एक व्यंग्य पुस्तक का विमोचन

पिछ्ले दिनों एक कार्यक्रम में जाना हुआ. वो कार्यक्रम एक किताब के विमोचन के अवसर पर रखा गया था. किताब चुंकि व्यंग्य संग्रह थी इसलिये तमाम व्यंग्यकारों को भी दावत दी गयी थी.दावत दी गयी थी मैने इसलिये लिखा कि छपे हुए निमंत्रण पत्र में नीचे हाथ से लिखा था कि कार्यक्रम के बाद आप मेरे निवास स्थान पर भोजन के लिये आमंत्रित हैं. निमंत्रण भेजने वाले खुद एक व्यंग्यकार थे और उन्ही की पुस्तक का विमोचन भी होना था तो हम उनका व्य़ंग्य समझ गये और घर में ये ताकीद करके गये कि मेरा खाना बना देना वरना घर में इस लिये उल्लास का माहौल था कि चलो एक दिन खाना कम बनाना पड़ेगा. खाना कम मतलब पच्चीस रोटी,जो कि खाकसार कि डाइट थी जब वह डाइटिंग में थे,कम बनानी पड़ेगी.कार्यक्रम व्यंग्यकारों का था और उसमें हम समेत अनेक ऎसे लोगों को बुलाया गया था जो इस खुशफहमी में थे कि वो व्यंग्यकार है जबकि दरअसल बुलाने  की वजह ये थी कि इसी खुशफहमी में सब लोग अपनी अंटी ढीली कर उनकी किताब तो खरीद ही लें.

निमंत्रणकर्ता ने कार्यक्रम वाले दिन फोन भी किया ये आश्वस्त करने के लिये कहीं मुझे उनकी चाल का पता ना चल जाये और मैं अपना जाना कैंसल ना कर दूँ. उन्होने विशेषकर यह भी बताया कि कार्यक्रम ठीक छ्ह बजे प्रारम्भ हो जायेगा आप समय से आ जायें. कार्यक्रम में मुख्य अथिति एक पूर्व मंत्री थे. मुझे इसी से समझ जाना चाहिये था कि कार्यक्रम साढ़े सात बजे से पहले चालू नहीं होगा फिर भी उनकी बात को रखने और अपने टाइम को पास करने के लिये मैं साढ़े छ:ह बजे मौकाये-वारदात पर पहुंच गया. वहां जाकर लगा कि देश सचमुच की तरक्की कर रहा है जहां हम जैसे मूर्खों की संख्या कम होती जा रही है. वहां मेरे अलावा कुल मिला के सात-आठ अन्य मूर्ख और थे उनमें से भी पांच-छ्ह आयोजक मंडली के सदस्य थे.

ऎसे मौकों पर जाते हुए मुझे हमेशा ड्रेस की समस्या होती है कि क्या पहनूं. टी-शर्ट जींस या कुर्ता-पायजामा. आमतौर पर ऎसे मौकों पर खादी के कुर्ता पायजामा और झोले का प्रचलन रहा है लेकिन आजकल एक तो खादी के बारे में लोग गांधी जयेंती के अलावा और किसी दिन बात करना पसंद नहीं करते दूसरे आजकल हिन्दी के तथाकथित साहित्यकार खादी के कुर्ता पायजामा को पिछ्ड़ेपन की निशानी मानते हैं. वैसे भी देश की आजादी के बाद नेताओं ने खादी के कुर्ता पायजामें की इतनी मट्टी पलीत की है कि आजकल आप खादी का कुर्ता पायजामा पहन कर निकल जाओ तो सामने कोई कुत्ता भी ना आये.हर कुत्ता अपने से बड़े कुत्ते से स्वभावत: डरता ही है. खैर मैं इसी उहापोह में था कि क्या पहनूं कि पत्नी जी ने कहा कि कुर्ता और जींस पहन लो. उन्हे इस बात का डर भी था कि कहीं मैं ड्रेस का चुनाव ना कर पाने की स्थिति में अपना कार्यक्रम बदल ना दूँ. मैने उनकी बात वैसे ही मान ली जैसे करुणानिधि की बात सरकार मान लेती है.

