मीर तकी मीर कराची में

[ व्यंग्य की दुनिया का अद्भुत नमूना है “खोया पानी”. यदि किसी को व्य़ंगकार की ओबजर्वेशन की ताकत का पता करना हो तो इस उपन्यास को पढ़े.यह पाकिस्तान के मशहूर व्यंग्यकार मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताब आबे-गुम का हिन्दी अनुवाद है. इस पुस्तक के अनुवाद कर्ता है ‘लफ़्ज’ पत्रिका के संपादक श्री ‘तुफैल चतुर्वेदी’ जी.  इस उपन्यास की टैग लाइन है “एक अद्भुत व्यंग्य उपन्यास” जो इस उपन्यास पर सटीक बैठती है.इसी उपन्यास को छोटे छोटे भागों में यहां पेश किया जा रहा है. यदि आपने पहले की कडियाँ ना पढ़ी हों तो आपने बहुत कुछ मिस कर दिया. अब आगे पढिये.]

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पहली नज़र में उन्होंने कराची को और कराची ने उनको रद्द कर दिया। उठते बैठते कराची में कीड़े डालते। शिकायत का अंदाज़ कुछ ऐसा होता था। हज़रत! यह मच्छर हैं या मगरमच्छ? कराची का मच्छर डीडीटी से भी नहीं मरता, सिर्फ कव्वालों की तालियों से मरता है या ग़लती से किसी शायर को काट ले तो बावला होकर बेऔलाद मरता है। नमरूद (वह व्यक्ति जिसने पैग़म्बर इब्राहीम को जलाने की कोशिश की थी ) की मौत नाक में मच्छर घुसने से हुई थी। कराची के मच्छरों की वंशावली कई नमरूदों से होती हुई उसी मच्छर की वंशावली से जा मिलती है और जरा ज़बान तो देखिये। मैंने पहली बार एक साहब को पट्टे वाला पुकारते सुना तो मैं समझा अपने कुत्ते को बुला रहे हैं। मालूम हुआ कि यहां चपरासी को पट्टे वाला कहते हैं। हर समय कुछ न कुछ फ़ड्डा और लफ़ड़ा होता रहता है, टोको तो कहते हैं उर्दू में इस स्थिति के लिये कोई शब्द नहीं है। भाई मेरे! उर्दू में यह स्थिति भी तो नहीं है। बम्बई वाले शब्द और स्थितियां दोनों अपने साथ लाये हैं। मीर तकी मीर ऊंट गाड़ी में मुंह बांधे बैठे रहे, अपने हमसफ़र से इसलिये बात न की कि “ज़बाने-गै़र से अपनी ज़बां बिगड़ती है “ मीर साहब कराची में होते तो बखुदा मुंह पर सारी उम्र ढाटा बांधे फिरते। यहां तक कि डाकुओं का सा भेस बनाये फिरने पर किसी डकैती में धर लिये जाते। अमां ! टोंक वालों को अमरुद को सफ़री (पित्त बनाने वाला ) कहते तो हमने भी सुना था। यहां अमरूद को जाम कहते हैं और उस पर नमक मिर्च की जगह साहब लगा दें तो अभिप्राय नवाब साहब लासबेला होते हैं। अपनी तरफ़ विक्टोरिया का मतलब मल्का टूरिया होता था। यहां किसी तरकीब से दस-बारह जने एक घोड़े पर सवारी गांठ लें तो उसे विक्टोरिया कहते हैं। मैं दो दिन लाहौर रुका था। वहां देखा कि जिस बाज़ार में कोयलों से मुंह काला किया जाता है वह हीरा मंडी कहलाती है। अब यहां नया फैशन चल पड़ा है। गाने वालों को गुलूकार और लिखने वाले को क़लमकार कहने लगे हैं। मियां ! हमारे समय में तो सिर्फ नेककार (अच्छे लोग) और बदकार (बुरे लोग ) हुआ करते थे। कलम और गले से ये काम नहीं लिया जाता था। मैंने लालू खेत,बिहार-कालोनी, चाकीवाड़ा और गोलीमार का चप्पा-चप्पा देखा है। चौदह-पन्द्रह लाख आदमी ज़ुरूर रहते होंगे, लेकिन कहीं किताब और इत्र की दुकान न देखी। काग़ज़ तक के फूल नज़र न आये। कानपुर में हम जैसे शरीफों के घराने में कहीं न कहीं मोतिया की बेल जुरूर चढ़ी होती थी। जनाब! यहां मोतिया सिर्फ आंखों में उतरता है। हद हो गई, कराची में लखपति, करोड़पति सेठ लकड़ी इस तरह नपवाता है जैसे किमख़्वाब का टुकड़ा ख़रीद रहा हो। लकड़ी दिन में दो फुट बिकती है और बुरादा खरीदने वाले पचास! मैंने बरसों उपलों पर पकाया हुआ खाना भी खाया है लेकिन बुरादे की अंगीठी पर जो खाना पकेगा वो सिर्फ नर्क में जाने वाले मुर्दों के चालीसवें के लिये मुनासिब है।

