ख़ोया पानी 2: चारपाई का चकल्लस

[पिछले अंक में आपने किबला का मजेदार परिचय पढा. “खोया पानी” उस व्यंग्य उपन्यास का नाम है जो पाकिस्तान के मशहूर व्यंग्यकार मुश्ताक अहमद यूसुफी की किताब आबे-गुम का हिन्दी अनुवाद है. इस पुस्तक के अनुवाद कर्ता है ‘लफ़्ज’ पत्रिका के संपादक श्री ‘तुफैल चतुर्वेदी’ जी. इस उपन्यास की टैग लाइन है “एक अद्भुत व्यंग्य उपन्यास” जो इस उपन्यास पर सटीक बैठती है.इसी उपन्यास को छोटे छोटे भागों में यहां पेश किया जा रहा है अब और आगे पढिये]

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रंग गेहुआं, जिसे आप उस गेहूं जैसा बताते हैं, जिसे खाते ही हज़रत आदम एकदम जन्नत से निकाल दिये गये। जब देखो झल्लाते, तिनतिनाते रहते। मिज़ाज,ज़बान और हाथ, किसी पर क़ाबू न था, हमेशा गुस्से से काँपते रहते। इसलिए ईंट, पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था। गछी-गछी मूंछें, जिन्हें गाली देने से पहले और बाद में ताव देते। आख़री ज़माने में भौंहों को भी बल देने लगे, गठा हुआ कसरती बदन मलमल के कुर्ते से झलकता था। चुनी-हुई आस्तीन और उससे भी महीन चुनी-हुई दुपलिया टोपी। गर्मियों में ख़स का इत्र लगाते। कीकरी की सिलाई का चूड़ीदार पाजामा-चूड़ियां इतनी अधिक कि पाजामा नज़र नहीं आता था। धोबी उसे अलगनी पर नहीं सुखाता था, अलग बांस पर दस्ताने की तरह चढ़ा देता था। आप रात को दो बजे भी दरवाज़ा खटखटा कर बुलायें तो चूड़ीदार में ही बाहर निकलेंगे।

वल्लाह! मैं तो यह कल्पना करने का भी साहस नहीं कर सकता कि दाई ने भी उन्हें चूड़ीदार के बग़ैर देखा होगा। भरी-भरी पिंडलियों पर ख़ूब जंचता था, हाथ के बुने रेशमी नाड़े में चाबियों का गुच्छा छनछनाता रहता था। जो ताले बरसों पहले बेकार हो गये थे, उनकी चाबियां भी इसी गुच्छे में सुरक्षित थीं। हद यह कि उस ताले की भी चाबी थी, जो पांच साल पहले चोरी हो गया था। मुहल्ले में इस चोरी की बरसों चर्चा रही, इसलिये कि चोर सिर्फ़ ताला, पहरा देने वाला कुत्ता और वंशावली चुरा कर ले गया। कहते थे कि इतनी ज़लील चोरी सिर्फ़ कोई रिश्तेदार ही कर सकता है। आख़िरी ज़माने में यह इज़ारबंदी गुच्छा बहुत वज़नी हो गया था और मौक़ा-बेमौक़ा फिल्मी गीत के बाज़ूबंद की तरह खुल-खुल जाता। कभी भावातिरेक में झुककर किसी से हाथ मिलाते तो दूसरे हाथ से इज़ारबंद थामते। मई-जून में टेम्प्रेचर बहुत हो जाता और मुंह पर लू के थप्पड़ से पड़ने लगते तो पाजामे से एयर कंडीशनिंग कर लेते। मतलब यह कि चूड़ियों को घुटनों-घुटनों पानी से भिगो कर, सर पर अंगोछा डाले तरबूज़ खाते। ख़स की टट्टी और ठंडा पानी कहां से लाते। इसके मुहताज भी न थे। कितनी ही गर्मी पड़े, दुकान बंद नहीं करते थे, कहते थे, मियां! यह तो बिज़नेस है, पेट का धंधा है, जब चमड़े की झोपड़ी में आग लगी रही हो तो क्या गर्मी, क्या सर्दी लेकिन ऐसे में कोई शामत का मारा ग्राहक आ निकले तो बुरा-भला कहकर भगा देते थे। इसके बावजूद वो खिंचा-खिंचा दुबारा उन्हीं के पास आता था, इसलिए कि जैसी उम्दा लकड़ी वो बेचते थे, वैसी सारे कानपुर में कहीं नहीं मिलती थी। फर्माते थे, दाग़ी लकड़ी बन्दे ने आज तक नहीं बेची, लकड़ी और दाग़ी! दाग़ तो दो-ही चीज़ों पर सजता है, दिल और जवानी।

