मैं लड़ाई झगड़े से बचना चाहता हूँ.बचता रहा हूँ.बिना सूत ना कपास कोरी लट्ठम-लट्ठा करने से कुछ नहीं होता.कुछ नहीं होगा.ऐसा नहीं मुझे गालियां देनी नहीं आती या मैं किसी से फोन या चैट पर बात नहीं करता लेकिन फिर भी सार्वजनिक उल्लूपना दिखाने से बचता रहा हूँ. कुछ लोग इसीलिये मुझे नेतागिरी या हिन्दी साहित्य के लिये अनुपयोगी मानते रहे हैं.मैं भी ऐसे लोगों के भ्रम को तोड़ना नहीं चाहता हूँ.
बचपन से ही कई लड़ाकुओं के प्रदर्शन से दो चार होता रहा हूँ.हमारा देश भारत, राजनीति और संसद की लड़ाई देखने अलावा भी कई ऐसे मौके देता रहा है जहाँ आप लोगों को एक दूसरे पर कीचड़ उछालते देख सकते हैं. ऐसा सिर्फ होलियों में ही नहीं होता. आपके गली-मोहल्ले में भी होता है. आपकी सोसायटी में भी होता है. आपके पड़ोसी,सहकर्मी,दोस्त,यार,राजदार,परिचित,अपरिचित,मित्र,शत्रु, ईर्ष्यालू,शंकालू कई ऐसे लोग हैं जो मौके की तलाश में हैं और समय मिलते ही अपना कीचड़ आप पर उछाल कर नाचने लगते हैं. कीचड़ उछालने वाले खुद कीचड़ से सने हुए होते हैं इसलिये उन्हे कीचड़ की कोई परवाह नहीं होती.
जिस देश में लड़ने की परम्परा ना हो वो देश बड़ा बोरिंग सा होगा. सोचिये यदि राम-रावण का युद्ध ना होता तो रामायण को कौन पूछता. महाभारत का तो नाम ही पांडवों और कौरवों की लड़ाई से पड़ा. यदि पांडव कौरवों से नहीं भिड़ते तो द्रौपदी को लेकर आपस में ही भिड़ जाते. लड़ाई है तो हम हैं या हम हैं तो लड़ाई है. लड़ाई वह खाद है जो हमारे खेतों को उपजाऊ बनाकर उसकी फसलों को फटाफट ऊपर उठाती है. लड़ने वाला महानता की ओर अग्रसर होता है. लड़ाई में जीतने वाला विजेता कहलाता और हारने वाला शहीद. दोनों ही महान हैं.
बचपन में देखा था कि जब दो महारथी आपस में टकराते थे तो बड़े-बूढ़े लड़ाई खतम होने के लिये दोनों को आपस में हाथ मिलाने को कहते थे.दोनों महारथी सबके सामने एक दूसरे से हाथ मिला लेते थे और लड़ाई खतम मान ली जाती थी. इस हाथ मिलाने को लेकर अलग अलग लोग अलग अलग बात कहते थे.कुछ लोग यह कहते थे कि हाथ मिलने से दिल थोड़े मिल जाते थे. कोई कहता पर्दे के सामने तो अब हाथ मिले हैं पर्दे के पीछे तो पहले ही मिले हुए थे. कठपुतली का नाच देखा है ना. सामने जो दो पुतले लड़ते हैं वो एक ही व्यक्ति की दो अलग अलग अंगुली से बंधे होते हैं. पब्लिक उन पुतलों की लड़ाई देख देख कर खुश होती है.ताली पीटती है. क्या मारा !! वाह वाह जी !! शो हिट हो जाता है. पब्लिक भी खुश शो भी हिट.
अभी कल ही कोई मित्र पूछ रहे थे. कि हाथ मिल गये क्या? मुझे समझ नहीं आया वो किस की बात कर रहा है. क्योंकि अभी चुनाव बहुत दूर हैं हाथ मिलाने, हाथ छुड़ाने, हाथ छोड़ने, हाथ दिखाने, हाथ हिलाने के कई मौके आयेंगे. हाथ हाथी से मिलेगा या हाथी हाथ से ? अभी से इस पर कयास लगाना ठीक नहीं . अभी तो हम भी आप की तरह मजा ले रहे हैं.महारथियों का कठपुतली वाला शो हिट होगा तो मेरी चाय की दुकान भी चल निकलेगी ना. चलो महारथियो लड़ो… अभी से पर्दे के सामने हाथ मिलाना ठीक नहीं. पर्दे के पीछे क्या है किसने देखा?
लेकिन तुम अपना हाथ पीछे कहां लुकाये पड़े हो? कि खड़े हो? क्योंकि मैं तो गिरा हूं! और हाथ का तो मालूम नहीं, बीच-बीच में पैर भी नज़र नहीं आता?
