उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद..

पिछ्ले लेख में आपने उमर खैयाम और उनकी प्रसिद्ध रुबाईयों के बारे में जाना.अब आगे पढिये.

3. रुबाइयों के अंग्रेजी अनुवाद: उमर खैय्याम की रुबाइयों के कई अंग्रेजी अनुवाद हुए.लेकिन इन सभी अनुवादों में जो सर्वप्रमुख और सर्वप्रसिद्ध अनुवाद है वो है जॉन फिट्जराल्ड का. जॉन का पहला अनुवाद सन 1859 में आया उसके बाद इसी अनुवाद के कुल पांच संस्करण आये. पहला संस्करण  – 1859 ,दूसरा संस्करण  – 1868, तीसरा संस्करण  – 1872 , चौथा संस्करण  – 1879 और पांचवां संस्करण  – 1889 में आया. पहले चार संस्करण जॉन के जीवन काल में ही प्रकाशित हो गये थे. पांचवा संस्करण उनके मृत्युपरांत,उनके द्वारा छोड़ी गयी अधूरी पांडुलिपि से तैयार किया गया.

Rubaiyat अन्य प्रमुख अनुवादों में हैं एडवर्ड हैनरी विनफील्ड का अनुवाद जो उन्होने 1882-83 के दौरान अपना अनुवाद प्रकाशित किया. इसके अलावा भी रुबाइयों के कई अनुवाद हुए. इनके बारे में पूरी जानकारी आप अंग्रेजी में यहां देख सकते हैं.  

एक उदाहरण चार अनुवादों का देना चाहुंग़ा. ( इनमें से तीन किताबें मैने पुस्तकालय में पढ़ी है और कुछ पंक्तियां मेरी डायरी में नोट हैं उन्ही में से कुछ उदाहरण )

ये है फिट्जराल्ड की एक पंक्ति

Whether at Naishapur or Babylon,
Whether the Cup with sweet or bitter run,
The Wine of Life keeps oozing drop by drop,
The Leaves of Life keep falling one by one.

शायद उसी पंक्ति का अनुवाद एडवर्ड विनफील्ड द्वारा

When life is spent, what’s Balkh or Nishapore?
What sweet or bitter, when the cup runs o’er?
Come drink! full many a moon will wax and wane
In times to come, when we are here no more.

आर्थर टालबोट जिनकी किताब 1908 में प्रकाशित हुई. उसी पंक्ति का अनुवाद.

Who cares for Balkh or Baghdad? Life is fleet;
And what though bitter be the cup, or sweet,
So it be full? This moon, when we are gone,
The circling months will day by day repeat.

रिचर्ड ब्रॉडी की किताब 2001 में आयी जिसे अभी तक किसी पुस्तकालय में खोज नहीं पाया.इस किताब की कुछ पंक्तियां नैट पर कभी मिली थीं.

If  People one safe happy Zenith know,
Or trapped by Hell with Woe in Terror be;
Ah, the bubbly River of our fleeting Weeks
Doth flow unceasing there into the Sea

आप देखंगे कि ब्रॉडी का छ्न्द विधान उमर के छंद की तरह नहीं है.बांकी तीनो ने उमर के छंद को ही रखा है.

4. रुबाइयों के हिन्दी अनुवाद.

अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी में भी रुबाइयों के कई अनुवाद हुए. जिनमें कुछ अनुवाद बच्चन जी की मधुशाला के पहले के हैं और कुछ बाद के. बच्चन जी की मधुशाला 1935 में छ्पी थी.उस बारे में चर्चा बाद में.

हिन्दी में सबसे पहला अनुवाद शायद पंडित सूर्यनाथ तकरू द्वारा किया गया था. 1931 में पंडित गिरिधर शर्मा नवरत्न ने भी रुबाइयों का अनुवाद किया जो नवरत्न-सरस्वती भवन, झालरापाटन से छ्पा था. पंडित जी ने रुबाइयों का संस्कृत अनुवाद भी किया जो 1933 में छ्पा था. 

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने सन 1931 में उमरखैयाम की रुबाइयों का अनुवाद किया था. यह पुस्तक रुबाडयात उमर खय्याम के नाम से कानपुर के प्रकाश पुस्तकालय से प्रकाशित हुई थी.इस किताब को भी मैने ढूंढने की कोशिश की लेकिन नहीं मिली. कानपुर में माल रोड में पहले एक दुकान हुआ करती थी जहां हिन्दी की अधिकतर किताबें मिल जाया करती थी. वहां इस किताब के बारे में पता करने पर मालूम हुआ कि ये आउट ऑफ प्रिंट है लेकिन इसको जल्दी ही छपवाया जायेगा. ये बात आज से करीब 12-13 साल पहले की है. पता नहीं कि ये दुबारा छपी या नहीं.

