सबको लिंकित करने वाली नीलिमा जी,हम को न लिंकित करने की चूक कर, बता रही हैं कि हिन्दी ब्लॉगिंग में विमर्श की नयी परंपराऎं बन रही हैं. अब कोई शोधार्थी यह कहे तो अपन की क्या विसात कि उससे सहमत ना हो. इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए हमने सोचा कि इस विमर्श के नये मंच पर हम भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा दें वरना क्या पता हमारा नाम इतिहास में आते आते रह जाये.[ बात दरअसल यह है कि पिछ्ली पोस्ट में हमने गणेश जी को एक ऎप्लीकेशन भेजा था जो अभी तक अप्रूव नही हुआ तो सोचा क्यों ना नयी पोस्ट लिख डालें ]
वैरागी जी ने प्रश्न उठाया कि हमारी युवा पीढ़ी की ‘कैरीयरिस्ट’ सोच के कारण हम मानवीय मूल्यों को खोते जा रहे हैं. दूसरी ओर बोधिस्तव जी कह रहे हैं कि हर कोई चल रहा है भाग रहा है ..इसलिये चलो !!.. चलो तो सही पर कहाँ? कहाँ हैं मंजिल? वो पूछ्ते हैं “क्यों लिखते हो। इतना जो लिख रहे हो उसके पीछे कोई उद्देश्य है या ऐसे ही लिख रहे हो। मेरा सिर्फ इतना ही कहना है कि लिखो खूब लिखो पर तय कर तो कि क्यों लिख रहे हो और अगर तय कर लिया है तो मेरे इस उपदेश पर कान मत दो।”दोनों प्रश्न एक जैसे ही हैं पर समाधान क्या है?
एक ओर हम निजी बैकों की तारीफ करते है और दूसरी ओर उनकी आक्रामक विपणन शैली को कोसते हैं.एक ओर हम सरकारी कामकाज को देखते हैं तो कहते हैं कि सारा सिस्टम धीमा है..काम ही नहीं करता दूसरी ओर यदि कोई तेज काम कर अच्छे परिणाम देता है और कैरियर में आगे बढ़ता है तो कहते हैं कि मानवीय संवेदना खो गयी है. आगे बढ़ना जरूरी है.मानव जीवन की कहानी आगे बढ़ने की कहानी है.’आक्रामक’ होना जरूरी है ..नहीं तो मिटने के लिये तैयार होना पड़ेगा. ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ का सिद्धांत मानव पर भी उतना ही लागू होता है जितना जानवरों पर.ये सच है कि इस समस्त प्रक्रिया में हम कुछ संवेदनाऎं खो देंगे लेकिन ये नियति की सतत प्रक्रिया है.आप इससे बच नहीं सकते. आपको चलना ही होगा.
जीवन एक अबूझ पहेली है. हर चीज जो हो रही है या घट रही है ना वो हमारे हाथ है ना उसका परिणाम ही हमारे हाथ है.हम चल रहे हैं या लिख रहे हैं क्यों? ये वैसा ही प्रश्न है जैसे कि कोई कहे कि मैं कौन हूँ.हम कोई भी काम करते हैं जो हमारी नजर में हमें लगता है कि हमारे लिये करना ठीक होता है. सिगरेट पीने वाला जानता है कि ये सिगरेट हमको नुकसान पहुंचा रही है फिर भी पीता है. लेकिन वो सिगरेट तब भी पीता है क्योकिं उसे सिगरेट पीना अच्छा लगता है.हमारी जीवन शैली हमारे मस्तिष्क के किसी भाग से निर्धारित होती है.जिसे ही शायद ‘मन’ कहते हैं.जिसे ही नियंत्रित करने को ही हमारे ऋषि मुनि तपस्या किया करते थे.क्योंकि सब कुछ जो भी है वो मन ही निर्धारित करता है. आप दु:ख से भरे क्षण में भी सहज हो सकते हैं और खुशी के क्षण में भी असहज हो सकते हैं.
किसी ने सही कहा है..मन के हारे हार है और मन के जीते जीत. जीत-हार,जय-पराजय, खुशी-ग़म,लाभ-हानि,अच्छा-बुरा,मेरा-तेरा,अपना-पराया,धरम-अधरम सब कुछ मन ही तो निर्धारित करता है. तो इसे साधने से क्या सब कुछ ठीक हो जायेगा?इस प्रश्न का उत्तर तो वही दे पायेगा जिसने इसे साधा हो. आप बतायें क्या करें ? मन को साधें कि बढ़े चले जायें.
neelima kaa linkan-pratilinkan lagataa hai ‘Myopia’ kaa shikaar hai tabhee to usame teen jagah unake pati-parameshwar ‘masijeevee’ kaa linkan hai aur do jagah unakaa khud kaa . yah linkan andhe kee revaDee banTavaayee hai . agar aapako linkit naheen kiyaa to aashcharya kaisaa .
प्रवचन सुन लिया.
मन को साध लिया है और अब बढ़ रहे हैं. 🙂
सत्संग अटैंड कर लिया, अब चलते हैं। वैसे दार्शनिक टाइप बातें हमें कम ही समझ आती हैं। 🙂