आज परुली ने सोच के रखा था कि आज ईजा से वह बात करके रहेगी. उसने जल्दी जल्दी घर के काम करने शुरु किये. लाई की सब्जी काट के छौंक दी,आटा ओल दिया, नौले से पानी लेकर आयी, गोरु-बल्दों को घास डाल दी,बड़बाज्यू का हुक्का सुलगा दिया. ईजा खेतों से आयी तो परुली घर के आधे काम कर चुकी थी. ईजा को गुड़ की डली के साथ चाय देकर वह पास ही बैठ गयी.
हिम्मत ही नहीं कर पा रही थी परुली कि कैसे अपनी बात शुरु करे.उसे लग रहा था कि ईजा उसकी बात सुनकर क्या सोचेगी. लेकिन परुली ने हिम्मत जुटायी और नजरें नीची करके बोली.
“ईजा…., मेरा ब्या ठीक हो गया ना.”
“हाँ चेली. गोल्ज्यू की आशीरवाद से हो गया चेली. नहीं तो इतना अच्छा संबंध कैसा मिलता. तेरी किसमत अच्छी ठहरी.तू बहुत भागवान हुई..”
“लेकिन ईजा मुझे तो अभी और पढना है.”
“अरे पढ़ना लिखना तो जिनगी भर लगा ही रहने वाला ठहरा.एक बार शादी हो जाय फिर जैसा पांडेज्यू राठ बोलें वैसा करना.मन हो तो पढ़ लेना लेकिन लड़कियों को पढ़ लिख के क्या करना हुआ… ”
“ईजा…. , मेरी मैडम कह रही थी कि मैं डाक्टरी का इन्तेहान दूँ.”
ईजा को परुली के बचपने पर हँसी आ गयी. “चेली डाक्टर बनना हम लोगों के भाग में जो क्या ठहरा. बहुत मुश्किल होने वाला ठहरा बल. और फिर डाक्टरी की पढ़ाई यहाँ जो क्या होने वाली हुई …बाहर होने वाली ठहरी.हमारे गाँव से तो कोई डाक्टर ठहरा भी नहीं.पारगाँव के मुरुलीदत्त जी का लड़का हुआ. कहाँ से तो किया ठहरा वह डाक्टरी की पढ़ाई. नखलऊ …ना …लखनऊ …क्या तो कहने वाले हुए हो मुझे तो बोलना भी नहीं आने वाले हुआ.” ईजा अपनी ही बात पर हँस दी.परुली के अन्दर कोई शीशा सा दरक गया. एक रुलाई फूट पड़ी.वो खुद को संयत करते हुए बोली.
“लेकिन ईजा…. बहुत सी लड़कियां तो करने वाली हुई डाक्टरी की पढ़ाई.मुझे भी भेज देना शहर.मैं कर लुंगी ईजा..”.. परुली ने बोल तो दिया लेकिन अन्दर ही अन्दर वह खुद भी डर रही थी कि कैसे वह अकेले रह पायेगी.
“अब ज्वान जवान लड़की को कैसे भेज देंगे हो बाहर.कोई जान न पहचान. तेरे को सार भी तो नहीं ठहरी.हम लोग तो भुस्स (गँवार) हुए बेटा. इतना बड़ा शहर हमारे लिये तो क्याप्प हुआ. ना हो ना. तू भी कहाँ के चक्कर में पड़ गयी. अभी तू बोर्ड के इंत्यान दे.ब्या कर ले फिर जैसी गोल्ज्यू की इच्छा होगी.” ईजा की चाय खतम हो गयी थी. वो उठते हुए बोली. “परु ये गिलास भान माँज दे और दूध की बाल्टी ला मैं दूध लगा लेती हूँ.अभी कितने सारे काम पड़े हैं. “
परुली की बात फिर अधूरी रह गयी.उसने ईजा के बताये काम किये और सोच में पड़ गयी.दूर पहाड़ों को देखते देखते ही तो उसने कल्पना की थी कि इन्ही पहाड़ों के उस पार होगा कोई एक शहर. जहाँ यह लाइट टिम टिम करती हैं. उसके घर में तो लम्फू (मिट्टी तेल का लैम्प) का उजाला होता है या छिलुके का. वह सोचती थी कि कभी वह उस पार जायेगी. एक बड़े शहर में कदम रखेगी.बिजली के लैप देखेगी. न जाने कितनी कल्पनाऎं.
