कई पुश्तों की नालायकी का निचोड़

कई पुश्तों की नालायकी का निचोड़

ये शायर जो भूचाल लाया बल्कि जिसने मुशायरा अपनी मूंछों पर उठा लिया, बिशारत का ख़ानसामा निकला. पुरानी टोपी और उतरन की अचकन का तोहफ़ा उसे पिछ्ली ईद पर मिला था. राह चलतों को पकड़-पकड़ के अपना कलाम फ़रमाता. सुनने वाला दाद देता तो उसे खींच कर लिपटा लेता, और दाद ना देता तो खुद आगे बढ़कर उससे लिपट जाता. अपने कलाम के दैवीय होने में उसे कोई शक ना था.शक औरों को भी नहीं था क्योंकि केवल अक़्ल या खाली-ख़ूली इल्म के ज़ोर से कोई शख़्स ऐसे ख़राब शेर नहीं कह सकता. दो पंक्तियों में इतनी सारी गलतियां और झोल आसानी से सुमो देना दैवीय मदद के बग़ैर मुमकिन ना था. काव्य चिंतन में अक्सर यह भी हुआ कि अभी पंक्ति पे ठीक से दूसरी पंक्ति भी नहीं लगी थी कि हंडिया धुंआ देने लगी. सालन के भुट्टे लग गये. पांचवी क्लास तक पढ़ाई की थी, जो उसकी निजी जुरुरत और बर्दाश्त से कहीं जियादा थी.वो अपनी संक्षिप्त सी अंग्रेजी और ताजा शेर को रोक नहीं सकता था. अगर आप उससे दस मिनट भी बात करें तो उसे अंग्रेजी के जितने भी लफ्ज आते थे वो सब आप पर दाग देता. अपने को सागर साहब कहलवाता लेकिन घर में जब ख़ानसमा का काम अंज़ाम दे रहा होता तो अपने नाम अब्दुल क़य्यूम से पुकारा जाना पसंद करता. सागर कहके बुलायें तो बहुत बुरा मानता.कहता था, नौकरी में हाथ बेचा है, उपनाम नहीं बेचा. ख़ानसामागिरी में भी शायराना तूल ना देने से बाज ना आता. ख़ुद को वाजिद अली शाह, अवध के नबाब का ख़ानदानी ख़ानसामा बताता था. कहता था, कि मैं फ़ारसी में लिखी डेढ़ सौ साल पुरानी डायरी देख-देख कर खाना पकाता हूँ. उसके हाथ का अस्वादिष्ट खाना दरअस्ल कई पुस्तों की जमा की गयी नालायक़ी का निचोड़ होता था.

मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़ियादा

उसका दावा था कि मैं एक सौ एक क़िस्म के पुलाव पका सकता हूँ और ऐसा ग़लत भी न था.बिशारत हर इतवार को पुलाव पकवाते थे. साल भर में करीब बावन बार जुरुर पकवाया होगा. हर बार हर अलग तरीके से ख़राब करता था. सिर्फ वो खाने ठीक पकाता था जिनको और ख़राब करना मामूली क़ाबिलियत रखने वाले आदमी के बस का काम नहीं.उदाहरण के तौर पर खिचड़ा,आलू का भुरता,लगी हुई खीर, रात भर की पकी देग,खिचड़ा,अरहर की दाल और मुतनजन जिसमें मीठे चावलों के साथ गोस्त और नींबू की खटायी डाली जाती थी. फूहड़ औरतों की तरह खाने की तमाम ख़राबियों को मिर्च से और शायरी की ख़राबियों को तरन्नुम से दूर कर देता था. मीठा बिल्कुल नहीं पका सकता था, इसलिये कि इसमें मिर्च डालने का रिवाज नहीं.अक्सर चांदनी रातों में जियोग्राफी टीचर को उसी बैजो पर अपनी ग़जलें गा के सुनाता,जिन्हें सुनकर वो अपनी महबूबा को ,जिसकी शादी मुरादाबाद में एक पीतल के पीकदान बनाने वाले से हो गयी थी, याद कर-कर षणज में रोता था.

बिशारत ने एक दिन छेड़ा कि भई, तुम ऐसी मुश्किल जमीनों में ऐसे अच्छे शेर निकालते हो , फिर ख़ानसामागिरी क्यों करते हो? कहने लगा आपने मेरे दिल की बात पूछ ली. अच्छा खाना पकाने के बाद जो रूह को खुशी मिलती है वो शेर के बाद नहीं मिलती. किस वास्ते कि खाना पकाने में वज्न का कहीं ज़ियादा ख़याल रखना पड़ता है. खाने वाले जिसे बुरा कह दे उसे बुरा मानना पड़ता है. खाना पकाने में मेहनत भी ज़ियादा पड़ती है. इसीलिये तो आज तक किसी शायर ने बावर्ची का पेशा नहीं पकड़ा.

शायरी को सागर जालौनवी ने कभी ज़रिया-ए-इज़्ज़त नहीं समझा, जिसका एक कारण ये था कि शायरी के कारण अक्सर उसकी बेइज़्ज़ती होती रहती थी.खाना पकाने में जितना दिमागदार था,शेर कहने में उतनी ही उदारता से काम लेता था. अक्सर बड़ खुले दिल से स्वीकार करता था कि ग़ालिब उर्दू में मुझसे बेहतर कह लेता था.”मीर” को मुझसे कहीं जियादा तनख्वाह और दाद मिली. उदारता से इतना मानने के बाद ये जुरुर कहता, हुजुर वो जमाने और थे,उस्ताद सिर्फ शेर कहते और शागिर्दों की ग़ज़ले बनाते थे, कोई उनसे चपाती नहीं बनवाता था.

जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]

[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]

किताब डाक से मंगाने का पता: 

किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857

पेज -350 (हार्डबाऊंड)

कीमत-200 रुपये मात्र

इस भाग की अन्य कड़ियां.

1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज 8. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या? 9. विशेष मूली और अच्छा-सा नाम 10. ज़लील करने के कायदे 11. आइडियल यतीम का हुलिया 12. ज़लील करने के अलग अलग शेड 13.कुत्ते की तारीफ और मुशायरा 14. शायरों की खातिरदारी 15. इक्के का आविष्कार घोड़े ने किया 16.मुशायरे की तैयारी 17. तवायफ़ के किस्से 18. मूलगंज: तवायफों का जिक्र 19. और मुशायरा लुट गया 20. अजब-गजब मुशायरा 21. तिरे कूचे से हम निकले

पहला भाग

By काकेश

मैं एक परिन्दा....उड़ना चाहता हूँ....नापना चाहता हूँ आकाश...

5 comments

  1. “बिशारत हर इतवार को पुलाव पकवाते थे. साल भर में करीब बावन बार जुरुर पकवाया होगा. हर बार हर अलग तरीके से ख़राब करता था.”

    शानदार! क्या लिखते हैं जी…बहुत खुशी होती है ये पढ़कर. आप बड़ी मेहनत के साथ इसे टाइप करते हैं…खूब सारा धन्यवाद.

  2. हर बार वाह ही निकलती है पढ़के ,अगली बार खाली अपनी उपस्तिथि दर्ज कराऊंगा ……

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