कल एक समाचार पढ़ा कि कानपुर के कलक्टरगंज थाने में रखे विस्फोटकों में विस्फोट हो गया.लिखा था कि यह विस्फोटक पुलिस द्वारा बरामद किये गये थे और थाने में ही रखे थे. एक हिन्दी के समाचार पत्र ने इस पर अपना संपादकीय भी बरबाद किया. इस बरबादी के पीछे तो कारण यह भी हो सकता है कि संपादक को बरबाद करने को कुछ और ना मिला हो लेकिन विस्फोटकों की किस्मत पर मुझे रस्क होने लगा. क्या किस्मत पायी उन विस्फोटकों ने. फटे भी तो ऐन थाने में, पुलिस के बीचों बीच.लेकिन मुझे यह समझ नहीं आया कि इस पर संपादकीय लिखने की क्या जरूरत थी. विस्फोटक हैं तो फटेंगे ही. उनका काम ही है फटना,फाड़ना. अब वह कोई पकड़े गये अपराधी तो थे नहीं कि पुलिस के डर से थाने में तब तक चुप बैठे रहते जब तक पुलिस की जेबें गरम ना होती और फिर उसी गरमी में पुलिस उन्ही अपराधियों से साथ चाय-बिस्कुट पी,खा कर उन्हें छोड़ने के लिये प्रेरित ना हो जाती. या फिर वो ऐसे निरपराध अपराधी भी नहीं थे जो पुलिस के डंडे के डर से अपने सारे अनकिये अपराधों को उगल देते और जेल में सड़े रहने पर मजबूर होते. वो तो विस्फोटक थे. इसलिये भले ही पुलिस थाने में ही हों.वह फटे. शुक्र है पुलिस थाने में इतने दिन रहने के बाद भी उन्होने अपने कर्तव्य को पूरा किया. पुलिस से कोई प्रेरणा नहीं ली. मुझे इस बात की ही खुशी है.
मुझे विस्फोटकों की किस्मत पर इसलिये भी रस्क होता है कि वह विस्फोटक ही थे. इसलिये बरामद होने के बाद भी थाने में लावारिस की तरह पड़े रहे. अच्छा हुआ वह बरामद की हुई ज्वैलरी ना थे वरना अब तक किसी थानेदारिनी की सेवा में लगे होते. वह टीवी भी नहीं थे,फ्रिज भी नहीं, गाड़ी भी नहीं थे, इम्पोर्टेड सैट भी नहीं, वह फर्नीचर भी नहीं थे, इलेक्ट्रिकल अप्लायंस भी नहीं. वरना सोचिये अब तक वह किसी पुलिस वाले के वहाँ ओवर टाइम कर रहे होते. यही नहीं वह अपनी बिरादरी के अन्य हथियारों से भी अलग थे. वरना अब तक जिंनसे बरामद किये उन्हें ही या किसी और को बेच दिये गये होते.केवल विस्फोटक होना उनके काम आया.
संपादकीय में लिखा था कि उन्हे थाने में क्यों रखा गया था. ज़ाहिर सी बात है घर में नहीं रख सकते थे इसलिये.हो सकता है पुलिस वाले देखना चाहते हों कि उन्होने जो बरामद किया वह विस्फोटक ही है या नहीं. कहीं ऐसा तो नहीं अपराधियों ने विस्फोटकों की शक्ल में सोना छिपा रखा हो. हो सकता है पुलिस वाले दीवाली तक इंतजार कर रहे हों. क्योंकि विस्फोटकों की तात्कालिक जरूरत भी नहीं थी.हो सकता है पुलिस वाले किसी विस्फोटक जौहरी की तलाश में हो जो उन हीरों को पहचान कर उनकी कीमत पुलिस की जेब तक पहुंचा सके. हो सकता है पुलिस के यह विश्वास हो कि यह विस्फोटक पाकिस्तान के बने हुए नहीं हैं. खालिस मेड इन इंडिया है. इसलिये उनके फटने में पुलिस को डाउट हो. क्योंकि डाउट करना पुलिस का फ़र्ज़ है और वह सारे फ़र्ज़ तो एकसाथ नहीं भूल सकती.वैसे भी उन फ़र्जों को पुलिस कभी नहीं भूलती जो दूसरों को सताने और खुद को बचाने के काम आते हैं. कुछ नियमों को तो पुलिस भी मानेगी ही. ताकि साख भी बनी रही है और जेबें भी गरम रहे.
