपने विचार रखने के लिये.
उन्होने हिन्दी ब्लॉग बिरादरी के बारे में कहा कि इसमें “एक आपसी लगाव इसलिए भी दिखता है कि उनके आयोजक स्वाभाविक रूप से मिलते जुलते हैं”. इस बात से मैं इत्तेफाक नहीं रखता कि कि आपसी लगाव सिर्फ इसलिये है कि ब्लॉगर्स आपस में मिलते जुलते हैं. मेरे विचार से अभी तक सिर्फ दस – पन्द्रह प्रतिशत ब्लॉगर्स ही आपस में मिले होंगे. यह आपसी लगाव इसलिये कि हम एक दूसरे के लेखन में खुद को महसूस कर पाते हैं. हमारे दर्द,खुशी,प्यार,रिश्ते,सामाजिक सरोकार किन्ही दूसरों के लेखन में दिखायी पड़ते हैं.उन्हे हम अपने दिल के करीब मानते है.हम सहज भाव से ही बिना मिले ही वो रिश्ते जोड़ लेते हैं जो लोग बरसों साथ रहने से भी नहीं जोड़ पाते. इसीलिये इस ब्लॉग मे हमें कोई बड़ा भाई मिल जाता है,कोई अच्छा मित्र मिल जाता है तो कोई दीदी ,भाभी या बहन भी और कहीं हम सह-ब्लॉगर के सह अस्तित्व के साथ ही एक दूसरे से जुड़ जाते हैं.
मंगलेश जी को अमेरिकी इंडियन मूल के कवि एमानुएल ओर्तीज की एक अद्भुत कविता हिन्दी ब्लॉग जगत में नहीं मिली लेकिन यह मिल भी जाती तो भी ब्लॉग जगत कोई तीर ना मार चुका होता.ब्लॉग एक अभिव्यक्ति का माध्यम है.हिन्दी की भाषाई शुद्धताओं, नुक्ताचीनियों और सामाजिक क्रातियों के उलट इसमें एक सहज अभिव्यक्ति है जो सीधे दिल को छूती है.यह ब्लॉगर्स भाषा व जबान के मामले में शायद इतने माहिर ना हो जितने हिन्दी भाषा जगत के महोपाध्याय लेकिन इनके दर्द और ग़म भी वैसे ही हैं जितने अमेरिकी इंडियन मूल के कवि एमानुएल ओर्तीज के.ये और बात है कि ओर्तीज का नाम कुछ चंद पढ़े लिखे, भाषाई महापंडित, बुद्धिजीवी वर्ग के ब्लॉगर्स के अलावा शायद ही किसी ने सुना हो. हमारी भाषा इतनी अच्छी होती तो हम यह बिना पैसे का ब्लॉग खोल के लिखने क्यों बैठते किसी पत्रिका या समाचार पत्र में छ्प छ्पाकर कुछ पत्र-पुष्प ही बना रहे होते.
हिन्दी साहित्य का नुकसान उन्ही लोगों ने किया है जिन्होने अभिव्यक्ति को भाषाई व्याकरण के इतने कड़े नियमों में बांध कर रख दिया कि वो आम आदमी से दूर होती चली गयी.प्रेमचन्द अभी भी अपने से इसलिये लगते हैं क्योकि वो समझ में आते हैं. हम रोना रोते हैं हिन्दी का पाठक कहाँ है?, हिन्दी में किताबें बिकती क्यों नहीं?, लोगों की रुचि साहित्य में कम क्यों हो रही है?.यह दोष पाठकों का नहीं वरन उन चंद साहित्यकारों का है जिन्होने भाषा के ऎसे किले बनाये जिनके भीतर पहुंचकर वो खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें और नये आने वाले व्यक्तियों को उन किलों को फतह करने के लिये ऎसी कड़ी परीक्षाओं से गुजरना पड़े कि वो पहुंचने से पहले ही टें बोल जाये.इसी लिये हिन्दी साहित्य गुटबाजियों, पुरुस्कार राजनीतियों और चारण-भाटों का अड्डा बन गयी है. हम चितित है हिन्दी के लिये लेकिन नियमों में ढील नहीं देंगे.
