अरूण भाई ने कल जब अपनी करुण कहानी सुनायी तो हमने सोचा कि अरूण भाई से दोस्ती निभा ही लें (वैसे दोस्ती नहीं निभानी थी..हमें तो डर था कि कहीं हमसे ही पंगा ना ले लें) और उसी भावावेश में लिख दिया.
अरे अपने बिरादरी के लोगों से कैसा घबराना,
जरूरत पड़े तो हमें भी ले जाना ,
बहुत दिनों से भाई लोगों से बाते नहीं हुई,
चलो फिर मिल गया मिलने का बहाना.
हमने तो सच्ची मुच्ची इसलिये लिखा था कि पंगेबाज वैसे ही सबसे पंगा लेते रहते हैं कहीं फिर रास्ते में किसी मोहल्ले में…….खैर जाने दीजिये…..इसीलिये सोचा कि अपने सुरक्षा दस्ते के साथ हम भी चले चलेंगे इसी बहाने भाई लोगों से भी मुलाकात हो जायेगी. (जब से हमें कनाडा वाले नामी-गिरामी-ईनामी गदहा लेखक का पता चला तब से हम डर के मारे सारे गदर्भों को भाई कहने लगे हैं).
हमने अपना सुरक्षा दस्ता एडवांस में पंगेबाज जी के घर भेज दिया और खुद चुपचाप सजने संवरने में लग गये…..भला हो इस कनाडा वाली उड़नतस्तरी का ..न जाने उसको सारी बातें कैसे पता लग जाती हैं !!….अरे पता क्यों ना चले ….खुद चिट्ठा चर्चा का जिम्मा किसी और को पकड़ाकर इधर उधर घूम घूम कर टिपियाते रहते हैं.
उनके इस तरह टिपियाने की कला को देख कर किसी ने ठीक ही कहा है….
जहां ना पहुंचे रवि (रतलामी),वहां पहुंचे कवि (समीर-नामी)
खैर जब पता ही लग गया तो हमने सोचा कि चलो हम भी बता दें अपनी ‘गधा मिलन’ की दास्तान ……
लेकिन पहले हम अरुण भाई से एक शिकायत कर लें…आप हमसे इतना बड़ा पंगा काहे लिये भइया …कल आपने क्या लिखा था
“उन्होने हमें कल शाम तक की छूट दी है कि हम कल शाम को गधों की बस्ती में जाकर समस्त गधों के सामने श्री गर्दभ राज जी से बात करेंगे और माफ़ी भी मागेंगे …….”
अब क्या आप को मालूम नहीं हम दिमाग से थोड़ा पैदल हैं …हम नहीं समझ पाये आपके शब्दों को …हमको क्या मालूम था कि वो गधों की बस्ती नोयडा सेक्टर १६ अ में है… और आप वहां जाकर समस्त गधों के सामने श्री गर्दभ राज जी से बात करेंगे… और आज जब आपने लिखा
“कई सारी छोरियां उन्हें ऐसे पूछ रही थी जैसे हम हम ना हुये, उनके सेक्रेटरी हो और उनके आने से पहले मौका मुआयना पर आये हो”
तब हमारा माथा ठनका …अरे नोयडा की छोकरियों को उड़न तस्तरी से क्या वास्ता …फिर जब उनके गदहा लेखक वाली छवि दिमाग में आयी तो सब कुछ साफ हो गया.. अरे “सारी (गदर्भ) छोरियां ” क्यों ना पूछें उड़न तस्तरी के बारे में …. आपको याद नहीं ….जब उधौ गोकुल पहुंचे थे तो कैसे सारी की सारी गोपियों ने उन्हें घेर लिया था.
अंखिया हरि दरसन की प्यासी।
देख्यो चाहतिं कमलनैन कों निसि दिन रहतिं उदासी॥
आए ऊधौ फिरि गए आंगन डारि गए गर फांसी।
वो ये भी कहती हैं कि उनका एक ही तो दिल था जो समीर श्याम संग कनाडा मथुरा चला गया
ऊधौ मन न भए दस-बीस।
एक हुतो सो गयो स्याम संग को अवराधै ईस॥
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु ज्यों देही बिनु सीस।
तो हमें तो सारा राज समझ आ गया …. लेकिन अब समझ में आके भी क्या फायदा तब तो आया नहीं समझ में और हम चल दिये गधा मिलन समारोह के लिये… ये गाना गाते गाते …..
गधा मिलन को जाना, हाँ गधा मिलन को जाना
जग की लाज……., मन की मौज…….., दोनों को निभाना…..
