इंटरव्यू से पहले तहसीलदार ने गला साफ़ करके सबको खामोश किया तो ऐसा सन्नाटा छाया कि दीवार पर लटके हुए क्लाक की टिक-टिक और मौलवी मुजफ़्फ़र के हांफने की आवाज साफ़ सुनाई देने लगी। फिर इंटरव्यू शुरू हुआ और सवालों की बौछार। इतने में क्लाक ने ग्यारह बजाये तो सब दोबारा खामोश हो गये। धीरजगंज में कुछ अर्से रहने के बाद बिशारत को मालूम हुआ कि देहात की तहजीब के मुताबिक़ जब क्लाक कुछ बजाता है तो सब खामोश और बाअदब हो कर सुनते और गिनते हैं कि ग़लत तो नहीं बजा रहा।
इंटरव्यू दोबारा शुरू हुआ तो जिस शख़्स को चपरासी समझे थे, वो खाट की अदवायन पर आ कर बैठ गया। वो धार्मिक विषयों का मास्टर निकला जो उन दिनों उर्दू टीचर की जिम्मेदारी भी निभा रहा था। इन्टरव्यू में सबसे जियादा धर-पटक उसी ने की। मौलवी मुजफ़्फ़र और एक मैम्बर ने भी, जो मुंसिफ़ी अदालत से रिटायर्ड पेशकार थे, ऐंडे-बेंडे सवाल किये। तहसीलदार ने अलबत्ता छिपे-तौर पर मदद और तरफ़दारी की और सिफ़ारिश की लाज रखी। चंद सवालात नक़्ल किये जा रहे हैं। जिससे सवाल करने और जवाब देने वाले दोनों की योग्यता का अंदाजा हो जायेगा।
मौलवी मुजफ़्फ़रः ( कुल्लियाते-मख़मूर’ पर चुमकारने के अंदाज से हाथ फेरते हुए ) शेर कहने के फ़ायदे बयान कीजिये।
बिशारतः (चेहरे पर ऐसा एक्सप्रेशन जैसे आउट आफ़ कोर्स सवाल पूछ लिया हो) शायरी……….मेरा मतलब है, शेर….यानी उसका मक़सद….बात दरअस्ल ये है कि. …शौक़िया…..।
मौलवी मुजफ़्फ़रः अच्छा ख़ालिके-बारी का कोई शेर सुनाइये।
बिशारतः ख़ालिके -बारी सर्जनहार, वाहिद एक बिदा करतार।
पेशकारः आपके बाप, दादा और नाना किस विभाग में नौकर थे?
बिशारतः उन्होंने नौकरी नहीं की।
पेशकारः फिर आप कैसे नौकरी कर सकेंगे। चार पीढ़ियां एक के बाद एक अपना पित्ता मारें तो कहीं जा कर नौकरी की क़ाबिलियत पैदा होती है।
बिशारतः (सीधेपन से) मेरा पित्ता आप्रेशन के जरिये निकाला जा चुका है।
धार्मिक शिक्षकः आप्रेशन का निशान दिखाइये।
तहसीलदारः आपने कभी बेंत का इस्तेमाल किया है?
बिशारतः जी नहीं।
तहसीलदारः कभी आप पर बेंत का इस्तेमाल हुआ है?
बिशारतः अक्सर।
तहसीलदारः तब आप डिसीप्लिन क़ायम कर सकेंगे।
पेशकारः अच्छा यह बताइये दुनिया गोल क्यों बनाई गई है?
बिशारतः (पेशकार को ऐसे देखते हैं जैसे चारों ख़ाने चित्त होने पर पहलवान अपने प्रतिद्वन्द्वी को देखता है)…
तहसीलदारः पेशकार साहब! इन्होंने उर्दू टीचर की दरख़्वास्त दी है, भूगोल वालों के इंटरव्यू परसों होंगे।
धार्मिक शिक्षकः ब्लैक-बोर्ड पर अपनी राइटिंग का नमूना लिख कर दिखाइये।
पेशकारः दाढ़ी पर आपको क्या ऐतराज है?