[यहाँ पर इतना और बता दूँ कि मैने स्वयं देखा है किस तरह बंगाल में लोग किताबों को खरीदते हैं.वहाँ कई छोटी पत्रिकाऎं छ्पती है जो नये नये कवियों को अवसर देती हैं. बंगला में, हिन्दी की तरह बोलने व लिखने की भाषा में अंतर नहीं है.बंगला या मराठी के लोग किताबों के ना बिकने का रोना नहीं रोते.]
हिन्दी ब्लॉग इन्ही सब नियमालियों से निज़ात दिलाकर एक सहज,सरल,मोहक,ग्राह्य अभिव्यक्ति को सामने लाता है. वह अभिव्यक्ति जिसको किसी संपादक की कैंची से बचकर नहीं गुजरना पड़ता. जिसके लिये आपको किसी की चरण वन्दना नहीं करनी पड़ती किसी गुट का सदस्य नहीं होना होता.यह रामचन्द्र शुक्लों,द्विवेदियों की किसी युग परिभाषाओं से दूर है.यहाँ मन की बात है, खुद के अनुभव और आम बोलचाल की भाषा है. शेरदा ‘अनपढ़” , बाबा नागार्जुन या भिखारी ठाकुर इन्ही जैसों के बीच ही तो हैं.
एक ब्लॉगर क्यों लिखता हैं?आज हर ब्लॉगर एक साहित्यकार, मँजा हुआ लेखक या पत्रकार नहीं है.बहुतों के पास लिखने की कोई मजबूरी भी नहीं है.वो अच्छी तरह से कमा खा रहे हैं. लेकिन अन्दर ही अन्दर एक बेचेनी है.. खुद को अभिव्यक्त करने की…. अपने उमड़ते,घुमड़ते विचारों को भाषा का -फटा-पुराना ही सही- जामा पहनाकर ब्लॉग रूपी उपवन में सजाने की. इस सार्थक (?) प्रयास को सिरे से नकार देना शायद सही नहीं. यदि एक ब्लॉगर तरह तरह की तकनीकी, भाषाई व साहित्यिक अज्ञान की तमाम अड़चनों के बाद भी अपने व अपने आसपास के अनुभवों के बारे में लिख रहा है तो हमें इसका स्वागत करना चाहिये.
मुझे लगता है अंतर्जाल पर हिन्दी को अपना वर्चस्व स्थापित करने से पूर्व कई पड़ावों से गुजरना है. कई तरह की तकनीकी दिक्कतें हैं जो धीरे धीरे दूर हो रही हैं. जैसे जैसे कंप्यूटरों का उपयोग आम प्रचलन में आने लगेगा अपनी बात को दूसरों तक पहुचाने की ललक कई लोगों को ब्लॉगजगत से जोड़ेगी.वह अभिव्यक्ति के विस्फोट का दिन होगा. हिन्दी के वर्चस्व का दिन होगा. हमें उस दिन की प्रतीक्षा करनी होगी. हम मुख्य मीडिया से ज्यादा जिम्मेदार भी बनेंगे लेकिन अभी तो हमारा शैशव काल है अभी तो हमें ‘ब्लॉग-ब्लॉग’ खेलने तक ही सीमित रहने दें मंगलेश जी.
एक कविता मंगलेश जी के लिये.
‘काफल’ जब पकेंगे
तो लूण-तेल में मिला के खा लेंगे
और जोका ना लग जाये इसलिये
‘पानी’ भी ना पियेंगे
तब तक ‘हम जो देखते हैं’
हमें देखने दें
और ‘पहाड़ पर टंगी लालटेन‘
दिखाती रहे ‘घर का रास्ता’
एमानुएल ओर्तीज की कविता कहां खोई थी? ये डबराल, मुल्ला नसीरुद्दीन तो नहीं हैं? सुई घर में खोई और ढूंढ़ लेम्प पोस्ट के पास रहे हैं – क्यों कि रोशनी घर में नहीं लेम्प पोस्ट के पास है!