शब्द के लच्छन और बाज़ारी पान

तम्बाकू, किवाम, ख़रबूज़े और कढ़े हुए कुर्ते लखनऊ से, हुक़्का मुरादाबाद और ताले अलीगढ़ से मंगवाते थे। हलवा सोहन और डिप्टी नशीर अहमद वाले मुहावरे दिल्ली से। दांत गिरने के बाद सिर्फ मुहावरों पर गुज़ारा था। गालियां अल्बत्ता स्थानीय बल्कि खुद की गढ़ी हुई देते, जिनमें रवानी पाई जाती थी। सलीम शाही जूतियां और चुनरी आपके जयपुर से मंगवाते थे। साहब! आपका राजस्थान भी खूब था, क्या-क्या उपहार गिनवाये थे उस दिन आपने खांड, सांड, भांड और रांड। यह भी खूब रही कि मारवाड़ियों को जिस चीज़ पर भी प्यार आता है उसके नाम में ठ, ड और ड़ लगा देते हैं मगर यह बात आपने अजीब बतायी कि राजस्थान में रांड का मतलब खूबसूरत औरत होता है। मारवाड़ी भाषा में सचमुच की विधवा के लिये भी कोई शब्द है कि नहीं लेकिन यह भी ठीक है कि सौ-सवा-सौ साल पहले तक रंडी का मतलब सिर्फ़ औरत होता था, जबसे मर्दों की नीयतें खराब हुइ, इस शब्द के लच्छन भी बिगड़ गये।

साहब! राजस्थान के तीन तुहफों के तो हम भी क़ायल और घायल हैं। मीराबाई, मेंहदी हसन और रेशमा। हाँ! तो मैं कह यह रहा था कि बाहर निकलते तो हाथ में पान की डिबिया और बटुवा रहता। बाज़ार का पान हरगिज़ नहीं खाते थे। कहते थे बाज़ारी पान सिर्फ रंडवे, ताक-झांक करने वाले और बम्बई वाले खाते हैं।

साहब! यह रखरखाव और परहेज़ मैंने उन्हीं से सीखा। डिबिया चांदी की, नक़्शीन (बेल-बूटे बने हुए) भारी, ठोस। इसमें जगह-जगह डेंट नज़र आते थे जो इंसानी सरों से टकराने की वज्ह से पड़े थे। गुस्से में अक्सर पानों भरी डिबिया फैंक के मारते। बड़ी देर तक तो यह पता ही नहीं चलता था कि घायल होने वालों के सर और चेहरे से खून निकल रहा है या बिखरे पानों की लाली ने ग़लत जगह रंग जमाया है। बटुवे ख़ास-तौर से आपके जन्म-स्थान, टोंक से मंगवाते थे। कहते थे कि वहां के पटुवे ऐसे डोरे डालते हैं कि इक ज़रा घुंडी को झूठों हाथ लगा दो तो बटुआ आप-ही-आप जी-हुज़ूर लोगों की बांछों की तरह खिलता चला जाता है।गुटका भोपाल से आता था, लेकिन खुद नहीं खाते थे।कहते थे, मीठा पान, ठुमरी,गुटका और नावेल, ये सब नाबालिग़ों के व्यसन हैं। शायरी से कोई ख़ास दिलचस्पी न थी। रदीफ़-क़ाफ़िये से आज़ाद शायरी से ख़ास-तौर पर चिढ़ते थे। यूं उर्दू-फ़ारसी के जितने भी शेर, लकड़ी, आग, धुएं, हेकड़ी, लड़-मरने, नाकामी और झगड़े के बारे में हैं, सब याद कर रखे थे। स्थिति कभी क़ाबू से बाहर हो जाती तो शायरी से उसका बचाव करते। आख़िरी ज़माने में एकांतप्रिय इंसानों-से हो गये थे और सिर्फ़ दुश्मनों के जनाज़े को कंधा देने के लिए बाहर निकलते थे। खुद को कासनी और बीबी को मोतिया रंग पसंद था। अचकन हमेशा मोतिया-रंग के टसर की पहनी।