वह चाहती तो थी डाक्टर बनना लेकिन उसे इसके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी. उस दिन चमुली ने कहा था कि ढेर सारे डबल लगते हैं और आज ईजा कहती है कि बाहर जाना पड़ता है बल. इतना तो उसे विश्वास हो गया कि इस घर से अकेले तो उसे कोई भी बाहर नहीं भेजने वाला.और फिर गांव वाले भी तो क्या क्या बातें बनाऐंगे. तलखाऊ की बिट्टू बुआ जो आंगनबाड़ी में काम करती हैं उनके बारे में ही जाने क्या क्या बोलते हैं. और फिर पैसे का सवाल तो है ही…. सचमुच ..कहाँ से लायेंगे उसके बाबू इत्ता पैसा. तो क्या करे परुली. क्या शादी कर ले. वो सोचने लगी…वैसे यदि मैं शादी कर लूँ और इनके साथ दिल्ली चले जाऊँ तो शायद वहाँ से डाक्टरी हो सकती है. लेकिन उसने देखा है शादी के बाद जो ब्योली आती हैं उन्हें घर के कित्ते तो काम करने पड़ते हैं. और जब उसके ईजा बाबू उसे बाहर नहीं भेज रहे तो सास ससुर तो बिल्कुल ही नहीं भेजेंगे.तो क्या करे? शादी करके जुत जाये घर के जुए में कोल्हू के बैल की तरह. या फिर बगल की माया दीदी की तरह गाढ़ में कूद मार दे…. हाँ वह भी कूद मार देगी.खतम कर देगी खुद को. सारा बबाल खतम…
लेकिन फिर उसके अन्दर से जैसे किसी ने पुकारा ..नहीं परु तू इतनी कमजोर नहीं हो सकती.उसकी मैम भी तो उस दिन उसे समझा रही थी. कि इंसान को हर परिस्थिति का हिम्मत से सामना करना चाहिये… और फिर परुली ने सोच लिया कि वह अब हिम्मत के साथ इस परिस्थिति का सामना करेगी.
जारी…..[ अगले अंक में देखिये परुली का बदला हुआ रूप]
पिछले भाग : 1. परुली…. 2. परुली: चिन्ह साम्य होगा क्या ?? 3. परूली : शादी की तैयारी
परुली तो अब केवल परुली ना रहकर हमारी परुली हो गई है । बहुत मोह हो गया हे उससे । प्रतीक्षा है कि क्या करेगी परुली ।
घुघूती बासूती
बनना ही है बॉस परूली को डॉक्टर!!!
aage ka intazar rahega
कहानी का प्रवाह बहते हुए दरिया के समान है, जो आगे क्या होगा, यह जानने के लिए पाठक को व्याकुल करता है।
तो अगले अंक का हम बेसब्री से इंतजार कर रहे है।
और उम्मीद करते है की परुली हिम्मत से इस परिस्थिति का सामना करेगी।
परुली का चरित्र, जैसा उभर रहा है – बहुत प्रिय लग रहा है मित्र! यह पढ़ कर मुझे आपकी भी कलम चुराने का मन कर रहा है!
kyaa baat hai jI aaj to hame लग रहा है कि हम किसी पुराने लेखक की मजी हुई कलम का रस ले रहे है..