डबराल ब्लॉग जगत में भी ढेरों हैं जी। पूरा कुनबा है!
मैने इन डबराल का नाम नहीं सुना.कौन है यें? हाँ मैने फुरसतिया का नाम सुना है, निर्मल आनंद को पढ़ा है, ज्ञान दत्त जी से वाकिफ हूँ, काकेश को जानता हूँ, घुघुती जी अपनी सी लगती हैं..तो क्या मैं गलत हूँ.डबराल जी अपने चारण भाटों द्वारा लिखे गये को अपने नाम से छ्पवाते हैं. सबसे ज्यादा व्यक्तिगत तो आप जैसे पत्रकार लोग ही हैं. इनके ब्लॉगों पर जाकर तो देखिये सिर्फ अपने जैसे पत्रकारों के नाम ही मिलेंगे.काकेश जी इन्हे हिन्दी ब्लॉगस के धुरंधरों से खतरा है. इसलिये आप जैसे लोगों की जड़ साफ कर देना चाहते हैं ये.बाहर के बड़े बड़े लेखकों के नाम लिख कर आम लोगों को डराना चाहते हैं.अधिकतर जब भी प्रिंट मीडिया में कुछ छ्पता है तो क्यों कुछ ही पत्रकारों के ही नाम होते है या फिर उनके जो आपके गुट के हैं आपकी खिलाफत नहीं करते.आप चाहते हैं नये आने वाले लोग इन्ही पत्रकारों को धुरंधर मानें और इनकी चाटुकारिता करें.
आप हिन्दी ब्लॉगिंग को अभी तक समझे नहीं डबराल जी. खुद का एक ब्लॉग बनाइये और उस पर लिखना चालू कीजिये. खुद को छ्पवा के बहुत पैसा कमा लिया होगा अब कुछ बिना पैसे का भी कीजिये. याद रखिये आप भले ही कितने बड़े हों लेकिन ब्लॉग की दुनिया में आय्ंगे तो आप नवजात ही होंगे. आपसे पहले वाले ज्ञान दत्त या काकेश आपसे वरिष्ठ ही कहें जायेंगे.
देखिये तो सही दुनिया उन मार्कूजों, ओर्तीजों या ऑक्टोवियॉ पाज से हटकर भी कुछ है.
काकेशजी, आपके लेख की ये लाइनें ब्लॉगर्स को सबसे ज्यादा ध्यान में रखनी होंगी
‘दोष पाठकों का नहीं वरन उन चंद साहित्यकारों का है जिन्होने भाषा के ऎसे किले बनाये जिनके भीतर पहुंचकर वो खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें और नये आने वाले व्यक्तियों को उन किलों को फतह करने के लिये ऎसी कड़ी परीक्षाओं से गुजरना पड़े कि वो पहुंचने से पहले ही टें बोल जाये.इसी लिये हिन्दी साहित्य गुटबाजियों, पुरुस्कार राजनीतियों और चारण-भाटों का अड्डा बन गयी है. हम चितित है हिन्दी के लिये लेकिन नियमों में ढील नहीं देंगे’
इसमें साहित्यकारों के साथ पत्रकारों को भी जोड़िए। मैं भी पत्रकार हूं, इसलिए और अच्छे से जानता हूं। इसी खामी ने पत्रकारों, साहित्यकारों का बेड़ा गर्क कर दिया। मठ बना दिए। ब्लॉग पर ढेर सारे लेख अखबारों के संपादकीय पन्ने पर छपने वाले लेखों से कई गुना अच्छे होते हैं। यहां एक पन्ने के तीन लेख में से एक छपाने के लिए संपादकीय चरण वंदन भी नहीं करना पड़ता ये शायद डबराल जी को नहीं पता। इसलिए ब्लॉग लेखन सहजता से होता है। सच्चाई तो ये है कि यहां किसी को जानने की जरूरत नहीं है। लिखने के लिए किसी का संदर्भ देने की जरूरत भी नहीं होती। लिखते रहिए लोग जानेंगे, जुड़ेंगे।
मंगलेश डबरालजी की चिंतायें जायज होंगी लेकिन आपकी प्रतिक्रिया धांसू च फ़ांसू है। मैं आपसे केवल एक बार मिला लेकिन बेहद अपनापा महसूस करता हूं। कारण आपने बताये ही हैं। 🙂 मंगलेशजी अपना ब्लाग बना लें और एकाध महीना लिखें तो शायद और बेहतर सलाह दे सकें। फ़िलहाल तो ये कविता बांचे जो हमने कभी अपने ब्लाग पर पोस्ट की थी-
हम न हिमालय की ऊंचाई,
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढे. हम,
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं
हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है.
