नौकरी या खुदकुशी

हुजूर फैजगंजूरू तहसीलदार साहब : दूसरे दिन बिशारत अपनी सारी दुनिया टीन के ट्रंक में समेट कर धीरजगंज आ गये। ट्रंक पर उन्होने एक पेंटर को चार आने दे कर अपना नाम, डिग्री, तख़्ल्लुस सफ़ेदे से पेंट करवा लिये। जो बड़ी कठिनाई से दो लाइनों में (बक्से की) समा पाये। यह ट्रंक उनकी पैदाइश से पहले का था, मगर उसमें चार लीवर वाला नया पीतली ताला डाल कर लाये थे। इसमें कपड़े इतने कम थे कि रास्ते भर, अन्दर रखा हुआ मुरादाबादी लोटा ढोलक बजाता आया। इसके शोर मचाने की एक वजह यह भी हो सकती है कि उनके ख़जाने में यह ताजा क़लई किया हुआ लोटा ही सबसे क़ीमती चीज था। अभी उन्होंने मुंह भी नहीं धोया था कि तहसीलदार का चपरासी एक लट्ठ और यह पैग़ाम ले कर आ धमका कि तहसीलदार साहब बहादुर ने याद फ़र्माया है। उन्होंने पूछा, “अभी!” बोला “और क्या! फ़ौरन से पेश्तर! बिलमवाजा, असालतन” चपरासी के मुंह से यह मुंशियाना जबान सुन कर उन्हें हैरत हुई और ख़ुशी भी, जो उस वक़्त ख़त्म हुई जब उसने यह पैग़ाम लाने का इनाम, दोपहर का खाना और सफ़रख़र्च इसी जबान में तलब किया। कहने लगा तहसील में यही दस्तूर है। बन्दा तो चाकर है। जब तक वो इन इच्छाओं पर ग़ौर करें, वो लट्ठ की चांदी की शाम को मुंह की भाप और अंगोछे से रगड़-रगड़ कर चमकाता रहा।

झुलसती, झुलसाती दोपहर में बिशारत डेढ़-दो मील पैदल चलकर हांपते-कांपते तहसीलदार के यहां पहुंचे तो वो दोपहर की नींद ले रहा था। एक-डेढ़ घंटे इंतजार के बाद वो अंदर बुलाये गये तो ख़स की ट्टटी की महकती ठंडक जिस्म में उतरती चली गई। लू से झुलसती हुई आंखों में एक दम ठंडी-ठंडी रौशनी-सी आ गयी। ऊपर छत से लटका हुआ झालरदार पंखा हाथी के कान की तरह हिल रहा था। फ़र्श पर बिछी चांदनी की उजली ठंडक उनकी जलती हुई हथेली को बहुत अच्छी लगी। जब इसकी तपिश से चांदनी गर्म हो जाती तो वो हथेली खिसका कर दूसरी जगह रख देते। तहसीलदार बड़े तपाक और प्यार से पेश आया। बर्फ़ में लगे हुए तरबूज की एक फांक और छिले हुए सिंघाड़े पेश करते हुए बोला, “तो अब अपने कुछ शेर सुनाइये जो बेतुके न हों, छोटी बहर में न हों, वज्न और तहजीब से गिरे हुए न हों।“ बिशारत शेर सुना कर दाद पा चुके तो उसने अपनी एक ताजा नज्म सुनाई।

वो अपनी रान खुजाये चला जा रहा था। टांगों पर मढ़े हुए चूड़ीदार पाजामे में न जाने कैसे एक भुनगा घुस गया था और वो ऊपर ही ऊपर चुटकी से मसलने की बार-बार कोशिश कर रहा था। कुछ देर बाद एक सुन्दर कमसिन नौकरानी नाजो ताजा तोड़े हुए फ़ालसों का शर्बत लायी। तहसीलदार कनखियों से बराबर बिशारत को देखता रहा कि नाजो को देख रहे हैं या नहीं। मोटी मलमल के सफ़ेद कुरते में क़यामत ढा रही थी। वो गिलास देने के लिए झुकी तो उसके बदन से जवान पसीने की महक आई और उनका हाथ उसके चांदी के बटनों के घुंघरूओं को छू गया। उसका आड़ा पाजामा रानों पर से कसा हुआ था और पैवंद के टांके दो-एक जगह इतने बिकसे हुए थे कि नीचे चंमेली बदन खिलखिला रहा था। शरबत पी चुके तो तहसीलदार कहने लगा कि आज तो ख़ैर आप थके हुए होंगे,

