“नराई” के बहाने,चिट्ठाजगत पर बहस

कल स्वामी जी से मुलाकात हुई तो उन्होने ब्लौग लिखने के कई तरीके बताए. कई नयी बातें सीखने को मिली. य़े सत्य है कि आज भी हिन्दी चिट्ठाकरिता में उस विविधता की कमी है जो अन्य भाषाओं के ( विशेषकर अंग्रेजी ) के चिट्ठों में मिलती है लेकिन विकसित और विकाशसील का अंतर समाप्त होने पर ये विविधता अपनी हिंदी में भी आ जायेगी. स्वामी जी के लेख से प्रेरित हो आज कुछ नया (और मौलिक ) लिखने का प्रयास कर रहा हूं.

कुछ बातें यादों के रूप में आपसे चिपक जाती हैं . उनको आप अपने आप से बाहर नहीं निकाल सकते . उन्हीं यादों को जब आप मुड़कर देखते हैं तो “नराई” ( नॉस्टालजिया ) जैसा भाव पैदा होता है. ऎसे ही किसी “नराई” के बारे में लिखने बैठा हूं पर पहले कुछ और…..

हम , लोगों को जज करके एक खांचे में फिट कर देते हैं और फिर उन्हें उस खांचे से बाहर नहीं देख पाते . बहुत से सृजनात्मक माध्यम जैसे लेखन और फिल्म में यह बात अधिकांशत: लागू होती है . हम भारतीयों में यह खांचा बनना शुरु होता है किसी व्यक्ति के नाम से जिसमें उसका सर-नेम (जाति) भी आ जाती है .यदि मैं अपने ‘काकेश’ नाम से मुसलमान या हिन्दू विरोधी बात करूं तो पाठक उसे किसी और नजर से देखेंगे और यदि ठीक वही लेखन मैं किसी और नाम जैसे ‘क़माल अशरफ़’ से करूं तो उसी बात को पाठक किसी और नजरिये से देखेंगे .और फिर दूसरा खांचा बनता है व्यक्ति के व्यवसाय (प्रोफेशन) से .यदि मैं बोलूं कि मैं डाक्टर हूं तो मेरे स्वास्थ्य संबंधित लेखों की उपयोगिता लोगों की नजर में बढ़ जाएगी. आप कहेगें कि ये बात तो ठीक ही है कि एक डाक्टर की बात ज्यादा प्रमाणिक लगेगी ही .हाँ यह ठीक है पर आप तो लेखक की कही बात का ही भरोसा कर रहे हैं ना .कोई उसका प्रमाणपत्र तो सत्यापित नही कर रहे. ऎसे बहुत से खांचे हैं .एक ऎसा ही खांचा है अपने जन्मस्थान का . बहुत से हिन्दी चिट्ठों में भी ये खांचा प्रयोग होते दिखा. मैं यदि कानपुर की ठग्गू के लड्डू और बदनाम कुल्फी की दुकान या परेड के बाहर बिकती हुई सस्ती किताबों या फिर आर्यनगर की बिरयानी का जिक्र करने लगूं तो लोग समझेंगे कि मैं कान्हेपुर का हूं और फिर मेरे लेखन को भी स्तरीय समझने लगेगें :-). हाँलाकि देर सबेर अच्छा लेखन ही सराहा जाता है लेकिन चिट्ठाकारिता जगत में जहां एक रचना की उम्र बहुत ही छोटी होती है वहां ये खांचे लोगों की पठनीयता निर्धारित करते हैं और ब्लौगजगत में सफलता का पैमाना अच्छा लेखन नहीं अच्छी हिट्स होती हैं . अच्छी हिट्स ही अधिक टिप्पणीयों की जननी है और अधिक टिप्पणीयां ही आपकी लोकप्रियता और कमोबेश आपके अच्छे लेखन का मानक. यानि परोक्ष रूप से हम भी ये मानने लगे हैं अच्छा लेखन वही है जो ज्यादा पढ़ा जा रहा है बिल्कुल फिल्मी दुनिया की तरह .जहां बाक्स ऑफिस की सफलता ही एक अच्छी फिल्म की पहचान है ( जहां दादा कोंडके की “अंधेरी रात में….” गुरुदत्त की “कागज के फूल” से ज्यादा अच्छी फिल्म है ) . ये व्यवसायीकरण है..तो क्या हम हिन्दी चिट्ठाजगत को भी व्यवसायीकरण की ओर ले जा रहे हैं.