वाह क्या बात कोरे बर्तन की

बिशारत की ज़बानी परिचय ख़त्म हुआ। अब कुछ मेरी, कुछ उनकी ज़बानी सुनिये और रही-सही आम लोगों की ज़बान से, जिसे कोई नहीं पकड़ सकता। कानपुर में पहले बांसमंडी और फिर कोपरगंज में क़िबला की लकड़ी की दुकान थी। इसी को आप उनका रोटी-रोज़ी कमाने और लोगों को सताने का साधन कह सकते हैं। थोड़ी बहुत जलाने की लकड़ी भी रखते थे मगर उसे लकड़ी नहीं कहते। उनकी दुकान को अगर कभी कोई टाल कह देता तो दो सेरी लेकर दौड़ते। जवानी में पंसेरी लेकर दौड़ते थे। तमाम उम्र पत्थर के बाट इस्तेमाल किये। फ़र्माते थे कि लोहे के फ़िरंगी बाट बेबरकत होते हैं। इन देसी बाटों को बाज़ुओं में भर-के, सीने से लगा-के उठाना पड़ता है। कभी किसी को यह साहस नहीं हुआ कि उनके पत्थर के बाटों को तुलवा कर देख ले। किसकी बुरी घड़ी आई थी कि उनकी दी हुई रक़म या लौटाई हुई रेज़गारी को गिन कर देखे। उस समय में, यानी इस सदी की तीसरी दहाई में इमारती लकड़ी की खपत बहुत कम थी। साल और चीड़ का रिवाज आम था। बहुत हुआ तो चौखट और दरवाज़े शीशम के बनवा लिये। सागौन तो सिर्फ़ अमीरों और रईसों की डाइनिंग टेबल और गोरों के ताबूत में इस्तेमाल होती थी। फ़र्नीचर होता ही कहां था। भले घरों में फ़र्नीचर के नाम पर सिर्फ चारपाई होती थी। जहां तक हमें याद पड़ता है, उन दिनों कुर्सी सिर्फ़ दो अवसरों पर निकाली जाती थी। एक तो जब हकीम, वैद्य, होम्योपैथ, पीर, फ़कीर और सयानों से मायूस हो कर डाक्टर को घर बुलाया जाता था। उस पर बैठ कर वो जगह-जगह स्टेथेस्कोप लगा कर देखता कि मरीज़ और मौत के बीच जो खाई थी, उसे इन महानुभावों ने अपनी दवाओं और तावीज़, गंडों से किस हद तक पाटा है। उस समय का दस्तूर था कि जिस घर में मुसम्मी या महीन लकड़ी की पिटारी में रफई में रखे हुए पांच अंगूर आयें या सोला-हैट पहने डाक्टर और उसके आगे-आगे हटो-बचो करता हुआ तीमारदार उसका चमड़े का बैग उठाये आये तो पड़ोस वाले जल्दी-जल्दी खाना खा कर खुद को शोक व्यक्त करने और कन्धा देने के लिये तैयार कर लेते थे। सच तो यह है कि डाक्टर को सिर्फ़ उस अवस्था में बुला कर इस कुर्सी पर बिठाया जाता था, जब वह स्थिति पैदा हो जाये जिसमें दो हज़ार साल पहले लोग ईसा मसीह को आज़माते थे। कुर्सी के इस्तेमाल का दूसरा और आख़िरी अवसर हमारे यहां खतने (लिंग की खाल काटना) के अवसर पर आता था, जब लड़कों को दूल्हा की तरह सजा बना और मिट्टी का खिलौना हाथ में दे कर इस कुर्सी पर बिठा दिया जाता था। इस जल्लादी कुर्सी को देखकर अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाती थी। ग़रीबों में इस काम के लिये भाट या लम्बे-वाले कोरे मटके को उल्टा करके लाल कपड़ा डाल देते थे।