कल से मेरे बच्चों को उर्दू पढ़ाने आइये। जरा खिलन्दड़े हैं। तीसरे ने तो अभी क़ायदा शुरू ही किया है। बिशारत ने अनाकानी की तो एकाएक उसके तेवर बदल गये। लहजा कड़ा और कड़वा होने लगा। कहने लगा, जैसा कि आपको बख़ूबी मालूम था, है और हो जायेगा, आपकी अस्ल तनख़्वाह पच्चीस रुपये ही है। मैंने जो स्वयं पन्द्रह रुपये बढ़ाकर चालीस कर दिये तो दरअस्ल पांच रुपये फ़ी बच्चा ट्यूशन थी, वरना मेरा दिमाग़ थोड़े ही ख़राब हुआ था कि कालेज के निकले हुए नये बछड़े को मुसलमानों की गाढ़ी कमाई के चन्दे से पन्द्रह रुपये की नजर पेश करता। आख़िर को ट्रस्टी की कुछ जिम्मेदारी होती है। आपको मालूम होना चाहिए कि ख़ुद स्कूल के हैडमास्टर की तनख़्वाह चालीस रुपये है और वो तो बी.ए., बी. टी. (अलीगढ़) सैकिण्ड डिवीजन है। अमरोहे का है मगर निहायत शरीफ़ सय्यद है। अलावा, आप की तरह “सर मुंडवा के इश्क़िया शेर नहीं कहता।“

अंतिम सात शब्दों में उसने उनके व्यक्तित्व का ख़ुलासा निकाल कर रख दिया और वो ढह गये। उन्होंने बड़ी विनम्रता से गिड़गिड़ा कर पूछा, ‘‘क्या कोई Alternative बन्दोबस्त नहीं हो सकता।’’ तहसीलदार चिढ़ावनी हंसी हंसा। कहने लगा, ‘‘जुरूर हो सकता है। वो ऑल्टरनेटिव बन्दोबस्त ये है कि आपकी तनख़्वाह वही पच्चीस रुपये रहे और आप इसी में मेरे बच्चों को भी पढ़ायेंगे। आया ख़याले-शरीफ़ में? बर्ख़ुरदार, अभी आपने दुनिया नहीं देखी। मैं आपके हाथ में दो कबूतर देता हूं, आप यह तक तो बता नहीं सकते कि इनमें मादा कौन सी है?

उनके जी में तो बहुत आया कि पलट कर जवाब दें कि कोलम्बस साहब, अगर इसी डिस्कवरी का नाम दुनिया देखना है, तो यह काम कबूतर कहीं बेहतर तरीके से अंजाम दे सकते हैं। इतने में तहसीलदार दो-तीन बार जोर-जोर से खांसा तो थोड़ी दूर एक कोने में दुबका धूल में अटा क़ानूनगो लपक कर बिशारत के पास आया और उनकी ठुड्डी में हाथ देते हुए कहने लगा, आप सरकार के सामने कैसी बचकानी बातें कर रहे हैं। यह इज्जत किसे नसीब होती है। सरकार झूठों भी इशारा कर दें तो लखनऊ यूनिवर्सिटी के सारे प्रोफ़ेसर हाथ बांधे सर के बल चल कर आयें। सरकार को तीन बार डिप्टी कलेक्टरी ऑफ़र हो चुकी है मगर सरकार ने हर बार हिक़ारत से ठोकर मार दी कि मैं स्वार्थी हो जाऊं और डिप्टी कलेक्टर बन कर चला जाऊं तो तहसील धीरजगंज का स्टाफ़ और प्रजा कहेगी कि सरकार हमें बीच मंझधार में किस पर छोड़े जाते हो।

बिशारत स्तब्ध रह गये, मर्द ऐसे मौक़ों पर ख़ून कर देते हैं और नामर्द ख़ुदकुशी कर लेते हैं। उन्होंने यह सब कुछ नहीं किया, नौकरी की जो क़त्ल और ख़ुदकुशी दोनों से कहीं जियादा मुश्किल है।

जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]

[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]

इस भाग की अन्य कड़ियां.

1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम

पहला भाग

किताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

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By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

6 comments

  1. भई हम तो खरीदेंगे ही। आप इसको ऑनलाइन पढाना जारी रखो। दिल्ली पहुँचते ही पहला काम होगा ये उपन्यास खरीदना……वैसे कोई गिफ़्ट देना चाहे तो उसमे भी हमे आपत्ति नही…

  2. टहले टहलते आपके ब्लॉग पर आ पहुचे. हमे यहा दक्षिण भारत मे हिन्दी उपन्यास तो मिलते नही, आपके ब्लॉग के जरिए पढ़ने को मिला. धन्यवाद, हा एक बात और आपके स्वर मे मधुशाला सुनी, बेहतरीन.

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