हम जमीन पर ही रहते हैं
अंबर पास चला आता है.
–वीरेन्द्र आस्तिक
मेरी ऐसे लेखों पर मिश्रित प्रतिक्रिया करने का मन होता है। ऐसे ज्यादातर लेख व्यू फ्रॉम द फेंस ही होते हैं, ऐसे लोग लिखते हैं जिन्होंने ब्लॉग कभी नहीं लिखा और लेख लिखने के लिये ब्लॉग पढ़े, सराय के रविकांत और बालेंदु जैसे लोग भी हैं जो चिट्ठाकारी या तो नहीं करते या कम करते हैं पर सतत दृष्टि रखते हैं चिट्ठों पर। पर जो लेख खुद चिट्ठाकारों ने लिखे हैं वे भी आत्ममुद्धता से लबरेज़ हैं, हमारा मुहल्ला, हमारी भड़ास, ये अपनी बिरादरी के बाहर के चिट्ठाकारों को न अपने ब्लॉग पर तवज्जोह देते हैं न अपने लेखों में। मुझे नीलिमा के शोध के दौरान के लिखे पोस्ट ज्यादा जमते थे, वे आँकड़ों के साथ कुछ तथ्यात्मक बात करते रहे हैं। खैर जो भी हो अच्छी बात ये हे कि विधा को और लोग आजमाने को प्रेरित हो रहे हैं इन लेखों को पढ़ कर और मुझे विश्वास है जब वे इस झील में दो डुबकियाँ स्वयं मार लेंगे तभी ब्लॉगजगत का हिस्सा बनने की अनुभूति का आस्वादन कर पायेंगे।
मन हर लेने वाला लिखा है. बहुत बहुत साधूवाद.
मैं तो कहता ही रहा हूँ, भाड़ में जाये साहित्यिक भाषा और वर्तनी. यह मेरा ब्लॉग है, मेरी बात है और मेरी भाषा है. पसन्द हो तो पढ़ो.
इन्हे खतरा महसुस हो रहा है, इसलिए मिनमेख निकाल रहे है. प्रतिदिन “किसी भी “कचरा” ब्लॉग को” डाबरवालजी को जितने पढ़ते होंगे उससे ज्यादा लोग पढ़ते है.
आत्ममुग्धता कित्ता मन भाये?
डबराल जी जिनकी कवितायें पढ़ना चाहते हैं, उन कविताओं की किताबें उपलब्ध नहीं होंगी शायद. लेकिन हो सकता है आनेवाले दिनों में उनके ज़रूरत के हिसाब से कवितायें मिलें ब्लॉग पर.
वैसे आज ही मैंने देखा कि बल किशन जी ने सूडान की महान कवियित्री शियामा आली की एक कविता छपी है अपने ब्लॉग पर. शायद डबराल जी की फरमाईश को कुछ हद तक पूरी करने चाहते हैं.