सही जा रहा है। देखें आप कहाँ किधर ले जा रहे हैं परुली को।
परुली की दास्ताँ पढ़ कर घर की याद और वो बचपन के ख्वाब याद आने लगे
और क्या कहें…परुली का बदला हुआ रूप देखने के लिए इंतजार कर रहे हैं.
hamarey naam se kitni milti-julti aapki “paruli”…aagey ka intzaar
शॉक्टर तो बन जायेगी…पर परुली…आह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह!! क्या चरित्र लाये हैं. बस, अगली कड़ी का इन्तजार है.
शॉक्टर=डॉक्टर पढ़ा जाये उपर.
जी समीर भाइ दोनो पढ लिये..नीचे उपर का पता नही ..:)
keep it up kakesh bhai…besabri se intejar rahega agle ank ka!!
बहुत मुश्किल होने वाला ठहरा बल.
इतना बड़ा शहर हमारे लिये तो क्याप्प हुआ.
‘बल’ और ‘क्याप्प’ क्या है?
[ काकेश : अतुल जी : ‘बल’ और ‘क्याप्प’ कुमांऊनी के शब्द हैं जो आमतौर पर बातचीत में प्रयोग में लाये जाते हैं.
‘बल’ : जब किसी दूसरे की कही हुई बात का सन्दर्भ दिया जाता है तो ‘बल’ का प्रयोग किया जाता है. जैसे ‘बहुत मुश्किल होने वाला ठहरा बल’ का भावार्थ होगा कि मेरे को नहीं मालूम लेकिन कोई कह रहा था कि बहुत कठिन होता है. या फिर जैसे मैं कहूँ कि ‘आजकल अतुल जी बहुत बिजी हैं बल’ तो इसका मतलब होगा कि कोई कह रहा था कि अतुल जी बहुत व्यस्त हैं.
‘क्याप्प’ : इसका अर्थ हुआ अबूझ , अजाना, अनजान , कुछ विचित्र सा ]
बहुत अच्छा, लिखते रहिए हम इंतजार कर रहे हैं अगली कङी का।
इस बार पहले की तुलना में पहाड़ी शब्दों का अधिक उपयोग करके आपने परुली और माँ के संवाद को अत्यंत जीवंत बना दिया. खास कर कुछ शब्द जैसे – राठ, इंत्यान, बल, डबल, क्याप्प, इत्यादि दिल को छू गये. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हम इस संवाद को पढ़ न रहे हों बल्कि हम इस दृश्य को स्पष्ट एवं साक्ष्यात अपने सामने देख रहे हों. अत्यंत साधुवाद. पहाड़ की मिसरी ऐसे ही घोलते रहें.
के करण लिजी पैली आपण भितेर भौत हिम्मत चें…..
आब लाग्नो परुली के कर दिखाली……
काकेश दा! आघिल हफ्त तक इंतजार रौल….
Miane Shivani Ji ke bahut se rachanyen padhe hain aur mughe yes ahsas ho raha hai ke aap bhee unke he padchinonh main chal rahe hain aur har shabd dil ke andar tak choo jata hai aur hum apne aap ko us kridar main dhaal kar iskaa anand lete hain.. bahut uttam..
aahaa.. paruli kee baat ko kya sateek tareeke se rakhkha thaira aapne kakesh guru…uZZYYAA main to kahne wala thaira ki itne badiya sabdhdhon ko kahaan se le aaye kaha…aise padke lag raha hua ki mere gaon ki hi baat hoo rahi hai..aage ka intzaar karunga fir
लेखन का अन्दाज़ लुभाने वाला है , भाषा में क्षेत्रीयता की मिठास चार चान्द लगा रही है । वाह ! उत्तम ! अब देखना है कि परुली को आप क्या बनाने वाले हैं ….
Pahad ke har gaon har ghar mein koi na koi paruli aaj bhi apne tootte sapnon ke beech mar rahi hai. Shayad es paruli ko jeevan dan mil jaye tabhi golu ka sahi nyaya hoga………..