केडीके महोदय बालकिशन जी की इस पोस्ट पर अपना कुदरती कवितायी हुनर दिखाना चाहते थे लेकिन सफल नहीं हुए तो हमको बोले कि इस “कवि की कल्पना” को किसी तरह ठेल दो. हमको भला क्या तकलीफ.हम ठेल रहे हैं. गाली.प्रसंशा सब केडीके साहब की.
बालकिशन जी आप किस शोध के चक्कर में पढ़ गये. हमें मालूम है कि यह शोध आपने हम जैसे सफल साहित्यकारों को ठेस पहुचाने के लिये ही किया है.
अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
1. सर्द-दर्द और गर्द
जब मर्द के पास
आकर जम जाते है
तो हिमालय की बर्फ
पिघलने लगती है,
लालिमा,कालिख के
साथ मिल कर
देने लगती है हुंकार
कि बता तो दो कि
तुम आखिर हो कौन?
2. अहसान
जिन पैरों तले कुचला गया
वह पैर अब कांटो पर चल रहे हैं
और अहसास मिट्टी में पड़े हैं.
3. उस दाढ़ी में
दिखे कितने तिनके
जिस पर चिड़िया ने
घौसला बना लिया.
4. नम जमीन पर
अकुंरित होने के लिये
मचल रहे हैं
कितने बीज
लेकिन जमीन को
कर्ज की तलाश है.
5. आपस की समझदारी में
इतना तो करना ही था
मेरे पीठ के दाग को
दूसरों को दिखाने से पहले
मुझे ही दिखा दिया होता
6. तड़पते जमाने में
उफनती नदियां
किनारों को बहाती है
और किनारे
अपना दायरा बड़ा लेते हैं.
और अब कुछ कज़ल भी देखिये
दिखा नहीं
देकर हम ने खुद को, देखा
क्या देखा? यह दिखा नहीं
पानी निकला नाली से जब
कैसे बिखरा दिखा नहीं
बरबादी की नादानी में
हमने पूरा गांव जलाया
लेकिन उसमें जलता सा
अपना घर तो दिखा नहीं.
पता नहीं
देखो हमने तीर चलाया
तुमको लगा क्या? पता नहीं
हम घी बनकर आहुति देते थे
आग लगी क्या? पता नहीं.
देखो हमसे बचकर रहना
कब सनकेंगे? पता नहीं
लाख टके की एक बात थी
पल्ले पड़ी क्या? पता नहीं
वो मुझको अब उल्लू कहता
खुद पट्ठा है पता नहीं
मैं सबको रोटी देता हूँ,
खुद के घर का पता नहीं.
अब आगे से साहित्यकारों से पंगा लेने की जुर्रत ना करें.
गरिष्ठ कवि केडीके (एक्स साहित्यकार करंट ब्लॉगर)
” कलपत कलपत हे कवि तू कतई गयो बोराय
या को तू समझाय चुकै, इत्ते वो बिदक जाय
वा को समझ ते लेनो कब,वा साहित्यकार कहाय
इनको खुल्ला छोड के अब देख पत्रकारन की राय
एक कुये गिरो देख के, दूजो ताली बजाय
कूकुर कूकुर पे भौक के टी आर पी है बढाय”
भैया, अपनी पोस्ट की कविताओं के एवज में एक नवरतन तेल की शीशी भेज सकते हो क्या? 🙂
कलपना भी कला है और प्रोफेशनल भी।
काकेश ,
भले ही आप इन कविताओं को मजाक मानते हों लेकिन यह सच में कवितायें ही हैं. जो किसी भी साहित्यिक किताब में छ्प सकती हैं.
जैसे ये…
आपस की समझदारी में
इतना तो करना ही था
मेरे पीठ के दाग को
दूसरों को दिखाने से पहले
मुझे ही दिखा दिया होता
या फिर ये.
तड़पते जमाने में
उफनती नदियां
किनारों को बहाती है
और किनारे
अपना दायरा बड़ा लेते हैं.
इनमें दार्शनिकता भी है. इनको प्रियंकर जैसे पारखी को दिखा दीजिये और उनका रियेक्शन देखिये.