प्रभाष जोशी ने एक बार कागद कारे में लिखा था मंगलेश डबराल के लिए जरूरी है कि वे घर की ओर लौटें. पहाड़ की यह कविता उन्हें जरूर कुछ प्रेरणा देगी. काफल तो मैंने भी खाया है लेकिन पानी न पीने वाला सिद्धांत नहीं जानता था.
“दोष पाठकों का नहीं वरन उन चंद साहित्यकारों का है जिन्होने भाषा के ऎसे किले बनाये जिनके भीतर पहुंचकर वो खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें और नये आने वाले व्यक्तियों को उन किलों को फतह करने के लिये ऎसी कड़ी परीक्षाओं से गुजरना पड़े कि वो पहुंचने से पहले ही टें बोल जाये”
इस वाक्य एक हजार एक परसेंट सहमत हूं.
[काकेश: संजय जी ऎसा कहा जाता है कि काफल खाने के बाद यदि तुरंत पानी पिया जाये तो जोका (उलटी-दस्त) लग जाता हैं]
झगड़ा काहे का है,
ब्लाग भी एक माध्यम है।
जैसे घटिया बढ़िया प्रिंट जगत में है, वैसे ही ब्लाग जगत में ही है।
पर ब्लागिंग का मामला ज्यादा लोकतांत्रिक है।
यहां तो माल बनाकर सीधे ग्राहकों के दर पर आवाज दी जा सकती है, ले लो आलोक पुराणिक की अगड़म बगड़म ले लो।
प्रिंट जगत में संपादकों का माध्यम जरुरी है।
दोनों माध्यम एक साथ रह रहे हैं, रह सकते हैं।
यह आपसी लगाव इसलिये कि हम एक दूसरे के लेखन में खुद को महसूस कर पाते हैं. हमारे दर्द,खुशी,प्यार,रिश्ते,सामाजिक सरोकार किन्ही दूसरों के लेखन में दिखायी पड़ते हैं.उन्हे हम अपने दिल के करीब मानते है.हम सहज भाव से ही बिना मिले ही वो रिश्ते जोड़ लेते हैं जो लोग बरसों साथ रहने से भी नहीं जोड़ पाते..satya vachan…aur bhi mahatvpuurn baaten aapkey lekh ke maadhyam se saamney aayin….aabhaar
सही लिखा दोस्त!
काकेश जी, आपसे सहमत हूं ।
एक सही जवाब दिया है आपने।
मैं ज्यादा ज्यादा दूर नही जाऊंगा, अपने आसपास ही देखता हूं तो पाता हूं कि साहित्य जगत पर चंद लोगों की गोलबंदी है, खेमेवाजी में बंटे ये लोग अपने को इतना असुरक्षित महसूस करते हैं कि किसी नए के कुछ लिखे को कूड़ा साबित करने के लिए तमाम हथकण्डे अपना डालते हैं
क्या बात है आपने तो हम जैसों को ज़ुबान दे दी है…. पर एक बात मंगलेश जी के बारे में जो टिप्पणियाँ देख रहा हूँ, प्रतिक्रियास्वरूप जिस तरह की टिप्पणियाँ मंगलेश जी के बारे में है उससे मै सहमत नहीं हो पा रहा,
kakesh bhai,ek ek shabd apni lagi bhale apna vyaktigat parichay na ho.ab aur kuch bhi kahne ki aawashyakta nahi.
saadhuwaad.
सबको नमस्कार,
काकेश जी के इस “उत्तेजक” लेख और आप सब की टिप्पणियों पर मेरी प्रतिक्रिया:
१. “उन्होने हिन्दी ब्लॉग बिरादरी के बारे में कहा कि इसमें ‘एक आपसी लगाव इसलिए भी दिखता है कि उनके आयोजक स्वाभाविक रूप से मिलते जुलते हैं'” सही बात है हिन्दी ब्लोग्स की दुनिया अभी छोटी है – या यूं कहें कि बहुत छोटी है. भले ही लोग रोज शारीरिक रूप से न मिलते हों मगर वही भाषा वही विचार साम्य – तो लगाव तो होगा ही! उसमे बुरा क्या है?
