जैसा कि बताया जा चुका है कि मैथिलीशरण गुप्त और रघुवंश गुप्त दोनो ने उमर की रुबाइयों का हिन्दी अनुवाद किया था. आइये पहले मैथिलीशरण गुप्त के अनुवाद की चर्चा करें.
गुप्त जी अपनी भूमिका में लिखते हैं कि उन्हें उमर की रुबाइयों का हिन्दी अनुवाद करने के लिये राय कृष्णदास जी ने प्रेरित किया था. मैथिली जी फारसी नहीं जानते थे इसलिये उनका अनुवाद जान फिट्जराल्ड के अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित था. उन्होने फिट्जराल्ड के अनुवाद का शब्दश: अनुवाद ना कर भावानुवाद ही किया जिसमें कुछ वाक्य उन्होने अपनी ओर से भी बढ़ाये. उनकी इस पुस्तक में कुल 75 छ्न्द हैं. उन्होने भी छंद रचना में उमर के छंद को ही प्रयुक्त किया है. मदिरा , जो कि उमर की रुबाइयों का मूल तत्व है उसके लिये मैथिली जी मधु, अंगुरी, द्राक्षा,द्राक्षा-रस आदि का प्रयोग किया है.आइये कुछ पंक्तियां देखें.
आओ, मधुर बसंत विभा में मधु ढालो,भर दो प्याला,
अनुतापों के शिशिर-वसन से बढ़े होलिका की ज्वाला.
समय विहंगम को थोड़ा ही मार्ग पार करना है अब,
फैला दिये पंख लो, उसने,है वह उड़ने ही वाला.[7]
जीवन की नश्वरता के बारे में मैथिली जी लिखते हैं.
सांसारिक लिप्साऎं, जिन पर आशा करते हैं हम लोग,
मिट्टी में मिल जाती हैं सब पाकर सौ विघ्नों के रोग.
कहीं फूलती फलती भी हैं तो बस घड़ी दो घड़ी ही,
ज्यों मरु के धूसर मुख पर हो हिमकण की आभा का योग.[14]
उमर की रुबाइयां जीवन और मृत्यु के बीच झूलते मानव को बार बार अहसास कराती हैं कि इस जग में जो भी है वो क्षणिक है.चाहे आप जीवन में कितना भी पालें सब एक ना एक दिन छूटना ही है. इसी बात को मैथिली जी कहते हैं.
यह प्राचीन पथिकशाला है,अहो-रात्र जिसके दो द्वार,
खुलते और बन्द होते हैं बारी बारी बारंबार.
कितनी तड़क भड़क से इसमें आये हैं कितने सम्राट
एक द्वार से घुसे, घड़ी भर ठहरे,हुए अन्य से पार.[16]
भूमंडल के मध्य भाग से उठकर मैं ऊपर आया,
सातों द्वार पार कर ऊंचा ,शनि का सिंहासन पाया.
कितनी ही उलझने मार्ग में सुलझा डाली मैने , किंतु
मनुज मृत्यु की और नियति की खुली न ग्रंथिमयी माया.[31]
कब तक, किया करोगे कब तक इससे उससे वाद विवाद?
कब तक,बना रहेगा कब तक, यह चिर यत्नों का उन्माद ?
मरते हो किस फल के पीछे , वह कटु है या मिथ्या है,
अच्छा तो है यही ,छोड़ सब लो उस अंगूरी का स्वाद.[39]
यह उलटा प्याला है , जिसको आसमान कहते हैं हम,
जिसके नीचे मरते-जीते कसे गँसे रहते हैं हम .
है बेकार हाथ फैलाना ,किसी लिये इसके आगे,
पड़ा उसी चक्कर में यह भी ,विवश जिसे सहते हैं हम.[52]
हाँ मेरे बुझते जीवन को द्राक्षा-रस से दीप्त करो,
और उसी से मृत शरीर को धोकर उस की धूलि हरो
द्राक्षा-दल का कफन बनाकर उसमें मुझे लपेटो फिर ,
और किसी उद्यान-पार्श्व में गर्त बनाकर गाड़ धरो.[67]
पिछ्ले अंक में मैने बताया था कि उमर की रुबाइयों पर कई लोगों ने चित्र भी बनाये थे.मैथिली जी की इस पुस्तक में भी बीच में कुछ दर्जन भर चित्र भी हैं. ये सारे चित्र काशी के रामप्रसाद जी ने बनाये हैं. उमर की रुबाइयों पर आमतौर पर जो चित्र बनाये गये वो या तो फारस की सभ्यता की तड़क भड़क है या फिर जीवन के ऎहिक या श्रांगारिक तात्पर्य की अभिव्यक्ति. अपने दर्जन भर चित्रों और 75 छ्न्दों के साथ जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई तो हाथों हाथ बिक गयी.
अगले अंक में चर्चा करेंगे रघुवंश गुप्त के अनुवाद की.
यह श्रंखला आपको कैसी लग रही है टिप्पणीयों से बतायें…
क्रमश:…………………………
श्रंखला के पिछ्ले लेख. 1. खैयाम की मधुशाला.. 2. उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद.. 3. मधुशाला में विराम..टिप्पणी चर्चा के लिये 4. उमर की रुबाइयों के अनुवाद भारतीय भाषाओं में
चिट्ठाजगत चिप्पीयाँ: उमर खैय्याम, मधुशाला, रुबाई, बच्चन, हरिवंश, फिट्जराल्ड, मदिरा, नारायन दास, योगानंद, डुलाक, नजरुल
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मैथिलीशरण जी के बारे में यह जान कर मेरे ज्ञान-बैंक में इजाफा हुआ। धन्यवाद।
भई घणै ही पढ़ाकू हो लिये तो आप तो चलो अच्छा है, वरना लोग व्यंग्यकार को पढ़ा-लिखा सा मानतै।
पढ़ते पढ़ते ही सभी को नशा तारी हो गया
अब टिपियाने का भी होश नही बचा.
भाई बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप। क्या ये सारी पोथियाँ आपके पास हैं….
अरे, बहुत ज्ञानवर्धन कर गये. बहुत ही आभार, मित्र.
आज पहली बार इस चिट्ठे को पढने का अवसर मिला. अभी भी हम ब्लॉग जगत मे अज्ञानी ही माने जा सकते हैं. कैसे किसे कब और कहाँ पढ़ने के लिए ढूढाँ जाए , अभी भी कठिनता होती है.
आपका खज़ाना इतना है कि कई दिन लगेगे एक एक हीरा निकालने के लिए…
मिनाक्षी जी कई हीरा निकालने के लिए नहीं लगेगें , मट्टी कहां है, ढूढने में लगेगें, हीरों की तो खान है ये ब्लोग, काकेश जी बहुत ही दुर्लभ जानकारी दी है आपने , आभारी हैं , आप को शत शत प्रणाम
कई दिन