समुद्र तल और ग़रीबी रेखा से नीचे
आये दिन के चालान, तावान से वो तंग आ चुके थे। कैसा अंधेर है। सारे देश में यही एक जुर्म रह गया है! बहुत हो चुकी। अब वो इसका दो टूक फ़ैसला करके छोड़ेंगे। मौलाना करामत हुसैन से वो एक बार मिल चुके थे और सारी दहशत निकल चुकी थी। पौन इंच कम पांच फ़ुट का पोदना! उसकी गर्दन उनकी कलाई के बराबर थी। गोल चेहरे और तंग माथे पर चेचक के दाग़ ऐसे चमकते थे, जैसे तांबे के बर्तन पर ठुंके हुए खोपरे। आज वो घर का पता मालूम करके उसकी खबर लेने जा रहे थे। पूरा डायलॅाग हाथ के इशारों और आवाज के उतार-चढ़ाव के साथ तैयार था। उन्हें मौलाना करामत हुसैन की झुग्गी तलाश करने में काफ़ी परेशानी हुई। हालांकि बताने वाले ने बिल्कुल सही पता बताया था कि झुग्गी बिजली के खंबे नं.-23 के पीछे कीचड़ की दलदल के उस पार है। तीन साल से खंबे बिजली के इंतजार में खड़े हैं। पते में उसके दायीं ओर एक ग्याभिन भैंस बंधी हुई बतायी गयी थी। सड़कें, न रास्ते, गलियां, न फुटपाथ। ऐसी बस्तियों में घरों के नंबर या नाम का बोर्ड नहीं होता। प्रत्येक घर का एक इंसानी चेहरा होता है, उसी के पते से घर मिलता है। खंबा तलाश करते-करते उन्हें अचानक एक झुग्गी के टाट के पर्दे पर मौलाना का नाम सुर्ख़ रोशनाई से लिखा नजर आया। बारिश के पानी के कारण रोशनाई बह जाने से नाम की लकीरें खिंची रह गई थीं। चारों ओर टख़नों-टख़नों बजबजाता कीचड़, सूखी जमीन कहीं दिखायी नहीं पड़ती थी। चलने के लिये लोगों ने पत्थर और ईंटें डालकर पगडंडियां बना लीं थीं। एक नौ-दस साल की बच्ची सर पर अपने से अधिक भारी घड़ा रखे अपनी गर्दन तथा कमर की हरकत से पैरों को डगमगाते पत्थरों और घड़े को सर पर संतुलित करती चली आ रही थी। उसके चेहरे पर पसीने के रेले बह रहे थे। रास्ते में जो भी मिला, उसने बच्ची को संभल कर चलने का मशवरा दिया। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पांच-छः ईंटों का ट्रैफ़िक आईलैंड आता था, जहां जाने-वाला आदमी खड़े रह कर आने-वाले को रास्ता देता था। झुग्गियों के भीतर भी कुछ ऐसा ही नक़्शा था। बच्चे, बुजुर्ग और बीमार दिन भर ऊंची-ऊंची खाटों और खट्टों पर टंगे रहते। क़ुरान-शरीफ़, लिपटे हुए बिस्तर, बर्तन-भांडे, मैट्रिक के सर्टिफ़िकेट, बांस के मचान पर तिरपाल तले और तिरपाल के ऊपर मुर्ग़ियां। मौलाना करामत हुसैन ने झुग्गी के एक कोने में खाना पकाने के लिये एक टीकरी पर चबूतरा बना रखा था। एक खाट के पाये से बकरी भी बंधी थी। कुछ झुग्गियों के सामने भैंसे चड़ में धंसी थीं और उनकी पीठ पर कीचड का प्लास्टर पपड़ा रहा था। यह भैंसों की जन्नत थी। इनका गोबर कोई नहीं उठाता था। क्योंकि उपले थापने के लिये कोई दीवार या सूखी जमीन नहीं थी। गोबर भी इंसानी गंदगी के साथ इसी कीचड़ में मिल जाता था। इन्हीं झुग्गियों में टीन की चादर के सिलेंडर नुमा डिब्बे भी दिखायी दिये। जिनमें दूध भरने के बाद सदर की सफ़ेद टाइलों वाली डेरी की दुकानों में पहुंचाया जाता था। एक लंगड़ा कुत्ता झुग्गी के बाहर खड़ा था। उसने अचानक ख़ुद को झड़झड़ाया तो उसके घाव पर बैठी हुई मक्खियों और अध-सूखे कीचड़ के छर्रे उड़-उड़ कर बिशारत की क़मीज और चेहरे पर लगे।
मुग़ल वंश का पतन