इधर मंत्री जी का कहीं नामोनिशान नहीं था.आयोजक महोदय ने माइक पर आकर कहा कि नॉर्मली हम आधे घंटे की लेट करते हैं लेकिन आज थोड़ा विलंब हो रहा है मंत्री जी बस पधारने ही वाले हैं. हम समझ गये कि अभी और एक घंटा लगना तय है. हम अपने आसपास की स्थिति परिस्थितियों का जायजा लेने लगे. क्या तो सुन्दर दृश्य था.लोग धीरे धीरे आना शुरु हुए. कोई किसी के गले मिलकर अपने झूठी प्रसन्नता दिखा रहा था कोई हाथ जोड़ के मन ही मन अगले को गाली दे रहा था. लोगों की मुख की प्रसन्नता और बढ़ती हुई तोंद इस बात की गवाही दे रही थी कि वो कितने बड़े साहित्यकार हैं. अपने चारों और व्यंग्य की इतनी बड़ी बड़ी फैक्ट्रियों को देख के मन गदगद हो गया. हमारे देश में इतना कुछ मसाला है कि इतने सारे व्यंगकारों की रोजी रोटी चल रही है. जीवन में पहली बार मुझे अपने नेताओं,टी वी चैनलों,फिल्मवालों,क्रिकेटरों को धन्यवाद देने का मन किया कि चलो किसी का भला तो उन्होने किया.मुझे लगा कि मैं जैसे व्यंग्य की बाढ़ के मध्य अपना तिनके का सहारा ढूंढ रहा हूँ. ‘संतो भाई आई व्यंग्य की आंधी’ वाली अवस्था थी.

देर सबेर मंत्री जी आये और उन्होने अपनी आदत के मुताबिक देरी के लिये क्षमा मांगी.फिर भाषणों का सिलसिला चालू हुआ. जैसा कि श्रद्धांजली सभाओं में होता है कि मरने वाले की तारीफ ही की जाती है वैसी ही परंपरा विमोचन समारोहों की भी है. इनमें विमोचित किताब की जम कर तारीफ की जाती है. लेकिन इस कार्यक्रम में कुछ और भी हुआ. किताब की तारीफ के साथ साथ दूसरों की बुराई भी की गयी.ये विमोचन की परम्परा में एक नया आयाम था.ये भी कहा गया कि हिन्दी में अच्छे व्यंग्य नहीं लिखे जाते. हिन्दी में अच्छे व्यंग्य उपन्यासों का अभाव है. सामने तथाकथित व्यंग्यकार बैठे थे फिर भी कहा गया कि अक्छे व्यंग्यकारों की कमी है.मंच पर विमोचित हो रही पुस्तक के लेखक भी बैठे थे.वो मंद मंद मुसका रहे थे.अपने दुश्मनों को गाली खाता देख जो शुकुन मन में होता है वैसा हे शुकुन उनके चेहरे पर पसरा था. वो सोच रहे थे मानों कह रहे हों कि देखो तुम्हें खाने का लालच देके बुलाया गया ,फिर गरियाया गया अभी तुमसे किताब भी खरिदवायी जायेगी. सब लोगों ने किताब की खूब तारीफ की. मंत्री जी ने माइक पर आ के उन्ही तारीफों को फिर से दोहराया. किताब के कुछ अंश पढकर सुनाये गये.जिन पर ना चाहते हुए भी सारे लोग हँसे.मंत्री जी ने सबकी आत्मा को उलाहना भी दिया कि हिन्दी के लोग खरीदकर किताबें नहीं पढ़ते.सबको अपराधभाव महसूस हुआ. ये कहते कहते कैमरे की लाइटों के मध्य किताब विमोचित हो गयी.

कार्यक्रम की समप्ति पर जैसे लोग चैन की सांस लेते होंगे वैसे ही हमने भी ली. मजबूत इरादे और अपनी आत्मा की इज्जत को बनाये रखने की खातिर हमने भी किताब खरीदने का निर्णय किया. किताब के काउंटर पर बहुत भीड़ थी.किताब के लिये मारामारी थी. एक बार फिर सिद्ध हो गया कि दुनिया में केवल हम ही मूर्ख नहीं थे. किसी तरह से एक किताब खरीदकर बिना खाना खाये हम भी घर आ गये. मन में शुकून था कि चलो किताब मिल गयी.

