पिछ्ली बार जब हरिशंकर परसाई जी कि एक रचना प्रस्तुत की थी तो युनुस भाई ने कहा था
“परसाई जी की और रचनाएं लाएं”
आज पेश उनकी एक और रचना.
सुबह की डाक से चिट्ठी मिली, उसने मुझे इस अहंकार में दिन-भर उड़ाया कि मैं पवित्र आदमी हूं क्योंकि साहित्य का काम एक पवित्र काम है. दिन-भर मैंने हर मिलने वाले को तुच्छ समझा. मैं हर आदमी को अपवित्र मानकर उससे अपने को बचाता रहा. पवित्रता ऐसी कायर चीज है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है. अपने पवित्र होने का एहसास आदमी को ऐसा मदमाता है कि वह उठे हुए सांड की तरह लोगों को सींग मारता है, ठेले उलटाता है, बच्चों को रगेदता है. पवित्रता की भावना से भरा लेखक उस मोर जैसा होता है जिसके पांव में घुंघरू बांध दिए गए हों. वह इत्र की ऐसी शीशी है जो गंदी नाली के किनारे की दुकान पर रखी है. यह इत्र गंदगी के डर से शीशी में ही बंद रहता है. वह चिट्ठी साहित्य की एक मशहूर संस्था के सचिव की तरफ से थी. मैं उस संस्था का, जिसका लाखों का कारोबार है, सदस्य बना लिया गया हूं. स्थायी समिति का सदस्य हूं. यह संस्था हम लोगों को बैठकों में शामिल होने का खर्च नहीं देती क्योंकि पैसा साहित्य के पवित्र काम में लगे हुए पवित्र पदाधिकारियों के हड़पने में ही खर्च हो जाता है. सचिव ने कि साहित्य भवन के सामने एक सिनेमा बनाने की मंजूरी मिल रही है. सिनेमा बनने से साहित्य भवन की पवित्रता, सौम्यता और शांति भंग होगी. वातावरण दूषित होगा. हम मुख्यमंत्री को सिनेमा निर्माण न होने देने के लिए ज्ञापन दे रहे हैं. आप भी इस पर दस्तखत कर दीजिए. इस चिट्ठी से मुझे बोध हुआ कि साहित्य पवित्र है, हम साहित्यकार पवित्र हैं और साहित्य की यह संस्था पवित्र है. मेरे दुष्ट मन ने एक शंका भी उठाई कि हो सकता है किसी ऐसे पैसेवाले ने, जिसे उस जगह दुकान खोलनी है, हमारे पवित्र साहित्य के पवित्र सचिव को पैसा खिला दिया हो कि सिनेमा न बनने दो. पर मैंने इस दुष्ट शंका को दबा दिया. नहीं, नहीं, साहित्य की संस्था पवित्र है, सिनेमा अपवित्र है. हमें अपवित्रता से अपना पल्ला बचा लेना चाहिए.