हाँ अभी युद्धविराम हो गया तो लगता है, बाकी आगे की कौन जाने…
गोलमाल है भाई गोलमाल
एक दम ठीक कहा है जी. बिना लड़ाई के सब सूना-सूना लगता है. देखिये न, मेरे पुत्र गब्बर ने अगर बलदेव ठाकुर के दोनों पुत्रों को नहीं मारा होता तो आगे चलकर दोनों जायदाद वगैरह के लिए लड़ते. मेरा गब्बर बलदेव ठाकुर से लड़ाई नहीं करता तो आपको शोले पसंद आती क्या? नहीं न. आजकल तो बिना लड़ाई के क्रिकेट जैसा मनोरंजक खेल भी नहीं चलता जी तो ये नीरस जीवन कैसे चलेगा. और ब्लागिंग तो एक दम्मे नहीं चलेगी.
पुनश्च:
जैसा की मैंने आपको बताया था, मैंने इन्स्टालमेन्ट पर एक कंप्यूटर खरीद लिया है. अभी तक ब्लॉग तो नहीं बना सका लेकिन एक-दो दिन में ही ये काम भी कर डालूँगा. गब्बर ने फिर दस हज़ार भेजा था. जीवन अब कुछ ठीक लग रहा है तो सोच रहा हूँ कि ब्लागिंग भी कर ही डालूँ. बोरियत से छुटकारा मिलेगा. एक बार ब्लागिंग शुरू कर ली तो फिर लड़ाई वगैरह से आपलोगों को कृतज्ञ भी करता ही रहूँगा.
दुविधा केवल एक बात की है. कहीं ऐसा न हो कि मेरे ब्लॉग के समर्थन में रामगढ के नौजवान सड़क पर उतर आयें और धीरे-धीरे मेरे समर्थन की आगा चारों तरफ़ फ़ैल जाए. लेकिन छोटी-मोटी लड़ाइयां तो करता ही रहूँगा जी. आख़िर बोरियत से छुटकारा पाने का इससे अच्छा रास्ता नहीं है.
हरी सिंह
यह लो – हमें तो महाभारत का सन्दर्भ ही स्पष्ट नहीं हो रहा और युद्ध समाप्ति पर इतनी पोस्टें हैं!
सई है सई!!
हाँ जी, १९९९ के बाद तो और कोई लड़ाई नहीं हुई जी. मेरे ख़याल से कारगिल ही अन्तिम लड़ाई थी….:-)
सामने जो दो पुतले लड़ते हैं वो एक ही व्यक्ति की दो अलग अलग अंगुली से बंधे होते हैं. 🙂
एक लड़ाई अस्तित्त्व के लिए भी होती है….
@काकेश मियां, ज्ञानजी को एजुकेट, अपडेट नहीं कर रहे.. यह अच्छी बात नहीं, भाई
[काकेश:करते हैं जी तुरंते करते हैं.. ]
काकेश जी अभी तो आप ने ट्रेलर ही देखा है। असली लड़ाई तो अब होनी है और उस का बिगुल बजा दिया गया है। और देखिए इस बार आप और इस पोस्ट पर कमेंटियाने वाले कोई भी लड़ाई से दूर नहीं रह पाएगा।
काकेश आपने बहुत अच्छा लिखा.लेकिन आपको सीधे वार करना चाहिये था.यह यशवंत और अविनाश की लड़ाई नहीं है.यह अपनी अपनी जमीन हथियाने की लड़ाई है.आपने सही पकड़ा कि पर्दे के पीछे हाथ मिले हुए हैं.मैं भड़ास से जुड़ा हुआ हूँ और मोहल्ला से भी दोनों को पर्सनली जानता भी हूँ.लेकिन जितना तानाशाही रवैया अविनाश में है उतना यश्वंत में नहीं है.अविनाश अपनी बात को मनवाने के लिये कुछ भी कर सकता है किसी भी हद तक गिर सकता है.उसके कई राजों से मैं वाकिफ हूँ.जैसे अपनी पोस्टों में कई बार कोमेंट वही डालता है अनाम बन के. लोग उस की चालाकियाँ समझ नहीं पाते.और भी कई राज है जिन्दगी के भी. मौका मिलेगा कभी तो लिखुंगा.यशवंत के साथ प्रोबलम है कि जब पी लेता तो होश खो देता है. फिर किसी की भी माँ बहन एक कर देता है.दिल का साफ है.चलिये आपको खेल का पता चल गया अच्छा है. आप लिखते रहो हम पढ रहे हैं.
सुना तो है कि खत्म हो गई..मगर बस, उड़ती उडती खबर है.
Aise ladaiyan khatam nahi hoti, paale badal jaate hain aur partiyan lekin ye anvarat chalti rehti hain, pehle bhi hui thi, aage bhi hongi
Raamayan ke baad bhi ho sakata hai, kisi ne yehi socha hoga.
Lekin jo bhi hai likha aacha hai, netagiri aur hindi saahitya ke liye hum bhi kuch khas upyogi nahi hain 😉
भई ‘महाभारत’ तो बहुतै ज़रूरी है वरना लगेगा ही नहीं कि ब्लॉगजगत या कहीं भी हमारा अस्तित्व भी है। अब ये आप ही तय करें कि कौन र्पाडव है और कौन कौरव। वैसे आपकी कठपुतली वाली बात सही लगती है।
आख़िर हैं तो एक ही थैली के चट्टे बट्टे।