बिशारत ने झुग्गी के बाहर खड़े होकर मौलाना को आवाज दी। हालांकि उसके ‘अंदर’ और ‘बाहर’ में कुछ ऐसा अंतर नहीं था। बस चटाई, टाट और बांसों से अंदर के कीचड़ और बाहर के कीचड़ के बीच हद बंदी करके एक काल्पनिक एकांत, एक संपत्ति की लक्ष्मण रेखा खींच ली गई थी। कोई जवाब न मिला तो उन्होंने हैदराबादी अंदाज से ताली बजायी, जिसके जवाब में अंदर से छः बच्चों का तले ऊपर की पतीलियों का-सा सेट निकल आया। इनकी आयु में नौ-नौ महीने से भी कम का अंतर दिखायी दे रहा था। सबसे बड़े लड़के ने कहा, मग़रिब की नमाज पढ़ने गये हैं। तशरीफ़ रखिये। बिशारत की समझ में न आया, कहां तशरीफ़ रखें। उनके पैरों-तले ईंटें डगमगा रही थीं। सड़ांध से दिमाग़ फटा जा रहा था। ‘‘जहन्नुम अगर इस धरती पर कहीं हो सकता है तो, यहीं है, यहीं है, यहीं है।’’
वो दिल-ही-दिल में मौलाना को डांटने का रिहर्सल करते हुए आये थे-यह क्या अंधेर है मौलाना? किचकिचा कर मौलाना कहने के लिये उन्होंने बड़े कटाक्ष और कड़वाहट से वह स्वर कम्पोज किया था-जो बहुत सड़ी गाली देते समय अपनाया जाता है, लेकिन झुग्गी और कीचड़ देखकर उन्हें अचानक ख़याल आया कि मेरी शिकायत पर इस व्यक्ति को अगर जेल हो भी जाये तो इसके तो उल्टे ऐश हो जायेंगे। मौलाना पर फेंकने के लिये लानत-मलामत के जितने पत्थर वो जमा करके आये थे, उन सब पर दाढ़ियां लगाकर नमाज की चटाइयां लपेट दी थीं ताकि चोट भले ही न आये, शर्म तो आये-वो सब ऐसे ही धरे रह गये। उनका हाथ जड़ हो गया था। इस व्यक्ति को गाली देने से फ़ायदा? इसका जीवन तो ख़ुद एक गाली है। उनके गिर्द बच्चों ने शोर मचाना शुरू किया तो सोच का सिलसिला टूटा। उन्होंने उनके नाम पूछने शुरु किये। तैमूर, बाबर, हुमायूं, जहांगीर, शाहजहां, औरंगज़ेब, या अल्लाह! पूरा मुग़ल वंश इस टपकती झुग्गी में ऐतिहासिक रूप से सिलसिलेवार उतरा है। ऐसा लगता था कि मुग़ल बादशाहों के नामों का स्टॉक समाप्त हो गया, मगर औलादों का सिलसिला समाप्त नहीं हुआ। इसलिये छुटभैयों पर उतर आये थे।
मिसाल के तौर पर एक जिगर के टुकड़े का प्यार का नाम मिर्जा कोका था जो अकबर का दूध-शरीक भाई था, जिसको उसने क़िले की दीवार पर से नीचे फिंकवा दिया था। अगर सगा भाई होता तो इससे भी कड़ी सजा देता यानी समुद्री डाकुओं के हाथों क़त्ल होने के लिये हज पर भेज देता या आंखें निकलवा देता। वो रहम की अपील करता तो भाई होने के नाते दया और प्रेम की भावना दिखाते हुए जल्लाद से एक ही वार में सर क़लम करवा कर उसकी मुश्किल आसान कर देता।
हम अर्ज यह कर रहे थे कि तैमूरी ख़ानदान के जो बाक़ी कुलदीपक झुग्गी के अंदर थे, उनके नाम भी तख़्त पर बैठने, बल्कि तख़्ता उलटने के क्रम के लिहाज से ठीक ही होंगे, इसलिये कि मौलाना की स्मरणशक्ति और इतिहास का अध्ययन बहुत अच्छा प्रतीत होता था। बिशारत ने पूछा तुममें से किसी का नाम अकबर नहीं? बड़े लड़के ने जवाब दिया, नहीं जी, वो तो दादा जान का शायरी का उपनाम है।