शाम की डाक से संस्था के विपक्षी गुट के नेता की चिट्ठी आई जिसमें संस्था में किए जा रहे भ्रष्टाचार का ब्यौरा दिया गया था.इस पत्र ने मुझे झकझोरा. अपनी पवित्रता पर मुझे शंका हुई. साहित्य के काम की पवित्रता पर शंका हुई. साहित्य की संस्था की पवित्रता की मेरी उठान शांत हुई और मैं नॉर्मल हो गया. इतने साल साहित्य के क्षेत्र में हो गए. मैं कई बार पवित्र होने की दुर्घटना में फंसा, पर हर बार बच गया. मुझे लिखते जब कुछ ही समय हुआ था, तभी बुजुर्ग साहित्यकार मुझसे कहते थे- आपने साहित्य रचना का कार्य अपने हाथ में लिया है. माता वीणा-पाणि के मंदिर की पवित्रता बनाए रखिए. मैं थोड़ा फूलता था. सोचता था, सिगरेट पीना छोड़ दूं क्योंकि इस धुंए से देवी के मंदिर के धूप की सुगंध दबती होगी. पर मैं उबर आया. वे बुजुर्ग कहते- मां भारती ने आपके सामने आंचल फैलाया है. उसे मणियों से भर दीजिए. (वैसे कवि ‘अंचल’ उस दिन कह रहे थे कि हम तो अब ‘रजाई’ हो गए). जी हाँ, मां भारती के अंचल में आप कचरा डालते जाएं और उसी में मैं मणि छोड़ता जाऊं. ये पवित्र लोग और पवित्र ही लिखने वाले लोग बड़े दिलचस्प होते हैं. एक मुझसे बार-बार कहते- आप अब कुछ शाश्वत साहित्य लिखिए. मैं तो शाश्वत साहित्य ही लिखता हूं. वे सट्टे का फिगर रोज नया लगाते थे, मगर साहित्य शाश्वत लिखते थे. वे मुझे बाल्मीकि की तरह दीमकों के बमीठे में दबे हुए लगते थे. शाश्वत साहित्य लिखने का संकल्प लेकर बैठने वाले मैंने तुरंत मरते देखे हैं. एक शाश्वत साहित्य लिखने वाले ने कई साल पहले मुझसे कहा था- अरे, आप स्कूल मास्टर होकर भी इतना अच्छा लिखते हैं. मैं तो सोचता था, आप प्रोफेसर होंगे. उन्होंने स्कूल-मास्टर लेखक की हमेशा उपेक्षा की. वे खुद प्रोफेसर रहे. पर आगे उनकी यह दुर्गति हुई कि उन्हें कोर्स में लगी मेरी ही रचनाएं कक्षा में पढ़ानी पड़ीं. उनका शाश्वत साहित्य कोर्स में नहीं लगा. सोचता हूं, हम कहां के पवित्र हैं. हममें से अधिकांश ने अपनी लेखनी को रंडी बना दिया है, जो पैसे के लिए किसी के भी साथ सो जाती है. सत्ता इस लेखनी से बलात्कार कर लेती है और हम रिपोर्ट तक नहीं करते. कितने नीचों की तारीफ मैंने नहीं लिखी. कितने मिथ्या का प्रचार मैंने नहीं किया. अखबारों के मालिकों का रुख देखकर मेरे सत्य ने रूप बदले हैं. मुझसे सिनेमा के चाहे जैसे डायलाग कोई लिखा ले. मैं इसी कलम से बलात्कार की प्रशंसा में भी फिल्मी गीत लिख सकता हूं और भगवद् भजन भी लिख सकता हूं. मुझसे आज पैसे देकर मजदूर विरोधी अखबार का संपादन करा लो और कल मैं उससे ज्यादा पैसे लेकर ट्रेड-यूनियन के अखबार का संपादन कर दूं. इसी कलम से मैंने पहले ‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद’ लिखा था, फिर ‘इंदिरा गांधी मुर्दाबाद’ लिखा था, और अब फिर ‘इंदिरा भारत है’ लिख रहा हूं. क्या हमारी पवित्रता है? साहित्य भवन की पवित्रता को सिनेमा भवन क्या नष्ट कर देगा? पर होता तो है पवित्रता, शराफत, चरित्र का एक गुमान. इधर ही एक मुहल्ले में सिनेमा बनने वाला था, तो शरीफों ने बड़ा हल्ला मचाया- यह शरीफों का मोहल्ला है. यहां शरीफ स्त्रियां रहती हैं और यहां सिनेमा बन रहा है. गोया सिनेमा गुंडों के मोहल्ले में बनना चाहिए ताकि इनके घरों की शरीफ औरते सिनेमा देखने गुंडों के बीच जाएं. मुहल्ले में एक आदमी रहता है. उससे मिलने एक स्त्री आती है. एक सज्जन कहने लगे- यह शरीफों का मुहल्ला है. यहां यह सब नहीं होना चाहिए. देखिए, फलां के पास एक स्त्री आती है. मैंने कहा- साहब, शरीफों का मुहल्ला है, तभी तो वह स्त्री अपने पुरुष मित्र से मिलने बेखटके आती है. क्या वह गुंडों के मुहल्ले में उससे मिलने जाती?