चिट्ठाजगत चिप्पीयाँ: हास्य व्यंग्य, काकेश, विमोचन, हिन्दी

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

11 comments

  1. काकेश डीयर किताब इत्ती बढ़िया है इत्ती बढ़िया है कि सारी शिकायतें दूर हो जायेंगी। मुश्ताक साहब से हम सबकी बहुत कुछ सीखना है। बोले तो इसे व्यंग्य की टेक्स्ट बुक मानो।

  2. किसी तरह से एक किताब खरीदकर बिना खाना खाये हम भी घर आ गये. मन में शुकून था कि चलो किताब मिल गयी.
    —————————————-

    किताब पढ़ी कि नहीं? खरीदी तो हमने भी ढ़ेरों हैं, पर पढ़ने का इंतजार ही कर रही हैं. ढ़ेरों अधूरी पढ़ी रखी हैं!

  3. “कार्यक्रम व्यंग्यकारों का था और उसमें हम समेत अनेक ऎसे लोगों को बुलाया गया था जो इस खुशफहमी में थे कि वो व्यंग्यकार है जबकि दरअसल बुलाने की वजह ये थी कि इसी खुशफहमी में सब लोग अपनी अंटी ढीली कर उनकी किताब तो खरीद ही लें.”

    जो व्यंगकारों से अंटी ढीली करवा ले वही असली व्यंगकार है….मैंने कवि को अंटी ढीली करवाते सुना है, वो भी चोरों की…हुल्लड़ मुरादाबादी की ये कविता देखिये….

    क्या बताये आपसे हम हाथ मलते रह गए
    गीत सूखे पर लिखे थे, बाढ़ में सब बह गए

    भूख, महगाई, गरीबी इश्क मुझसे कर रहीं थीं
    एक होती तो निभाता, तीनो मुझपर मर रही थीं
    मच्छर, खटमल और चूहे घर मेरे मेहमान थे
    मैं भी भूखा और भूखे ये मेरे भगवान् थे
    रात को कुछ चोर आए, सोचकर चकरा गए
    हर तरफ़ चूहे ही चूहे, देखकर घबरा गए
    कुछ नहीं जब मिल सका तो भाव में बहने लगे
    और चूहों की तरह ही दुम दबा भगने लगे
    हमने तब लाईट जलाई, डायरी ले पिल पड़े
    चार कविता, पाँच मुक्तक, गीत दस हमने पढे
    चोर क्या करते बेचारे उनको भी सुनने पड़े

    रो रहे थे चोर सारे, भाव में बहने लगे
    एक सौ का नोट देकर इस तरह कहने लगे
    कवि है तू करुण-रस का, हम जो पहले जान जाते
    सच बतायें दुम दबाकर दूर से ही भाग जाते
    अतिथि को कविता सुनाना, ये भयंकर पाप है
    हम तो केवल चोर हैं, तू डाकुओं का बाप है

  4. आलोक जी आपने तो सीरियसली ले लिया ये तो व्य़ंग्य था.
    @शिव जी : क्या कहने कविता के.मजा आ गया.
    शीघ्र ही किताब के कुछ अंश ब्लॉग पर डालुंगा. पहले ये मधुशाला खतम हो जाये तब.

  5. बहुत बेहतरीन व्यंग्य कसा है-ऐसे ही एक विमोचनी समारोह में आग्रह के कच्चे होने की वजह से हमें भी जाना पड़ा. कविता भी झेली. अच्छे कवियों की कमी की जमात में गिनवाये जाकर गालियाँ भी सुनीं, ३५० रुपये की पुस्तक नगद खरीदी और हासिल आया, दो समोसा, एक गुलाबजामुन और एक चाय. 🙂

    किताब के कुछ अंश जो उन्होंने मंच से पढ़े, उसके बाद से उस किताब को खोलने की हिम्मत नहीं पड़ रही. दिखने में सुन्दर बन पड़ी है. 🙂

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