इस अंक में देखिये कि बिशारत, जो मास्टरी की नौकरी के लिये तहसीलदार मौलवी मज्जन के पास जा रहे हैं, उनको मौलवी के बारे में क्या क्या बातें पता चलती हैं.
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मौलवी मज्जन से तानाशाह तकः तहसीलदार तक सिफ़ारिश पंहुचाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। अलबत्ता मौलवी मुजफ़्फ़र (जो तिरस्कार, संक्षेप और प्यार में मौली मज्जन कहलाते थे) के बारे में जिससे पूछा, उसने नया ऐब निकाला। एक साहब ने कहा, क़ौम का दर्द रखता है हाकिमों से मेलजोल रखता है पर कमीना है, बच के रहना। दूसरे साहब बोले मौलवी मज्जन एक यतीमख़ाना शम्स-उल-इस्लाम भी चलाता है। यतीमों से अपने पैर दबवाता है। स्कूल की झाड़ू दिलवाता है और मास्टरों को यतीमों की टोली के साथ चंदा इकट्ठा करने कानपुर और लखनऊ भेजता है, वो भी बिना टिकिट। मगर इसमें कोई शक नहीं कि धुन का पक्का है। धीरजगंज के मुसलमानों की बड़ी सेवा की है। धीरजगंज के जितने भी मुसलमान आज पढ़े-लिखे और नौकरी करते नजर आते हैं वो सब इसी स्कूल के जीने से ऊपर चढ़े हैं। कभी-कभी लगता था कि लोगों को मौलवी मुजफ़्फ़र से ईश्वरीय बैर हो गया है। बिशारत को उनसे एक तरह की हमदर्दी हो गई। यूं भी मास्टर फ़ाख़िर हुसैन ने एक बार बड़े काम की नसीहत की थी कि कभी अपने बुजुर्ग या बॉस या अपने से अधिक बदमाश आदमी को सही रास्ता बताने की कोशिश न करना। उन्हें ग़लत राह पर देखो तो तीन ज्ञानी बंदरों की तरह अंधे, बहरे और गूंगे बन जाओ! ठाठ से राज करोगे!
एक दिलजले बुजुर्ग, जो ‘जमाना’ पत्रिका में काम करते थे, फ़र्माया, वो छाकटा ही नहीं, चरकटा भी है। पच्चीस रुपये की रसीद लिखवा कर पन्द्रह रुपल्ली हाथ पे टिका देगा। पहले तुम्हें जांचेगा, फिर आंकेगा, इसके बाद तमाम उम्र हांकेगा। उसने दस्तख़त करने उस वक़्त सीखे जब चंदे की जाली रसीदें काटने की जुरूरत पड़ी। अरे साहब! सर सय्यद तो अब जा के बना है मैंने अपनी आंखों से उसे अपने निकाहनामे पे अंगूठा लगाते देखा है। ठूंठ जाहिल है मगर बला का गढ़ा हुआ, घिसा हुआ भी। ऐसा-वैसा चपड़क़नात नहीं है, लुक़्क़ा भी है, लुच्चा भी और टुच्चा भी। बुजुर्गवार ने एक ही सांस में पाजीपन के ऐसे बारीक शेड्स गिनवा दिये कि जब तक आदमी हर गाली के बाद शब्दकोष न देखे या हमारी तरह लम्बे समय तक भाषाविदों की सुहबत के सदमे न उठाये हुए हो वो जबान और नालायक़ी की उन बारीकियों को नहीं समझ सकता।
सय्यद एजाज हुसैन ‘वफ़ा’ कहने लगे ‘‘मौली मज्जन पांचों वक़्त टक्करें मारता है। घुटने, माथे और जमीर पर ये बड़े-बड़े गट्टे पड़ गये हैं। थानेदार और तहसीलदार को अपनी मीठी बातचीत, इस्लाम-दोस्ती, मेहमान-नवाजी और रिश्वत से क़ाबू में कर रखा है। दमे का मरीज है। पांच मिनट में दस बार आस्तीन से नाक पोंछता है।’’ दरअस्ल उन्हें आस्तीन से नाक पोंछने पर इतना एतराज न था जितना इस पर कि आस्तीन को अस्तीन कहता है, यख़नी को अख़नी और हौसला का होंसला। उन्होंने अपने कानों से उसे मिजाज शरीफ़ और शुबरात कहते सुना था। जुहला (गंवारों) किसानों और बकरियों की तरह हर वक़्त मैं! मैं! करता रहता है। लखनऊ के शुरफ़ा (शरीफ़ का बहुवचन-भद्र लोग) अहंकार से बचने की ग़रज से ख़ुद को हमेशा हम कहते हैं। इस पर एक कमजोर और सींक-सलाई बुजुर्ग ने फ़र्माया कि जात का क़साई, कुंजड़ा या दिल्ली वाला मालूम होता है, किस वास्ते कि तीन बार गले मिलता है। अवध में शुरफ़ा केवल एक बार गले मिलते हैं।