बिशारतः कुछ नहीं।
पेशकारः फिर रखते क्यों नहीं?
धार्मिक शिक्षकः आपको चचा से जियादा मुहब्बत है या मामू से।
बिशारतः कभी ग़ौर नहीं किया।
धार्मिक शिक्षकः अब कर लीजिये।
बिशारतः मेरे कोई चचा नहीं हैं।
धार्मिक शिक्षकः आपको नमाज आती है? अपने पिता के जनाजे की नमाज पढ़ कर दिखाइये।
बिशारतः वो जिन्दा हैं।
धार्मिक शिक्षकः लाहौल विला क़ुव्वत, मैंने तो अंदाजा लगाया। तो फिर अपने दादा की पढ़ कर दिखाइये। या आप अभी उनकी कृपा से भी वंचित नहीं हुए हैं।
बिशारतः (भरी आवाज में) उनका इंतक़ाल हो गया है।
मौलवी मुजफ़्फ़रः मुसद्दसे-हाली का कोई बन्द सुनाइये।
बिशारतः मुसद्दस का तो कोई बन्द इस वक़्त याद नहीं आ रहा। हाली की ही मुनाजाते-बेवा के कुछ शेर पेश करता हूं।
तहसीलदारः अच्छा, अब अपना कोई पसन्दीदा शेर सुनाइये जिसका विषय बेवा न हो।
बिशारतः
तोड़ डाले जोड़ सारे बांध कर बन्दे-कफ़न
गोर की बग़ली से चित है पहलवां, कुछ भी नहीं
तहसीलदारः किसका शेर है?
बिशारतः जबान का शेर है।
तहसीलदारः ऐ सुब्हानल्ला! क़ुर्बान जाइये, कैसी-कैसी लफ़्जी रिआयतें और क़यामत के तलामजो बांधे हैं। तोड़ की टक्कर पे जोड़। एक तरफ़ बांधना दूसरी तरफ़ बंद। वाह! वाह! इसके बाद बग़ली क़ब्र और बग़ली दांव की तरफ़ ख़ूबसूरत इशारा, फिर बग़ली दांव से पहलवान का चित होना। आखिर में चित पहलवान और चित मुर्दा और कुछ भी नहीं, कह के दुनिया की नश्वरता को तीन शब्दों में भुगता दिया। ढ़ेर सारे अलंकारों को एक शेर में बंद कर देना चमत्कार नहीं तो और क्या है। ऐसा ठुका हुआ, इतना पुख़्ता और इतना ख़राब शेर कोई उस्ताद ही कह सकता है।
मौलवी मुजफ़्फ़रः आप सादगी पसंद करते हैं या दिखावा।
बिशारतः सादगी।
मौलवी मुजफ़्फ़रः शादीशुदा हैं या छड़े दम।
बिशारतः जी, गैर शादीशुदा।
मौलवी मुजफ़्फ़रः फिर आप इतनी सारी तनख़्वाह का क्या करेंगे? यतीमख़ाने को कितना मासिक चंदा देंगे?
तहसीलदारः आपने शायरी कब शुरू की? अपना पहला शेर सुनाइये।
बिशारतः
है इंतजारे-दीद में लाशा उछल रहा
हालांकि कू-ए-यार अभी कितनी दूरूर है
तहसीलदारः वाह वा! ‘हालांकि’ का जवाब, नहीं वल्लाह ऊसर जमीन में ‘लाशा’ ने जान डाल दी और ‘इतनी दूर’ में कुछ न कह कर कितना कुछ कह दिया।
बिशारतः आदाब बजा लाता हूं।
तहसीलदारः छोटी बहर में क्या क़यामत का शेर निकाला है। शेर में शब्दों की मितव्ययिता के अलावा विचार की भी कृपणता पाई जाती है।
बिशारतः आदाब।
तहसीलदारः (कुत्ता भौंकने लगता है) मुआफ़ कीजिये, मैं आपके कुत्ते के भौंकने में ख़लल डाल रहा हूं। यह बताइये कि जिन्दगी में आपकी क्या Ambition है?