अभी हिंदी चिट्ठा जगत में लिखने वाले कम हैं किंतु हमारे आज के छोटे-छोटे कुछ कदम हमारे चिट्ठा जगत के भविष्य को निर्धारित करेंगे. जैसा कि कयास लगाया जा रहा है कि आने वाले समय में हिन्दी माध्यम से लिखने वालों की संख्या बहुत अधिक हो जायेगी तो नये चिट्ठाकारों के लिये हमारे ये मानक उनके लिखने के तौर तरीके निर्धारित करेंगे. यदि हम अंग्रेजी भाषा के ब्लौग्स को ही फॉलो करेंगे तो फिर यहां भी लोग उन विषयों को ज्यादा लिखेंगे जिनसे पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जा सके ( अभी भी भड़काऊ शीर्षक लगाकर अपने चिट्ठों में खीचने वाले चिट्ठाकारों की कमी हिन्दी चिट्ठाजगत में नहीं है ) . तब फिर लोग हिट्स के लिये ही लिखेंगे फिर स्वांत: सुखाय वाली भावना गौण हो जायेगी …तो क्या ऎसे में स्तरीय लेखन संभव होगा.

बहुत से लोग ये तर्क देंगे कि ये सब तो अंग्रेजी चिट्ठा जगत में ऎसे ही चल रहा है .य़े सच है इसीलिये वहां पौर्न लिखने वाले चिट्ठाकार ज्यादा चर्चा में रहते हैं और उनमें से कई व्यवसायिक रूप से ये लेखन कर रहे हैं और फिर ये आवश्यक तो नहीं कि जो अंग्रेजी चिट्ठा जगत में हो रहा है हम भी उसी का पालन करें हमारा देश भारत तो विश्व-गुरु रहा है कई मायनों में..तो क्यों ना यहां भी हम कुछ नया और मौलिक इस चिट्ठा-विश्व को दें.

य़े कुछ मुद्दे हैं जिनपर विचार करने की आवश्यकता है. हम मात्र मूक-दर्शक (फेंससिटर) बन कर नहीं रह सकते…

शेष फिर …… अगली पोस्ट में ..अभी तो चलें ऑफिस …

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By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

14 comments

  1. बात तो सही कही आपने पर कितने लोग इस बात को आज के दिन समझते है .हिन्दी ब्लोगिंग में अभी से गैंगबाजी चालू हो गयी है. सबके अपने अपने ग्रुप हैं सब अपनी अपनी दुकान चलाना चाहते हैं हिन्दी सेवा के नाम पर . ये सब अपनी अपनी कंपनिया खोल लेंगे और फिर उन्हें किसी बढ़ी कंपनी को बेच पैसा डकार जायेंगे . कुछ एक ने खोल भी दी है. ईतिहास लेखन शुरु हो गया है भाई . इन्ही के कुछ भाई भतीजे शोध करने भी पहुंच रहे हैं वो इस इतिहास को प्रमाणित कर देंगे और वो बन जायेगा ऑफिसियल . फिर सब जगह इनका ही नाम होगा. नाम की लड़ाई है भाई ये ,बाद में इसमें दाम भी जुड़ जायेगा. सब लोग मलाई खा लेंगे और पानी वाला दूध छोड़ देंगे आम जनता के लिये. आप जिस मौलिकता या रास्ता दिखाने की बात करते हैं वो यहां संभव नही . महिमामंडन के इस दुर्ग में सैंध लगाना सहज संभव नहीं . फिर भी कोशिस जारी रहे . शायद रेटिंग की दुकान चलाने वाले भी समझें इन्हें . अच्छा मौलिक लेख है .ऊपर देखो ना एक चोर दुकान्दार ने चिप्पी लगाकर आपका मजाक उड़ाया है. वैसे “चोर चोर मौसेरे भाई” . सावधान रहें इन से. लिखते रहें.. ज्यादा हो गया तो माफ करना भाई.

  2. खांचो से बचने के लिए मुखोटा एक समाधान हो सकता है ।

  3. बहुत बढिया लेख है! मेरे उस चिट्ठे लिखने का ध्येय प्राप्त हो गया.