क़जल भी अच्छी हैं. यह क़ेडीक़े कोई व्यक्ति हैं या फिर आपकी कोरी कल्पना का कमाल है. वैसे आपकी कल्पना कोरी नहीं है.
आप साहित्यकार हैं, यह तो पता था. मगर इत्ते बड़े वाले साहित्यकार हो, यह अब जाना. मन प्रसन्न हो गया और पता नहीं क्यूँ, कुछा जमीन से उठा हुआ महसूस कर रहा हूँ कि क्या पहचान हुई है आपसे. आह!! वाह!
हम घी बनकर आहुति देते थे
आग लगी क्या? पता नहीं.
-एक बेहतर अहसास ही हुआ वरना तो मिट्टी का तेल भी होते तो भी आग ही भड़कती. 🙂
मित्र एक कविता छापना भूल गए आप. ये वाली
चाँद
तनहाईयों से जूझता सिसक रहा था
उस रात
सुनी थी तुमने भी चाँद की सिसकी
याद है वो रात
जब सिसकियाँ सुनकर जागे थे तुम
पास जाकर लौट आए
और बोले;
चाँद को सर्दी लग रही है
साहित्यकार अपनी समझ के बाहर हैं इस लिए हम उनसे दूर और ब्लोगरों के नजदीक रहते हैं
बहुत मकबूल पोस्ट थी ये. आपने अच्छा किया.
baldev banshi ji kaa comment padhakar hee sukhad ahasaas huaa. yaani ki saahityakaar vs blogging ab thoda narrow hoga.
इन कविताओं का हिंदी अनुवाद कब छापेंगे?
दद्दा रे ।
ब्लॉगिंग में एक और कवि ।
हनुमान चालीस पढ़ रहे हैं हम ।
नहीं नहीं । सरस्वती वंदना ।
अरे नहीं नहीं । अब का बताएं । सोच रहे हैं पढते जायें ।
या सटक लें ।
सीरीयसली कविताएं गजब हैं ।
नमन है जी ।
bahut he ummda
khas kar
4. नम जमीन पर
अकुंरित होने के लिये
मचल रहे हैं
कितने बीज
लेकिन जमीन को
कर्ज की तलाश है.
5. आपस की समझदारी में
इतना तो करना ही था
मेरे पीठ के दाग को
दूसरों को दिखाने से पहले
मुझे ही दिखा दिया होता
bahut he badhiya
नम जमीन पर
अकुंरित होने के लिये
मचल रहे हैं
कितने बीज
लेकिन जमीन को
कर्ज की तलाश है.’
samayik kavitayen….
sabhi kavitayen bahut achchee lagin.
आपकी कवितायें पढ़ कर तों दिल आपको प्रथम श्रेणी मे रखने का इच्छुक हो रहा है.
आपकी क्या राय है?
बहुत ही शानदार कवितायें और गजलें हैं जी..एक से बढ़कर एक. केडीके जी बड़े कवि हैं.
वैसे एक कविता मेरे पास भी है. कमलेश ‘बैरागी’ जी की गिनती हमारे शहर के वरिष्ट कवियों में होती है. आप उनकी ये कविता पढिये…
किससे कहें?
कब कहें?
ये न पूछो
कि क्या कहना है मुझे
तलाश है मुझे
उस एक कान का
जो सुन सके
मेरे वे जज्बात
छुपे हुए दिल की बात
जो हिलोरे मार रही है
मेरे दिल में
वही दिल
जो समेटे हुए धड़कता है
न जाने कितने घात
वे सारे घात
वो पेट पर लात
वो मेरी बात
किसे कहूं?
कब कहूं?
कैसे कहूं?
बलदेव बंशी भाई से पूरी तरह से सहमत हूँ…
काकेश जी आपका साइट हास्य व्यंग्य पर लाजवाब है. मैं भी हास्य व्यंग्य लिखता हूं. कभी मेरी तरफ भी आइये.
अब आगे से साहित्यकारों से पंगा लेने की जुर्रत ना करें.
Hum to pahle Bhi ye Zurrat nahi karte the. Paushtik
Salah ke liye Shukriya.
Vaise kavita ya jo kuch bhi tha, tha vakayee mein garistha.
कविता करके काकेश लशे, कविता लशी न काकेश की कला