बिशारतः यह नौकरी मिल जाये।
तहसीलदारः तो समझिये मिल गई। कल सुब्ह अपना सामान बर्तन-भाण्डे ले आइयेगा। साढ़े ग्यारह बजे मुझे आपकी Joining Report मिल जानी चाहिये। तन्ख़्वाह आपकी चालीस रुपये माहवार होगी।
मौलवी मुजफ़्फ़र चीख़ते और पैर पटकते रह गये कि सुनिये तो। ग्रेड पच्चीस रुपये का है, तहसीलदार ने उन्हें झिड़क कर ख़ामोश कर दिया और फ़ाइल पर अंग्रेजी में यह नोट लिखा कि इस उम्मीदवार में वो तमाम अच्छे गुण पाये जाते हैं जो किसी भी लायक़ और Ambitious नौजवान को एक कामयाब पटवारी या क्लास का टीचर बना सकते हैं, बशर्ते कि मुनासिब निगरानी और रहनुमाई मिले। मैं अपनी सारी व्यस्तताओं के बावजूद इसे अपना कुछ वक़्त और ध्यान देने के लिये तैय्यार हूं। शुरू में मैंने इसे 100 में से 80 नम्बर दिये थे मगर बाद में पांच नम्बर सुलेख के बढ़ाये लेकिन पांच नम्बर शायरी के काटने पड़े।
जारी………………[अब यह श्रंखला प्रत्येक शुक्रवार और रविवार को प्रस्तुत की जा रही है.]
[उपन्यास खोयापानी की दूसरे भाग “धीरजगंज का पहला यादगार मुशायरा से” ]
इस भाग की अन्य कड़ियां.
1. फ़ेल होने के फायदे 2. पास हुआ तो क्या हुआ 3. नेकचलनी का साइनबोर्ड 4. मौलवी मज्जन से तानाशाह तक 5. हलवाई की दुकान और कुत्ते का नाश्ता 6. कुत्ता और इंटरव्यू 7. ब्लैक होल ऑफ़ धीरजगंज
किताब डाक से मंगाने का पता:
किताब- खोया पानी
लेखक- मुश्ताक अहमद यूसुफी
उर्दू से हिंदी में अनुवाद- ‘तुफैल’ चतुर्वेदी
प्रकाशक, मुद्रक- लफ्ज पी -12 नर्मदा मार्ग
सेक्टर 11, नोएडा-201301
मोबाइल-09810387857
पेज -350 (हार्डबाऊंड)
कीमत-200 रुपये मात्र
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चिट्ठाजगत चिप्पीयाँ: पुस्तक चर्चा, समीक्षा, काकेश, विमोचन, हिन्दी, किताब, युसूफी, व्यंग्य
मुबारका जी यानी अब हमे अक्सर यहा शेर सुनने को मिलते रहेगे. इस महफ़िल मे एक हमवजन शेर हम भी फ़ेक रहे है..:)
“या इलाही दे लुगाई,बच्चे हो कई हजार
एक डिप्टी,नौ कलेक्टर बाकी सब तहसीलदार”
अब वाह वाह हमरी पोस्ट पर टिपियादेना..:)
vaaha vaaha वाह वाह!!!!
तोड़ डाले जोड़ सारे बांध कर बन्दे-कफ़न
गोर की बग़ली से चित है पहलवां, कुछ भी नहीं
..आनन्ददायी शेर 🙂 जारी रहें…
बहुत खूब..
अरुण भाई तो शेर मारकर टिपियाने का बंदोबस्त कर निकले…एक शेर हम भी मार लेते हैं…शायद काकेश जी टिपियाने आ जाएँ..
ज़िंदगी की एंबिशन है, नौकरी मिल जाए एक
ऐ ख़ुदा तूने बिशारत को दिया कुछ भी नहीं
शेर तो मै नहीं बता सकता कि नम्बर काटने लायक है या नम्बर बढ़ाने लायक। पर यह इण्टरव्यू बहुत रोचक है।
bahut badhiya