चारपाई

सच तो यह है कि जहां चारपाई हो वहां किसी फ़र्नीचर की न ज़रूरत है , न गुंजाइश, न तुक। इंग्लैंड का मौसम अगर इतना ज़लील न होता और अंग्रेज़ों ने वक़्त पर चारपाई का आविष्कार कर लिया होता तो न सिर्फ ये कि वो मौजूदा फ़र्नीचर की खखेड़ से बच जाते, बल्कि फ़िर आरामदेह चारपाई छोड़ कर उपनिवेश बनाने की ख़ातिर घर से बाहर निकलने को भी उनका दिल न चाहता। ‘ओवरवर्क्ड’ सूरज भी उनके साम्राज्य पर एक सदी तक हर वक़्त चमकते रहने की ड्यूटी से बच जाता। कम से कम आजकल के हालात में अटवाटी-खटवाटी लेकर पड़े रहने के लिये उनके घर में कोई ढंग की चीज़ तो होती। हमने एक दिन प्रोफेसर क़ाज़ी अब्दुल से कहा कि आपके कथनानुसार सारी चीज़ें अंग्रेज़ों ने आविष्कृत की हैं, सुविधा-भोगी और बेहद प्रैक्टिकल लोग हैं-हैरत है कि चारपाई इस्तेमाल नहीं करते! बोले, अदवान कसने से जान चुराते हैं। हमारे ख्याल में एक बुनियादी फ़र्क ज़हन में ज़ुरूर रखना चाहिए, वो ये कि यूरोपियन फ़र्नीचर सिर्फ़ बैठने के लिये होता है, जबकि हम किसी ऐसी चीज़ पर बैठते ही नहीं, जिस पर लेट न सकें। मिसाल में दरी, गदैले, क़ालीन, ज़ाज़िम, चांदनी, चारपाई, माशूक़ की गली और दिलदार के पहलू को पेश किया जा सकता है। एक चीज़ हमारे यहां अलबत्ता ऐसी थी जिसे सिर्फ बैठने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। उसे हुक्मरानों का तख़्त कहते थे, लेकिन जब उन्हें उसी पर लटका कर, फ़िर नहला दिया जाता तो यह तख़्ता कहलाता था और इस काम को तख़्ता उलटना कहते थे।

जारी….
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khoya_pani_front_coverकिताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

 

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By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

10 comments

  1. अब तो लगता है खरीदनी ही पड़ेगी यह किताब! देखता हूं, इलाहाबाद में मिलती है या नहीं।

  2. चलिए कुछ दिनों में दिल्ली आना है तो खरीदकर ही लौटूंगा। यहां तो मुंबई में हिंदी किताबों को टोटा है।

  3. अरे अब जब पढली है तो हमे उधार दे दो भाइ..हम भी पढ लेगे..काहे पैसे खराब कराते हो..उकसा उकसा कर 🙂

  4. @अरुण भाई,

    उधार देने से बचने के लिए ही तो यहाँ पर छाप रहा हूँ. ताकि आप आते रहें और पढ़ते रहें.:-)

    @समीर भाई : पूरा ही छाप रहा हूँ जी. आप पैसे बचा लीजिये और उन पैसों से एक शानदार दावत हो जाये. वैसे एक पहले से ही ड्यू है.

    @अनिल जी : जब तक ना खरीदी हो तब तक यहाँ आकर पढें. मैं हर रोज एक छोटा भाग प्रकाशित करुंगा.

  5. अगर आप किसी को घूँट घूँट पिलायेंगे तो उसकी प्यास नहीं बुझ पायेगी उसके लिए तो हाथ मैं गिलास होना जरूरी है. मैं मदिरा की नहीं पानी की बात कर रहा हूँ. ये बात किताबों पर भी लागू होती है, जो मजा हाथ में किताब लेकर पढने में है वो किश्तों में पढने में कहाँ. मैं ये बात उनके लिए कर रहा हूँ जो आप के ब्लॉग पर इसे पढ़ कर किताब खरीदने से बचना चाहते हैं
    नीरज

  6. वडे वापा जी ने ठीक ही कहा है. वैसे एक अर्ज़ है जिस दिन पुरी किताब पोस्ट हो जाए उसदिन किताब मुझे पोस्ट कर दीजियेगा.पढ़ कर मज़ा आ रहा है.

  7. आपकी पोस्ट के साथ उस्में जो कमेंट हैं वह पढकर भी आनंद आया
    दीपक भारतदीप

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