भर पाये ऐसे बिजनेस से! माना कि रुपया बहुत कुछ होता है, मगर सभी कुछ तो नहीं। पैसे को जुरूरत पूरी करने वाला कहा गया है। बिल्कुल ठीक। मगर जब ये खुद सबसे बड़ी आवश्यकता बन जाये तो वो सिर्फ मौत से दूर होगी। मैंने तो जिदंगी में ऐसी कानी-खुतरी लकड़ी नहीं बेची। बढ़ई का ये साहस कि छाती पे चढ़ के कमीशन मांगे। न दो तो माल को सड़े अंडे की तरह कयामत तक सेते रहो। हाय! न हुआ कानपुर। बिसौले से साले की नाक उतार कर हथेली पर रख देता कि जा! अपनी जुरवा (पत्नी) को महर में दे देना। वल्लाह! यहां का तो बाबा आदम ही निराला है। सुनता हूं, यहां के रेड लाइट एरिया नैपियर रोड और जापानी रोड पर तवायफें अपने-अपने दर्शनी झरोखों में लाल बत्तियां जलते ही कंटीली छातियों के पैड लगा कर बैठ जाती हैं। फिल्मों में भी इसी का प्रदर्शन होता है। यह तो वही बात हुई कि ओछे के घर तीतर, बाहर बांधूं कि भीतर। इस्लामी गणतंत्र की सरकार-बेसरोकार कुछ नहीं कहती, लेकिन किसी तवायफ़ को शादी ब्याह में मुजरे के लिये बुलाना हो तो पहले इसकी सूचना थाने को देनी पड़ती है। रंडी को परमिट राशनकार्ड पे मिलते हमने यहीं देखा। ऐश का सामान मांगने के वक़्त न मिला तो किस काम का। दर्शनी मंडियों में दर्शनी हुंडियों का क्या काम।

मिर्जा अब्दुल बेग इस स्थिति की कुछ और ही व्याख्या करते हैं। कहते हैं कि तवायफ़ को थाने से N.O.C. इसलिये लेना पड़ता है कि पुलिस पूरी तरह इत्मीनान कर ले कि वो अपने धन्धे पर ही जा रही है। धार्मिक प्रवचन सुनने या राजनीति में हिस्सा लेने नहीं जा रही।

एक दिन क़िबला कहने लगे “अभी कुछ दिन हुए कराची की एक नामी गिरामी तवायफ़ का गाना सुनने का मौका मिला। अमां। उसका उच्चारण तो चाल चलन से भी ज़ियादा खराब निकला। हाय! एक ज़माना था कि शरीफ़ लोग अपने बच्चों को शालीनता सीखने के लिये चौक की तवायफों के कोठों पर भेजते थे। “ इस बारे में भी मिर्जा कहते हैं कि तवायफों के कोठों पर तो इसलिये भेजते थे कि बुजुर्गों के साथ रहने और घर के माहौल से बचे रहें।

जारी………………

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पिछले अंक : 1. खोया पानी-1:क़िबला का परिचय 2. ख़ोया पानी 2: चारपाई का चकल्लस 3. खोया पानी-3:कनमैलिये की पिटाई 4. कांसे की लुटिया,बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी़ 5. हवेली की पीड़ा कराची में 6. हवेली की हवाबाजी 7. वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है 8. इम्पोर्टेड बुज़ुर्ग और यूनानी नाक 9. कटखने बिलाव के गले में घंटी 10. हूँ तो सज़ा का पात्र, पर इल्ज़ाम ग़लत है 11. अंतिम समय और जूं का ब्लड टैस्ट 12. टार्जन की वापसी 13. माशूक के होंठ

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khoya_pani_front_coverकिताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

 

 

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By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

2 comments

  1. “इस बारे में भी मिर्जा कहते हैं कि तवायफों के कोठों पर तो इसलिये भेजते थे कि बुजुर्गों के साथ रहने और घर के माहौल से बचे रहें।” सही है जी अब हम भी ब्लोगर्स से बचने के लिये कल से वही जायेगे ..जरा कही ढंग की जगह का पता तो दिजीये जी..:)

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