    @anubhav, आप इंटरनेट से नादारद हिंदी और इंटरनेट पर व्यवसायिक/अव्यवसायिक रूप से उपलब्ध हिंदी दोनो में से क्या ज्यादा बेहतर स्थिती समझते हैं?

    नादारद से नारद बेहतर है! नारद से विशाद बेहतर होगा – हमें हर किस्म के लोगों की जरूरत होगी. लेकिन एक बात से सहमत नहीं हूं की किसी किस्म की गुटबाजी है, समूह में छोटे ग्रुप में काम करने वालों को गुट नहीं मंडली बोला जाता है – परियोजनाओं के स्वाभाव पर निर्भर है! महिमामंडन का बुखार उतारना आता है हमें -मेरा लेख पढ लीजियेगा भाग-२ इसी बारे में है – हां करने वालों का काम बोलता है! छिछलेदारी के बजाए कुछ बेहतर कर सकते हैं तो जरूर कीजिये!

  4. धन्यवाद सभी मित्रों को .

    @संजय भाई आपकी स्माइली कुछ समझ नहीं आयी .आप तारीफ कर रहे हैं या नाखुश हैं समझ में नही आया.

    कुछ लोगों ने कहा कि विचार होना चाहिये . जी सही कहा आपने इसीलिये ये मुद्दा उठाया है.

    @अनुभव : मुझे ये तो नहीं मालूम कि आपके अनुभव क्या हैं इसलिये मैं आपकी बातों पर अपनी राय नहीं दे सकता .वैसे ई-स्वामी जी के उत्तर से मैं काफी हद तक सहमत भी हूं व्यवसायिक होना बुरा नहीं है लेकिन अव्यवसायिकता का मुखोटा लगाये पीठ पीछे खेल खेलना मेरी राय में गलत है . ये में किसी सन्दर्भ में नहीं कह रहा बल्कि अपनी विचारधारा बता रहा हूं. जहाँ तक बात महिमामंडन की बात है ..मैं सहमत हूं आपसे पर ई-स्वामी का लेख इन्ही मिथकों को तोड़ता है . जहां तक गुटबाजी की बात है ऎसा लगता तो नहीं ..हाँ ये हो सकता है कि जो पुराने लोग हैं वे आपस में खुल चुके हैं ..कुछ दिनों में हम भी इसी परिवार का हिस्सा हो जाएंगे. इसलिये दिल पे मत ले यार.

  5. बहुत सही सोच रहे हो ।यह स्थिति वाकई चिंता जनक है। मसिजीवि के कयास भी सही हैं। आपकी चिंता भी। चिट्ठों की रेटिंग् व्यावसायिकता को बढावा देगी और व्यावसायिकता के आते ही बाज़ार यहाँ सक्रिय हो जाएगा। मीडिया तो सक्रिय है ही। ब्लॉग जगत के पुरोधा सोचें।
    संभव हो तो अगली ब्लॉगर मीट मे इस पर विचार हो ।

  6. लगता है रेटिंग हटवानी पडेगी खैर वो तो अलग बात है लेकिन आपने स्वामीजी की बात को सही पकड के आगे बढाया है।

  7. प्रसन्‍न‍ता है कि आप इस दिशा में सोच रहे हैं। रेटिंग का संकेत यदि हाल की लोकमंच की रेटिंग की ओर है तो करने दें उन्‍हें…धीरे धीरे या तो वे मानकीकरण सीख जाएंगे या फिर खुद अप्रासंगिक हो जाएंगे। उसमें कुछ विशेष चिंता की जरूरत मुझे नहीं दिखाई देती। इतिहास ऑफिशियल होने से इतिहास नहीं बन जाता- यूँ भी किसी भी चीज का एक इतिहास नहीं होता।
    अच्‍छी बात यह है कि मोहल्‍ला मुसलमान ही नहीं चिट्ठाकारी का भविष्‍य भी बहस का विषय बन रहा है। साधुवाद आपको।

  8. अच्छा लिखा है काकेश जी ! मैं तो इतना ही जानती हूँ कि कुछ अच्छा लगेगा तो मैं पढ़ती रहूँगी। जहाँ भाषा या शैली या रचना बुरी होगी पढ़ना छोड़ दूँगी। जो बुरी भाषा अपनाये उसे पढ़ो ही मत। बात खतम। और यदि इस माध्यम से कुछ अर्थ लाभ कर सकता है तो बुरा क्या है ?
    घुघूती बासूती

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