1932 के आसपास पंडित केशव प्रसाद पाठक का हिन्दी अनुवाद आया.ये इंडियन प्रेस लिमिटेड जबलपुर से आया था. 1932 में ही पंडित बलदेव प्रसाद मिश्र का अनुवाद प्रकाशित हुआ, जो मेहता पब्लिशिंग हाउस, सूत टोला, काशी से छ्पा था. हिन्दी साहित्य भंडार, पटना से 1933 में डॉक्टर गयाप्रसाद गुप्त का अनुवाद भी छ्पा.

इसके अलावा मुंशी इक़बाल वर्मा ‘सेहर’ ने रुबाइयों का अनुवाद किया जो इंडियन प्रेस,प्रयाग से छ्पा. ये अनुवाद मूल फारसी से किया गया था. लखनऊ के पं. ब्रजमोहन तिवारी के अनुवाद भी कुछ पत्रिकाओं में छ्पे थे. 1940 में अल्मोड़ा के तारा दत्त पांडे ने भी रुबाइयों का कुमांउनी में अनुवाद किया.बाद में चारु चन्द्र पांडे ने इस पुस्तक का कुमाउंनी से हिन्दी में अनुवाद किया. ये किताबे इस साल फिर से प्रकाशित की जानी है. प्रकाशित होते ही आपको इनके बारे में भी बताऊंगा.

1938 में श्रीयुत रघुवंश लाल गुप्त का अनुवाद,किताबिस्तान,प्रयाग से प्रकाशित हुआ.1939 में जोधपुर के श्रीयुत किशोरीरमण टंडन ने भी एक अनुवाद किया.पंडित जगदम्बा प्रसाद ‘हितैषी’ ने बहुत दिनों से रुबाइयात उमर खैयाम के ऊपर काम किया और उनकी पुस्तक का नाम शायद ‘मधुमन्दिर’ था.

1948 में भारती भंडार,प्रयाग द्वारा सुमित्रानंदन पंत का अनुवाद प्रकाशित हुआ. जो “मधुज्वाल” के नाम से प्रकाशित हुआ था. इस की विस्तृत चर्चा हम आगे करेंगे.  

क्रमश: ……

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

11 comments

  1. मानो न मानो, यह एक ऐतिहासिक प्रयास है. आप छा चुके हैं. पूरी तरह से आनन्दमयी वातावरण हो चुका है. क्रमशः का इन्तजार है. पूरा होने के बाद इसे किसी प्रिंट मिडिया के थ्रू भी आम जनता तक पहुँचाने की कोशिश करें. आप सादुवाद के पात्र है, वाकई, मात्र टिप्पणी वाले नहीं. 🙂

  2. काकेश

    बहुत अच्छा कार्य कर रहे हो.
    इकुछ अनुपलब्ध किताबें डिजिटल लायव्रेरी में उपलब्ध हैं. लिण्क देखें

    http://www.new.dli.ernet.in/

  3. इतने बड़े-बड़े हस्ताक्षर जुड़े हैं उमरखय्याम की रुबाइयों का अमृत पीने को. कोई शक नहीं होना चाहिये उनकी विलक्षणता या कालजयी होने पर.
    पुन: धन्यवाद.

  4. जारी रखेँ काकेश भाई …और मनीष भाई के आलेख के साथ इसे जोड कर एक सँपूर्ण शोधात्मक आलेख
    हर हिन्दी साहित्य से जुडे समाचार पत्र व पत्रिकाओँ मेँ देना जरुरी है .
    वीकीपीडीया पर भी इसे रखना चाहीये.
    अगली किस्त के इँतज़ार मेँ ..
    — स्नेह,
    — लावण्या

  5. काफ़ी शोध की है आप ने इस पर्। मुबारकबाद और धन्यवाद, समीर जी की सलाह पर जरूर गौर करें।

  6. मिसफिट Misfit,மிச்பிட்,మిస్ఫిత్ ,ಮಿಸ್ಫಿತ್ ,മിസ്ഫിറ്റ്
    स्वर्गीय केशव पाठक URL:http://sanskaardhani.blogspot.com/2008/11/blog-post.html
    पर आपके आलेख को संदर्भित किया है
    आपसे सहमति के बगैर यदि आप असहमत हों तो
    कृपया अवगत कराइए
    वैसे आपके इस आलेख में काफी गहरे अध्ययन की झलक मिली
    आपका अच्छी पोस्ट के लिए आभार

  7. मान्यवर
    यदि अनुमति मुझे ब्लॉग पर ही मिल जाए तो
    मुझ पर उपकार होगा
    भवदीय
    गिरीश बिल्लोरे मुकुल
    09926471072

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