पिछ्ले हफ्ते मौन थे इसलिये नहीं कि किसी भाई ने धमकाया / समझाया हो कि मौन रहूं बल्कि इसलिये कि रोटी देने वाले ने भेज दिया किसी काम से और हम मजदूर की तरह चल दिये …यानि कि ऑफिस के काम से हमें शहर के बाहर जाना पड़ा . लप्पू-ट्प्पू (लैपटौप) तो साथ था पर मुए विचार थे कि आ ही नहीं रहे थे. लगता है हमारा शब्दज्ञान कुछ कम ही है .क्योकि कल ही पता चला कि शब्दों के बिना विचार नहीं आते. आ तो अब नहीं रहें हैं पर क्या करें मजबूरी है . कुछ ना कुछ तो लिखना ही पड़ेगा …
आजकल पता नहीं लोग शब्दों के पीछे क्यों पड़ गये हैं . कोई “नि:शब्द” दिखा रहा है तो कोई “शब्दों” की महत्ता बतला रहा है . कहा गया ..शब्दों का ज्ञान व्यक्ति के अनुभव की पहचान है . सही बात.. इसीलिये तो अपना देश महान है क्योकि अपने पास तो शब्दों की खान है. अब पुराने कवियों को ही देख लें .हमारे पुराने कवियों ने शब्दों को अनेक अर्थों में प्रयोग किया . एक ही शब्द अलग अलग जगह अलग अलग अर्थ दे जाता है. बचपन में हमें बताया गया शब्दों का ऎसा प्रयोग ‘यमक अलंकार’ भी कहलाता है . जैसे “कनक कनक ते सौ गुनी , मादकता अधिकाय “ … और कहीं पढ़ाया गया “रहिमन पानी राखिये , बिन पानी सब सून “ इसका अर्थ तो तब मालूम ही नहीं था . हम सोचते थे कि रहीम दास जी बता रहे है कि “टॉयलेट में पानी हमेशा रखो , बिना पानी के टॉयलेट का क्या मतलब ‘ अब उस जमाने में नल और टंकी तो होती नहीं थी. पानी रखना पड़ता था . इसीलिये ये बात आयी .
वैसे शब्द केवल कोरे शब्द नही है . शब्द अपने निहित अर्थों में महत्वपूर्ण हैं . शब्दों का चतुर प्रयोग और चतुर अर्थ विश्लेषण शब्दों को नये अर्थों में परिभाषित करता है . अब किसने सोचा था कि ‘तटस्थ’ (तट पर स्थित) रहने वाले ‘समय’ के पीछे हाथ धोकर पड़ जायेंगे . अब आप पूछेंगे कि उन्हें हाथ धोने की आवश्यकता क्यों पड़ी . शायद आपने ध्यान दिया हो उन्होने लिखा था कि “सोचते सोचते हमारी दशा शोचनीय हो गयी” अब शौच के बाद हाथ तो धोएंगे ही ना.
शब्द भले ही अपने अर्थों से महत्वपूर्ण हों पर हमें तो ये शब्द हमेशा कंफ्यूजियाते है. कब किस शब्द का क्या अर्थ होगा समझना थोड़ा कठिन हो जाता है.हमने कभी लिखा था .
“नाग के फन को देखकर , सपेरा अपना सारा फ़न भूल गया , और उस फन गेम में भी फनफनाने लगा ”
यहां फन शब्द तीन अर्थों में प्रयोग में आया है . हिन्दी का फन उर्दू का फ़न और फिर अंग्रेजी का फन .
ऎसी ही एक दिन “ फूल लेकर फूल आया , हमने फूलकर कहा फूल क्यों लाये हो तुम तो खुद ही फूल हो” ( यहां एक फूल हिन्दी का है तो एक अंग्रेजी का )
महाकवि भूषण की यह कविता तो आपको याद होगी ही ना
’ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वाली,
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं
नगन जड़ाती थी , वो नगन जड़ाती हैं
तीन बेर खाती थी, वो तीन बेर खाती हैं’
(इस कविता में युद्ध में हारे हुए राजाऑं कि रानियों कि दशा का वर्णन है . भूषण कहते है कि जो ऊँचे बड़े महलों के अन्दर रहती थी,वह अब ऊँची घोर गुफाओं के अन्दर रहती हैं. पहले जो नगीनों आभूषणों से जड़ी रहती थी , अब को कपड़ों की कमी से नग्न हो सर्दी में ठिठुरती हैं .जो दिन में तीन बार खाती थी, अब वो सिर्फ तीन बेर खाकर जिंदा हैं )
तो ये है शब्दों और उनके अर्थों का चमत्कार . अब कुछ दोहे मेरे भी सुन लें
शब्दों की पड़ताल में , मिले शब्द अनुकूल
‘फूल’ ढूंढने हम चले , खुद ही बन गये ‘फूल’
‘सफर’ कठिन है आजकल , करें ‘सफर’ बिन बात
गरमी तो चिपचिप करे, और घमौरी साथ
‘सोना’ दूभर हो गया , अब सपनों के संग
‘सोना’ चांदी बन गये , जब दहेज के अंग
मन की गहरी ‘पीर’ को , मिले कौन सा ‘पीर’
चादर चढ़े विश्वास की , बेबस है तकदीर
‘आम’ हो गये ‘आम’ अब , ये गरमी का रूप
तरबूजे तर कर गये , निकली जब जब धूप
शब्द रहे सीधे सादे, अर्थ हो गये गूढ़
‘भाव’ बढ़ गये भीड़ के,‘भाव’ ढूंढते मूढ़
जितने जितने शब्द मिले , उससे ज्यादा अर्थ
हम तो बौड़म ही रहे , वो कर गये अनर्थ
वाह! आप गदर सटायरियाते हैं. ऊपर से कवि हैं. क्या लीथल कॉम्बिनेशन है!
अनामदास जी भी अपने पोथे में शब्दों की बात करते है.
शब्द-भाव-विचार – यही तो हैं काकेशजी जो हमारे मानुष होने के परिचायक हैं
क्या काकेश भाई,ये नि शब्द है…?,पूरी पिक्चर दिखा दी
“पल मे कविता लिख डाली,दिखाते अर्थ मे अनर्थ
काव काव से शास्त्र तक ,सबमे आप समर्थ”
पहले शब्द से आखरी शब्द तक बिना रुके पढ़ गये….
आपके शब्दों का ही जादू है…।
बहुत खुब. पहली बार आपको गम्भीरता से पढ़ा.
क्या लिखते है आप ? पढ़ने वाला तो बिल्कुल बंधा रह जाता है।
अति सुन्दर
हो कऊओं के ईश या, काके की है एश,
केश रहित का(?)केश हो, कैसे हो काकेश.
आप तो शब्दों के मँजे हुए खिलाड़ी हैं और दोहे तो कमाल हैं।
सही है। 🙂
मस्त लेखन है आपका
पढ़ने में आनन्द आ गया।
धन्यवाद आप सभी का टिप्पणीयाने के लिये .
@धुरविरोधी जी : आप हमारे द्वारे आये और फिर कुछ बोले भी धन्य हो गये .
आप के लिये
ना कऊओं के ईश हम, ना है अपनी ऎश,
करा करें बस काँव काँव, ऎसे हैं काकेश
बढ़िया ! पढ़कर मन प्रसन्न हो गया ।
घुघूती बासूती
बहुत बढिया-सुंदर प्रवाह के साथ लिखा गया आलेख. बधाई.