यह भी लिखा गया कि विस्फोटकों को पहले डिफ्यूज कर देना चाहिये था. मुझे इस बात से भी सख्त ऐतराज़ है. इतना दिमाग पुलिस के पास होता तो वह पुलिस ही क्यों होते कोई सरकारी कर्मचारी ना होते. यह पुलिस की सरासर तौहीन है. यह ऐसा ही है जैसे आप गृह मंत्री शिवराज पाटिल से यह अपेक्षा करें कि वह सोच समझकर बयान दें. सोचना ही होता तो वह शरद पवार ना होते जो कृषि मंत्री होकर भी क्रिकेट के बारे में सोचते हैं. और फिर सोचने का काम सचिवों का होता है. पुलिस के पास तो सचिव भी नहीं तो वह इतनी बड़ी बात सोचते भी कैसे. पुलिस का काम माल बरामद करना है. वह उसने किया. आप क्या चाहते हैं कि पुलिस अपना काम छोड़कर दिमाग वाला काम करे.
कानपुर के कलक्टर गंज के बारे में एक कहावत है “झाड़े रहो कलट्टरगंज”. जब कहावत है तो उसका कोई मतलब भी होगा. यह मतलब इतना सरल है कि पुलिस तक की समझ में आ गया. इसी कहावत का पालन करते हुए पुलिस ने उन विस्फोटकों से पल्ला झाड़ लिया. हमारी लोक संस्कृति और पारंपरिक ज्ञान की रक्षा व सम्मान पुलिस नहीं करेगी तो कौन करेगा. तो कलक्टरगंज की पुलिस ने ऐसा किया तो क्या गलत किया. क्या आप मेरे से सहमत हैं?
झाड़ने का मतलब झाड़ू लगाना भी होता है.:)
बिल्कुल सहमत हैं. आप तो झाङे रहो कलट्टरगंज.
जबरदस्त दिया है डोज़, मजा आ गया. बधाई.
हां हम एकदम सहमत हैं। शानदार सहमत हैं। आखिर कुछ तो ब्लागर का फ़र्ज बनता है।
आपसे सहमत हूँ . भइया ये पुलिस वाले है चतुर सुजान होते है सब जानते है . डिफ्यूज करना तो दूर कही आधे साफ न कर दिए हो फ़िर बाद मी विस्फोटको को उड़ा दिया हो ? फ़िर पब्लिक भी सब जानती है
कितने ही चलाओ तीर व्यंग्य के इन से कुछ होने का नहीं। जनाब वे भारत की पुलिस हैं।
काकेशजी
थाने में फूटे विस्फोटकों के बहाने आपने सचमुच बहुत गंभीर सवाल उठाए हैं। और ये लाइन तो गजब है कि विस्फोटक गहने क्यों न हुए
बहुत जोर झाड़े हैं कलक्टरगंज थाने को…बड़ी जोरों की धाँसू झाड़ है.
हम तो जी धन्यवाद देते हैं कमलादत्त कांडपाल जी के कारनामों को…एक से बढ़कर एक विस्फोट.
बड़ी धमाकेदार पोस्ट लिख रहे हैं आजकल. अगर कोई नक्सली इलाके का होता तो समझते कि नक्सलियों के लूट कर ले जाने के लिए बारूद थाने में जमा रखा था मगर ये तो कलक्टरगंज का थाना था, तो आपके अंदाजे ही सही लगते हैं.
सहमत तो होना ही पड़ेगा जी आपसे, न हो के जाएंगे कहां।
अचानक आपने लेखन के लिये बहुत विस्फोटक सामग्री जुगाड़ ली है। झाड़े रहें!