कल के टाइम्स ऑफ इंडिया में पूजा की तसवीर पहले पन्ने पर थी.चित्र नीचे देंखें ..खबर पढ़ी तो दिल दहल गया और साथ ही मन ही मन पूजा के साहस की प्रसंशा भी की.आज मसिजीवी ने जब इस पर लिखा और फिर सुजाता जी ने भी इसे छुआ तो रहा ना गया..और कुछ शब्दों की आड़ी तिरछी रेखाऎं पूजा के रूप में बोलने लगीं…
(1)
तुम्हें याद है
अपना वो समय
जब किसी को
निकाल दिया जाता था
सिर्फ बेटी पैदा करने के जुर्म में.
मार दिया जाता था
भविष्य की जननियों को.
सिर्फ इसलिए कि वो आपकी
मर्दानगी का विरोध नहीं कर सकती,
लेकिन क्या मार पाओगे तुम,
एक मां की ममता को
सुखा पाओगे क्या
उसके आंचल का दूध
कल वही भय तुम्हे घेरेगा
जब तुम्हारा पुरुषवादी व्यक्तित्व
तुम्हारा बेटा
ढूंढने निकलेगा
एक अदद लड़की।
(2)
ना करती प्रतिरोध तो क्या करती?
सहती …???
और रहती उन भेडिय़ों के साथ.
आप की सभ्य दुनिया,
जो नंगेपन की आदी है
क्या देखती है नंगई सिर्फ मेरी
दुनिया को क्यों नहीं दिखायी देता
इन मर्द रूपी नामर्दों का नंगा नाच.
(3)
हा हा हा …
अब मेरे प्रतिरोध को हवा देने
तुम भी आ गये
कहां थे तुम ??
जब जल रहीं थी बहू बेटिंयां
दहेज के नाम पर,
सताया जा रहा था उन्हें,
खून किया जा रहा था
उनके मासूम सपनों का.
तब तुम भी शायद
किसी राशन की दुकान में लगे
कैरोसीन ले रहे थे.
(4)
सुखी हैं सब परदे के पीछे
ढंक गये हैं घाव पट्टियों से.
अब उन पर मक्खियां नहीं भिनभिनाती
वो गन्दा सा घाव ढंक दिया गया है.
लेकिन दर्द !!
वो तो अभी भी है …
बल्कि गहरा गया है
उसके साथ
अब मन का दर्द जो जुड़ गया है.
(5)
कितना घिनौना है ये सच!!
निकलना पड़ता है जब
एक मजबूर लड़की को
घर से …
इस तरह की हालत में
और तुम आतो हो साथ साथ
स्कूटर से,साइकिल से
साथ देने नहीं
मजे लेने के लिये…
अति शर्मनाक घटना का सजीव विवरण देती मार्मिक रचनायें.
सचमुच बेहद दुखद घटना है काकेश जी समाज का ये रूप बहुत ही विभत्स है उस मजबूर की मजबूरी का सब फ़ायदा उठा सकते है मगर कोई हिम्मत करके उसे एक कपड़ा या सहारा नही दे सकता…
सुनीता(शानू)
आज बहुत दिनो मे आपकी पोस्ट देखी ।
फोटो देख कर और उससे पहले भी यही सोच रही थी कि शर्मसार कौन हुआ है पूजा की नगनता से? जिन्होने देखा ,केवल उत्सुकता वश या कौतुक के लिए ।वर्ना क्या उन सडको पर एक भी महिला नही चलती थी ?जो चल पडती उसका साथ देने को या उसे रोक पूछती कि”का हुआ बहिनी ?”
सुन्दर क्षणिकायें..शर्मनाक घटना।
***राजीव रंजन प्रसाद