गधा मिलन को जाना, हाँ गधा मिलन को जाना
ढेंचू ढेंचू सीख ले, पंगा लेना छोड़ दे -2
खुद के लिये तू सीख ले -2
हर चिट्ठे पे टिपियाना …..गधा मिलन को जाना
उड़न-थाली का नाम है, सबको फंसाना काम है
आदत बड़ी बदनाम है..-2
धीरे-धीरे ,हौले-हौले
दबे पांव चले आना….. गधा मिलन को जाना
ओले पड़े हैं आज, आंधी का भी है साथ – २
कैसे कटे कठिन बाट – २
चल के आज़माना, गधा मिलन को जाना
हां गधा मिलन को जाना, जाना
गधा मिलन को जाना, जाना
गधा मिलन को जाना, हां
गधा मिलन को जाना
अब मीटिंग में क्या हुआ ये तो बतायेंगे कल….आज इतना ही..
किसकी कौन ले रहा है पता ही नहीं चलता. खालीपीली में मैं आत्मग्लानि का अनुभव करने लगता हूं. बिना भूल किए ही सज़ा मिल रही है. ये पंगेबाज़ के पंगे में ऐसे फंसते हैं कि इज़्ज़त उतारने पर तुले हैं लोगन..
ना तुम्हरे गधा मिलन में जाना, ना काक निमंत्रण का खाना।
जो इन मिलनों को गुटबाज़ी के खेल समझ रहे हैं उनके लिए अर्ज़ किया है-
”गुटबाज़ी जमकर करो मगर ये गुंजाइश रहे, कल गुटखा उधार लेकर खाएँ तो शर्मिन्दा ना हों”
वाह ! काकेश जी,क्या पेरोडी बना्कर अपनी बात कही। पढ्कर मजा आ गया।
काहे एक सज्जन, सीधे-सादे, मृदुवचनी, कोमल हृदय-स्वामी, भद्र, चिर-युवा, श्याम-वर्णिय, कवि, चिट्ठाकार, टिप्पणिकार, काकेश-मित्र, श्वेत-श्याम केशधारक, स्वस्थ, परिवारशुदा आदमी को गोपियों के चक्कर में फंसा रहे हो?
हम तो समझे थे कि मित्रतावश इस बात पर आप पंगेबाज से आप पंगा लेंगे तो आप तो उसमें चार चाँद लगाकर मय संदर्भ प्रेषित करने में जुटे हो!! 🙂 ईश्वर ऐसे मित्र सभी चिट्ठाकारों को दिलवाये: 🙂
अंखिया हरि दरसन की प्यासी।
देख्यो चाहतिं कमलनैन कों निसि दिन रहतिं उदासी॥
आए ऊधौ फिरि गए आंगन डारि गए गर फांसी।
वैसे गीत बहुत मीठा गाते हो!! .. गधा मिलन को जाना… विश्वास ही नहीं होता कि कौओ के राजा हो. गाते बिल्कुल कोयल की तरह हो. भगवान आपका कंठ बरकरार रखे. 🙂 बकिया कल मिटिंग के बाद बताना. 🙂
भाइ काकेश जी मजा लगा दिया आपने ,समा बाध दिया पर आप बैगलोर दिल्ली के चक्कर मे गलत पते पर गलत समय,पहुच गये नोयडा मीट थी शनिवार को समीर भाई ने पंगा लिया अगले दिन जवाब आया उसके अगले दिन (हमारे साथ पंगा)मिटिंग थी उसके अगले दिन और आप कहा सब जलेबी की तरह गोल गोल कर रबडी बना बैठे जरा सारी मामले को आप अलग अलग कर नोट कर और कही लीख ले ताकी शाम को मिटिंग मे गडबड न हो
कहां महाराज गए जमाने के ‘ओब्सलीट’ पद कोट करते हो . इधर देखो नए जमाने का एकदम नया पद रचा(?) गया है :
ऊधौ मन माहीं दस-बीस ।
एक हुतो सो गयो स्याम संग बाकी बचे उन्नीस ॥
अरे भैया पोस्ट-इंडस्ट्रियल और पोस्ट-ग्लोबलाइज़्ड सोसाइटी है . बैक-अप अरेंजमेंट — वैकल्पिक व्यवस्था — रखनी पड़ती है .
सही में आवाज तो बहुत मधुर है ।
घुघूती बासूती
मजा आ गया। आपके पोस्ट के साथ समीर जी के कमेंट में इतने सारे 🙂 🙂 🙂 smileys थे कि मजा तो आना ही था।
गान तो बहुत ही मधुर सुनाया आपने…
वाह काकेश जी आप तो बहुत ही सुंदर गाते हो! चलिये मिटिंग तो फ़िर हो जायेगी..कम से कम आपका मधुर संगीत तो मिला सुननए को..:)
सुनीता(शानू)
“जहां ना पहुंचे रवि (रतलामी),वहां पहुंचे कवि (समीर-नामी)”
हम्म, सत्यवचन 🙂
“गुटबाज़ी जमकर करो मगर ये गुंजाइश रहे, कल गुटखा उधार लेकर खाएँ तो शर्मिन्दा ना हों”
वाह नीरज भाई खूब मजेदार मिसाल सुनाई।