बातचीत का सिलसिला कुछ उन्होंने कुछ बच्चों ने शुरू किया। उन्होंने पूछा, तुम कितने भाई-बहन हो? जवाब में एक बच्चे ने उनसे पूछा, आपके कितने चचा हैं? उन्होंने पूछा, तुम में से कोई पढ़ा हुआ भी है? बड़े लड़के तैमूर ने हाथ उठा कर कहा, जी हां, मैं हूं। मालूम हुआ यह लड़का जिसकी उम्र तेरह-चौदह साल होगी, मस्जिद में बग़दादी क़ायदा पढ़ कर कभी का निबट चुका। तीन साल तक पंखे बनाने की एक फ़ैक्ट्री में मुफ़्त काम सीखा। एक साल पहले दायें हाथ का अंगूठा मशीन में आ गया, काटना पड़ा। अब एक मौलवी साहब से अरबी पढ़ रहा है। हुमायूं अपने हमनाम की भांति अभी तक आवारागर्दी की मंजिल से गुजर रहा था। जहांगीर तक पहुंचते-पहुंचते पाजामा बार-बार हो रहे राजगद्दी परिवर्तन की भेंट चढ़ गया। हां! शाहजहां का शरीर फोड़ों, फुँसियों पर बंधी पट्टियों से अच्छी तरह ढंका हुआ था। औरंगज़ेब के तन पर केवल अपने पिता की तुर्की टोपी थी। बिशारत को उसकी आंखें और उसे बिशारत दिखायी न दिये। सात साल का था, मगर बेहद बातूनी। कहने लगा, ऐसी बारिश तो मैंने सारी जिंदगी में नहीं देखी। हाथ पैर माचिस की तीलियां, लेकिन उसके ग़ुब्बारे की तरह फूले हुए पेट को देखकर डर लगता था कि कहीं फट न जाये। कुछ देर बाद नन्हीं नूरजहां आयी। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में काजल और कलाई पर नजर-गुजर का डोरा बंधा था। सारे मुंह पर मैल, काजल, नाक, और धूल लिपी हुई थी। केवल वो हिस्से इससे अलग थे जो अभी-अभी आंसुओं से धुले थे। उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरा। उसके सुनहरे बालों में गीली लकड़ियों के कड़वे-कड़वे धुएं की गंध बसी हुई थी। एक भोली-सी सूरत का लड़का अपना नाम शाह आलम बता कर चल दिया। आधे रास्ते से लौट कर कहने लगा कि मैं भूल गया था। शाह आलम तो बड़े भाई का नाम है। ये सब मुग़ल शहजादे कीचड़ में ऐसे मजे से फचाक-फचाक चल रहे थे जैसे इनकी वंशावली अमीर तैमूर के बजाये किसी राजहंस से मिलती हो। हर कोने-खुदरे से बच्चे उबले पड़ रहे थे। एक कमाने वाला और यह टब्बर! दिमाग़ चकराने लगा।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार/शनिवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की तीसरे भाग “स्कूल मास्टर का ख़्वाब से " ]
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
इस भाग की पिछली कड़ियां
1. हमारे सपनों का सच 2. क़िस्सा खिलौना टूटने से पहले का 3. घोड़े को अब घोड़ी ही उतार सकती है 4. सवारी हो तो घोड़े की 5. जब आदमी अपनी नजर में गिर जाये 6. अलाहदीन अष्टम 7. शेरे की नीयत और बकरी की अक़्ल में फ़ितूर 8.महात्मा बुद्ध बिहारी थे 9.घोड़े का इलाज जादू से 10.कुत्तों के चाल चलन की चौकीदारी
्क्या बात है जी मुगलो का खानदान या मौलाना का 🙂
याद आया – शाहाअलम; दिल्ली से पालम! पर यहां तो मुगलिया सल्तनत कीचड़ में सनी हुई है।
गरीबी पर दुख ज्यादा और व्यंग पर तरंग कम हुई!
Gyan ji se sahmat hun..
गरीबी में खाना और कपड़ा नहीं मिलता मगर सफाई करने से कौन रोकता है?
खैर मजेदार और रोचक कड़ी.
एक और रोचक कड़ी..जारी रहिये.
Hi,
Read ur blog first time,really very interesting.
nice one
Regards
are bhai agali kadi kab aayegii
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Regards
vaah taarif ke liye afaaz kam pad rahi, kis khubsurti se sare Temur Khandan ka naksha bayan kiya gaya hai, merer paas alfaaz hi nahi….