पवित्रता का यह हाल है कि जब किसी मंदिर के पास से शराब की दुकान हटाने की मांग लोग करते हैं, तब पुजारी बहुत दुखी होता है. उसे लेने के लिए दूर जाना पड़ेगा. यहां तो ठेकेदार भक्ति-भाव में कभी-कभी मुफ्त भी पिला देता था. मैं शाम वाले पत्र से हल्का हो गया. पवित्रता का मेरा नशा उतर गया. मैंने सोचा, साहित्य भवन के सचिव को लिखूं- मुझे दूसरे पक्ष का पत्र भी मिल गया है जिसमें बताया गया है कि अपनी संस्था में कितना भ्रष्टाचार है. अब तो सिनेमा-मालिक को ही मांग करनी चाहिए कि यह साहित्य की संस्था यहां से हटाई जाए, जिससे दर्शकों की नैतिकता पर बुरा असर न पड़े. इसमें बड़ा भ्रष्टाचार है.
कैसी लगी!!
बढ़िया, आपके चयन की तारीफ करनी पड़ेगी। परसाईजी से चुन-चुन कर ला रहे हैं।
और डीयर काकेशजी, हमें मास्साब न कहें, इधर मास्साबों की इमेज अच्छी नहीं है। उस दिन ब्लागर मीट में एक सज्जन ने कह दिया -अच्छा तो आप मास्टर हैं, और मास्टर होकर भी इत्ती सेंसिबल बात कह दी। जरुर किसी की उधार लेकर बोल रहे हो।
आप तो बस सह-ब्लागर टाइप कुछ मान लो, इतना बहूत है।
theek hai jI sahi baat hai massaab kI..ham bhi guruji kahate hai isiliye..:)
पावन पावन
परसाई की चुनिंदा रचनाओं की प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.
पवित्रता ऐसी कायर चीज है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है. अपने पवित्र होने का एहसास आदमी को ऐसा मदमाता है कि वह उठे हुए सांड की तरह लोगों को सींग मारता है, ठेले उलटाता है, बच्चों को रगेदता है.
काकेश जी, बहुत उम्दा पंक्तियां । आनंद आया । धन्यवाद पढ़ाने के लिए । जबलपुर इप्टा ने परसाई पर कोलाज किया है । अद्भुत है । शायद आपने देखा हो दिल्ली में । मुझे परसाई जी से मिलने का और बातें करना का सौभाग्य प्राप्त था ।
वाह काकेश, सटीक व्यंग्य परोसा है आपने।
महान व्यंग्य लेखकों के इस दौर में परसाई जी की रचना पर क्या तारीफ करें, हंसाते-हंसाते तड़ से मौन…
यूनुस बढ़िया कहते हैं – पवित्रता कायर है जो अपने दामन को सदा उजला दिखाने के लिये ड़रती है!
और ये आलोक बुझी-बुझी सी टिप्पणी क्यों कर रहे हैं. व्यंगकार जीरो वाट के बल्ब सा कहे तो मजा नहीं आता. 🙂
ब्लॉगर मीट अगर जीरो वाट का बल्ब बनाती हो तो वहां न जाया करें! आलोक अपना ब्लॉग मस्त लिखें और टिप्पणी मस्त करे!
अह्हाअ!! पुनः पढकर आनन्द आ गया. आपका प्रयास भागीरथी है. बहुत साधुवाद करता हूँ, जारी रहें. मेरे लायक सेवा को सूचित करना, मेरे मित्र.मैं परसाई जी के शहर का हूँ और यह मेरा सौभाग्य होगा. 🙂
देर से टिप्पणी करने के लिये क्षमापार्थी..जबकि पढ़ पहले लिया था. 🙂 कारण आप जानते हैं. 🙂