२. एमानुएल ओर्तीज या फ़िर किसी भी धुरंधर की कोई रचना यहाँ न मिलने से ब्लॉग जगत का कोई सरोकार नही है. बे सिर पैर की बात है !
३. “हिन्दी साहित्य का नुकसान उन्ही लोगों ने किया है जिन्होने अभिव्यक्ति को भाषाई व्याकरण के इतने कड़े नियमों में बांध कर रख दिया कि वो आम आदमी से दूर होती चली गयी” – किसी ने अंग्रेज़ी के बारे में कहा था – “Grammar is a bitch” – और देखिये आज अंग्रेज़ी कहाँ है. हिन्दी भाषा का प्रचार प्रसार दूरदर्शन पर विज्ञापन दिखाने या फ़िर गोष्ठियों में चर्चा करने से नहीं वरन ब्लोगिंग से होगा. सही माने अगर नई पीढ़ी के लोग अगर हिन्दी ब्लोगिंग से जुड़ जाएँ तो वह हिन्दी भाषा के लिए एक लाईफ लाइन होगी. वैसे इस मामले में हम सही मायने में थोड़े कच्चे हैं 🙁
वैसे मैं हिन्दी ब्लॉग जगत में इतना लिप्त नहीं हूँ ,थोड़ा नया हूँ और यह ख्याल एक बाहरी व्यक्ति के भी हो सकते हैं. मगर आईने से क्या डरना?
सौरभ
ब्लागिंग “लोकतांत्रिक ” है।
आपने सच लिखा है — काकेश जी — विश्वजाल के जरीये,
सभी को एक समान तखत मिला है — कोई ऊँचा नहीँ कोयी नीचा नहीँ
मनुष्य मात्र को अभिव्यक्ति, स्वतँत्रता और आत्म सँतुष्टी से मूल भूत लगाव रहा है
और आज के सम्चार युग मेँ ये खुलकर, दीखलाई दे रहा है
— लावण्या
हिन्दी साहित्य या हिन्दी पत्रकारिता से कोई खास परिचय नहीं इस लिए उस पर कुछ कहना मुशकिल है,पर कुछ सवाल जो मेरे मन में भी है वो आप ने भी उठाये है
एक ब्लॉगर क्यों लिखता हैं?आज हर ब्लॉगर एक साहित्यकार, मँजा हुआ लेखक या पत्रकार नहीं है.बहुतों के पास लिखने की कोई मजबूरी भी नहीं है.वो अच्छी तरह से कमा खा रहे हैं. लेकिन अन्दर ही अन्दर एक बेचेनी है.. खुद को अभिव्यक्त करने की…. अपने उमड़ते,घुमड़ते विचारों को भाषा का -फटा-पुराना ही सही- जामा पहनाकर ब्लॉग रूपी उपवन में सजाने की.
ये खुद को अभिवयक्त करने की बैचेनी क्युं होती है, इसका जवाब मै भी खोज रही हूं अपने भीतर अभी तक नही पाया… आप कुछ रोशनी डाल सके तो मुझे अच्छा लगेगा।
फ़ुरसतिया जी की कोट की हुई कविता अच्छी लगी सो चुरा कर ले जा रही हूं बिना इजाजत, सजा सुना दी जाए…:)
ham to saahab adane se aadmi hain bade bade log
badeeee bade bate hone wale theri
ब्लॉग ke bare main jankari
u have rightly said, great reply
kakeshji badiya kar rahe hain hindi blog aage bad raha use koi nahi roke sakata jahna tak excelence ka sawal hai to bhaiya ye public hai ye sab janati hai