ये अवध के साथ सरासर जियादती थी इसलिये कि सिर्फ़ एक बार गले मिलने में शराफ़त का शायद उतना दख़्ल न था जितना नाजुक-मिजाजी का और ये याद रहे कि यह उस जमाने के पारम्परिक चोंचले हैं जब नाजुक-मिजाज बेगमें ख़ुश्के और ओस का आत्महत्या के औजार की तरह प्रयोग करती थीं और यह धमकी देती थीं कि ख़ुश्कख़ार ओस में सो जाऊंगी। वो तो खैर बेगमें थीं, तानाशाह उनसे भी बाजी ले गया। उसके बारे में मशहूर है कि जब वो बंदी बना कर दरबार में बेड़ियां पहना कर लाया गया तो सवाल ये पैदा हुआ कि इसे मरवाया कैसे जाये। दरबारियों ने एक से एक उपाय पेश किये। एक ने तो मशवरा दिया कि ऐसे अय्याश को तो मस्त हाथी के पैर से बांध कर शहर का चक्कर लगवाना चाहिये। दूसरा कोर्निश बजा कर बोला, दुरुस्त, मगर मस्त हाथी को शहर का चक्कर कौन माई का लाल लगवायेगा। हाथी शहर का चक्कर लगाने के लिये थोड़े ही मस्त होता है, अलबत्ता आप तानाशाह की अय्याशियों की सजा हाथी को देना चाहते हैं तो और बात है। इस पर तीसरा दरबारी बोला कि तानाशाह जैसे अय्याश को इससे जियादा तकलीफ़ देने वाली सजा नहीं हो सकती कि इसे हीजड़ा बना कर इसी के हरम में खुला छोड़ दिया जाये। एक और दरबारी ने तजवीज पेश की कि आंखों में नील की सलाई फिरवा कर अंधा कर दो, फिर क़िला ग्वालियर में दो साल तक रोजाना ख़ाली पेट पोस्त का पियाला पिलाओ कि अपने जिस्म को धीरे-धीरे मरता हुआ ख़ुद भी देखे। इस पर किसी इतिहासकार ने विरोध किया कि सुल्तान का तानाशाह से ख़ून का कोई रिश्ता नहीं है, ये बरताव तो सिर्फ़ सगे भाइयों के साथ होता आया है। एक दिलजले ने कहा कि क़िले की दीवार से नीचे फेंक दो, मगर यह तरीक़ा इसलिए रद्द कर दिया गया कि इसका दम तो मारे डर के रस्ते में ही निकल जायेगा, अगर मक़सद तकलीफ़ पहुंचाना है तो वो पूरा नहीं होगा। अंत में वजीर ने, जिसका योग्य होना साबित हो गया, ये मुश्किल हल कर दी। उसने कहा कि मानसिक पीड़ा देकर और तड़पा-तड़पाकर मारना ही लक्ष्य है तो इसके पास से एक ग्वालिन गुजार दो।
जिन पाठकों ने बिगड़े रईस और ग्वालिन नहीं देखी उनकी जानकारी के लिये निवेदन है कि मक्खन और कच्चे दूध की बू, रेवड़ बास में बसे हुए लंहगे और पसीने के नमक से सफ़ेद पड़ी हुई काली क़मीज के एक भबके से अमीरों और रईसों का दिमाग़ फट जाता था। फिर उन्हें हिरन की नाभि से निकली हुई कस्तूरी के लख़लख़े सुंघा कर होश में लाया जाता था।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
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राम राम कैसे कैसे तरीके लिखते है आप ,इतनी गंध आ रही है कि टिपियाना मुश्किल हो रह है..फ़ौरन कस्तूरी भेजे..:)
वाह! वाह!
बढ़िया मज़ा आ रहा है.
जारी रहें.
बहुत बढिया !